Ban on social media for children बचपन बचाने को बेलगाम सोशल मीडिया पर लगाम
हाल में ऑस्ट्रेलिया में कानून लागू किया कि बच्चे-किशोर सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। एक्स, टिकटॉक, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे मंचों तक उनकी पहुंच प्रतिबंधित है ताकि वे इनके नकारात्मक प्रभाव से बच सकें। शोधों के मुताबिक, एल्गोरिद्म के जरिये ये बड़ों के कंटेंट को भी कंट्रोल करती है। समस्या इन्फ्लूएंसर भी हैं। इन कंपनियों की जवाबदेही व आजादी की सीमा स्तर तय करने पर यूरोप, अमेरिका और भारत समेत कई देशों में विचार-विमर्श जारी है। हालांकि आज के डिजिटल युग में इन प्लेटफॉर्मों की उपयोगिता के चलते पाबंदियों को लेकर कुछ सवाल भी उठे हैं।
डॉ. संजय वर्मा/ प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर
सोशल मीडिया का बेलगाम विस्तार आज पूरी दुनिया के लिए बड़ी चिंता का विषय बन गया है। दुनियाभर में इस बात पर मंथन जारी है कि आखिर इससे कैसा रिश्ता बनाएं और इसकी चुनौतियों से कैसे निपटें। हाल ही में, ऑस्ट्रेलिया में लागू हुए कानून में व्यवस्था की गई है कि 16 साल से कम उम्र के बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। वहां की संसद में 28 नवंबर को यह कानून पारित हो गया। इसके तहत एक्स (पूर्व में ट्विटर), टिकटॉक, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे मंचों तक बच्चों की पहुंच को प्रतिबंधित किया गया है। साथ ही, इस पाबंदी को लागू करने की जिम्मेदारी सोशल मीडिया कंपनियों पर डाली गई है कि वे ऐसे प्रावधान करें जिनसे सोलह साल से कम उम्र के बच्चे सोशल मीडिया के मंचों पर अपने अकाउंट नहीं बना सकें। कानून का पालन नहीं करने वाली सोशल मीडिया कंपनियों पर भारी जुर्माने का प्रावधान रखा गया है।
दावा है कि दुनिया में ऑस्ट्रेलिया पहला ऐसा देश है, जहां बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पाबंदी लगी है। उद्देश्य बच्चों को सोशल मीडिया के नुकसान से बचाना है जोकि आज एक वैश्विक समस्या है। ऐसी पाबंदियों का समर्थन करते हुए ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ ने कहा है कि बच्चे अनिवार्य रूप से अपना बचपन जिएं और उनके माता-पिता को मन की शांति मिले। उल्लेखनीय है , मौजूदा यूज़र और माता-पिता चाहें या ना चाहें, कानून के तहत बनने वाला ढांचा (फ्रेमवर्क) सभी पर अनिवार्यतः लागू होगा। नियमों के पालन की जिम्मेदारी सोशल मीडिया और टेक कंपनियों की होगी और कायदे नहीं मानने पर करोड़ों का जुर्माना उन पर लगेगा। जहां तक छूट की बात है तो उन मैसेजिंग सेवाओं और गेमिंग साइट्स पर पाबंदी नहीं होगी, जो बच्चों के लिए उपयोगी कंटेंट बनाती हैं और जिन्हें यूट्यूब के बिना इस्तेमाल यानी एक्सेस किया जा सकता है।
पाबंदी से उभरे सवाल
ऊपरी तौर पर लगता है कि यह ऑस्ट्रेलियाई पहल मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। सोशल मीडिया ने कुछ उपयोगी देने के मुकाबले नई पीढ़ी का जितना नुकसान किया है, उसे देखते हुए दुनिया भर में उस पर प्रतिबंध लगा देने चाहिए। पर यहां कई बड़े सवाल है, जिन पर ऐसी पाबंदियां लगाने से पहले विचार करना जरूरी है। जैसे, सरकारें और नियामक संस्थाएं यह कैसे तय करेंगी कि तेजी से बदलते आज के माहौल में इंटरनेट का कौन-सा मंच सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है और कौन-सा नहीं। साथ ही, कोरोना वाले दौर को याद करने से लगता है कि अगर सोशल मीडिया को बैन कर दिया, तो पढ़ाई, कामकाज, ईकॉमर्स वेबसाइटों के जरिए खरीदारी से लेकर मनोरंजन तक की जो सहूलियतें घर बैठे दुनिया को मिल रही हैं, उनका क्या होगा। स्कूल-कॉलेजों में अध्यापक गृहकार्य और परीक्षा संबंधित परियोजनाओं की सूचना छात्रों को सोशल मीडिया के जरिए देते हैं। शायद इसी वजह से टेक कंपनियों के हितों को देखने वाले एक ऑस्ट्रेलियाई समूह ने पाबंदियों को ‘21वीं सदी की चुनौतियों के बरक्स 20वीं सदी की प्रतिक्रिया’ ठहराया है। यह आशंका भी जताई जा रही कि चुनींदा सोशल मीडिया मंचों पर प्रतिबंध की स्थिति में बच्चे ‘इंटरनेट के खतरनाक और अनियमित हिस्सों’ की ओर धकेले जा सकते हैं, जो और भी बड़ी चुनौती है। पाबंदियों के विरोध का सबसे तार्किक पक्ष यह कि इंटरनेट आज ऐसा समुद्र बन गया है जिसमें उसके उपयोगी पहलुओं को तय करना और सबसे खराब पक्ष को प्रतिबंधित करना मुश्किल हो गया है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि बच्चों को तैराकी सीखने के लिए पानी में उतरना होगा। इसलिए समुद्र के पानी को बाड़ लगाकर नहीं रोकते, बल्कि स्वीमिंग पूल, तैराकी संबंधी सुरक्षा उपकरणों की मदद से बच्चों को कुशल तैराकी का हुनर सिखाते हैं।
सार्वभौमिक चिंताएं
उल्लेखनीय है, बीते मई 2024 में ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों पर लगाम लगाने के मकसद से ऐलान किया था कि वहां सोशल मीडियों प्लेटफॉर्म्स के प्रभाव की जांच की जाएगी। ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने खास तौर से चिंता प्रकट की थी कि कि आज सोशल मीडिया की पहुंच और असर बहुत ज्यादा है। सोशल मीडिया कंपनियां यह फैसला करने की भूमिका में आ गई हैं कि लोग क्या देखें, क्या सोचें या क्या खरीदें। मामला सिर्फ ऑस्ट्रेलिया का नहीं है, बल्कि इसे भारत के संदर्भ में और अमेरिका-चीन आदि देशों में प्रतिबंधों के सुझावों के आधार पर देखे जा्रने की जरूरत है। खासतौर से इसलिए क्योंकि इस वर्ष लोकसभा चुनाव से पहले मार्च में भारत की केंद्र सरकार ने अगले पांच वर्षों के लिए नई सरकार का जो रोडमैप पेश किया था, उसमें भी सोशल मीडिया मंचों के सतर्क इस्तेमाल और डीपफेक के मामलों में सावधानी बरतने को कहा गया था। ऐसे दौर में, जब टेक कंपनियां हर वक्त बच्चों को अपने साथ बांधे रखना चाहती हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है कि बच्चों को इन तकनीकी कठिनाइयों से निपटने में सक्षम बनाने की कोशिश करनी चाहिए या उन्हें इनसे अलग-थलग कर देना चाहिए।
रिश्तों में बिगाड़ की यूं आई नौबत
इसमें तो संदेह नहीं कि फेसबुक, टि्वटर, वॉट्सऐप, स्नैपचैट और इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया मंचों ने हर व्यक्ति को अपनी बात खुलकर कहने का अवसर दिया है। इस लिहाज से सोशल मीडिया ने नागरिकों को एक व्यक्ति के तौर पर अधिक सशक्त बनाया है। यह इसी रूप में सीमित रहता तो संकट न आता। समस्या तब पैदा हुई जब सोशल मीडिया कंपनियों ने यह फैसला अपने हाथ में ले लिया कि लोग ऑनलाइन क्या देखें और क्या नहीं। ऑस्ट्रेलिया में इन कंपनियों से जो तनातनी बढ़ी, उसका एक संदर्भ इस साल चर्चा में आए हिंसक वीडियो से जुड़ता है। इस वीडियो को माइक्रो ब्लॉगिंग साइट- एक्स से हटाने को लिए ऑस्ट्रेलियाई सरकार और एक्स के बीच तीखी नोकझोंक हुई । पादरियों पर किशोर द्वारा चाकू से हमले की घटना का हवाला देते हुए ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने कहा था कि घरेलू हिंसा से लेकर युवाओं में कट्टरपंथ को बढ़ावा देने संबंधी कंटेंट के प्रसार में अक्सर सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका दिखाई देती है। हो सकता है डिजिटल मंचों के कुछ सकारात्मक प्रभाव भी हों, लेकिन इनकी ज्यादातर भूमिका नकारात्मक ही रहती है। उल्लेखनीय है कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार के आग्रह को ठुकराते हुए एक्स के मालिक एलन मस्क ने उस वीडियो को एक्स से हटाने से मना कर दिया था। बाद में जब अदालत ने ऐसा करने का आदेश दिया, तो भी उसे सिर्फ ऑस्ट्रेलिया के सर्वर से हटाया गया, शेष दुनिया के लिए वह वीडियो उपलब्ध रहा। बढ़ी तनातनी के बीच जब ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री में मस्क को ‘अहंकारी अरबपति’ कहा था तो मस्क ने कहा कि किसी देश को पूरी दुनिया के इंटरनेट पर नियंत्रण का अधिकार कैसे दिया जा सकता है।
चिंता और चिंतन में कंपनियों की आजादी
निश्चय ही, ज्यादा महत्वपूर्ण मसला सोशल मीडिया कंपनियों के व्यवहार और जवाबदेही से जुड़ी चिंताओं का है। इसे लेकर यूरोप, अमेरिका और भारत समेत कई एशियाई देशों में विचार विमर्श चल रहा है कि सोशल मीडिया कंपनियों को आखिर कितनी आजादी दी जाए। साथ ही, अगर ये कंपनियां मनमानी करती हैं, तो इन पर कैसे और क्या प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। ऐसे में कुछ माह पहले अमेरिका में टिकटॉक को चेतावनी जारी की गई थी, जिसे भारत में पहले ही बैन किया जा चुका है। उधर यूरोप में फेसबुक और गूगल पर कई मामलों में जुर्माने लगाए गए। इन कंपनियों पर ये कार्रवाइयां सामाजिक जवाबदेही के संबंध में की गई हैं, न कि आर्थिक या वित्तीय नियमों के उल्लंघन में। इसका अर्थ यह है कि जिस तरह से ये कंपनियां आम लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही हैं, उस यूरोप और अमेरिका तक में इसे एक गलत परंपरा माना जा रहा है जहां अभिव्यक्ति की सर्वाधिक आजादी हासिल होने का दावा किया जाता है। अमेरिका में इन मामलों में सोशल मीडिया कंपनियों के प्रमुखों को सरकार के सामने पेश होने और तीखे सवालों का जवाब देने को बाध्य किया गया है।
इस पूरे प्रसंग में सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) स्थित न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में सोशल मीडिया कंपनियों की सामाजिक जवाबदेही से संबंधित शोध का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। इस शोध में डॉ. कॉनर क्लून ने सोशल मीडिया कंपनियों की जवाबदेही पर एक अध्ययन किया। शोध के निष्कर्ष में डॉ. कॉनर ने लिखा कि इन कंपनियों के एल्गोरिद्म इस मामले में बेहतर हो रहे हैं कि कैसे उनके मंचों पर मौजूद लोगों के कंटेंट को नियंत्रित किया जाए। इसका इस्तेमाल ये कंपनियां कंटेंट को अपनी नीतियों के पक्ष और फायदे में नियंत्रित करने में कर सकती हैं। यानी ये कंपनियां किसी खास उत्पाद, नीति, विचारधारा का प्रचार-प्रसार नियंत्रित कर सकती हैं। चाहें तो उन सामग्रियों की पहुंच सीमित कर सकती हैं, जिसे ये पसंद नहीं करतीं, जिस चीज का प्रचार करना चाहें, आम लोगों के कंटेंट के जरिए आसानी से कर सकती हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अमेरिका के कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क समेत 33 राज्यों में इंस्टाग्राम और फेसबुक संचालित करने वाली कंपनी- मेटा पर दर्ज मुकदमों में आरोप लगाया गया था कि इन सोशल मीडिया मंचों से छोटे बच्चों और किशोरों को नशे की लत के लिए उकसाया गया है। साथ ही, इन पर उपलब्ध कंटेंट ने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला है। दर्ज मुकदमों के अनुसार, ये कंपनियां बच्चों और किशोरों को लुभाने के लिए ताकतवर तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है। इनकी वजह से बच्चों में बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर नामक मानसिक बीमारी पैदा हो गई है। इस बीमारी के प्रभाव में आकर बच्चे-किशोर अपने भीतर किसी शारीरिक कमी का अनुभव करते हैं और खुद को वास्तविक समाज से दूर कर लेते हैं। हालांकि ये कंपनियां आरोपों को बेतुका बता रही हैं, लेकिन उनकी दलीलों को सरकारें उपयुक्त नहीं मान रही। यही कारण है कि अमेरिकी राज्य यूटा ने मार्च 2024 से ऐसा कानून लागू किया, जिसके तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने से पहले अपने माता-पिता की लिखित मंजूरी लेना अनिवार्य होगा। अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के आंकड़े बताते हैं कि वहां 9वीं से 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली 30 फीसदी अमेरिकी लड़कियों ने सोशल मीडिया के प्रभाव में आकर आत्महत्या करने पर गंभीर रूप से विचार किया। कुछ और शोध से जुड़े आंकड़ों के अनुसार, सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों में एंग्जाइटी, अवसाद (डिप्रेशन) और तनाव (टेंशन) के लक्षण अक्सर पाए जाते हैं। ऐसे शोध और आंकड़े युवा आबादी की बहुतायत वाले भारत में ज्यादा चिंता की वजह बन सकते हैं क्योंकि यहां सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की संख्या और दर किसी भी देश के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसमें चीन को शामिल करना तार्किक नहीं होगा, क्योंकि वहां सरकारी प्रतिबंधों के कारण लोग या तो सोशल मीडिया के देसी संस्करणों का इस्तेमाल करते हैं या फिर वहां बच्चों-किशोरों के लिए इसके इस्तेमाल की मियाद तय है।
धांधलियों का उत्सर्जक
सिर्फ बच्चे ही सोशल मीडिया कंपनियों के निशाने पर नहीं हैं। बल्कि इन मंचों से जुड़ी समस्याएं कुछ और भी हैं। जैसे, इन पर मौजूद इन्फ्लूएंसर यानी वे लोग जो सोशल मीडिया मंचों पर काफी मशहूर हैं, अपनी लोकप्रियता और भरोसे का फायदा उठाकर लोगों को घटिया या नकली उत्पाद खरीदने को प्रेरित करते हैं। शेयर बाजार में उन कंपनियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर दावे करते हैं, जिनका रिकॉर्ड खराब हो। इसका एक प्रमाण इंग्लैंड की पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी में किए शोध में मिला। इसके मुताबिक सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर की सलाह पर 16-60 साल की उम्र के बीच करीब 22 फीसदी उपभोक्ताओं ने ऐसे नकली उत्पाद खरीद लिए, जिन्हें इन्फ्लूएंसर्स ने प्रमोट किया था। सोशल मीडिया कंपनियां ऐसी धांधलियां रोकने में नाकाम रही हैं। हालांकि एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि ने फेक अकाउंट की पहचान करने और उन्हें ब्लॉक करने आदि उपायों को लागू किया है, लेकिन यह रोकथाम बहुत असरदार नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भुगतान के बदले प्रचार (पेड प्रमोशन) जैसे तरीकों की बदौलत सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर भारी कमाई करते हैं। इसलिए वे नकली या घटिया उत्पादों का प्रचार करने का कोई अनोखा तरीका निकाल लेते हैं, जिसकी तुरंत पहचान करना आसान नहीं होता है। दावा है कि भारत में ही इस समय करीब आठ करोड़ सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर मौजूद हैं। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो पैसे देकर अपने दर्शक और पहुंच (फॉलोअर और व्यूज़ रीच) बढ़ाते हैं। इसलिए इनकी धरपकड़ करना बड़ी चुनौती है। यह काम सोशल मीडिया कंपनियां आसानी से कर सकती है, बशर्ते वे अपनी सामाजिक जवाबदेही समझें और निभाएं। यही कोशिश ऑस्ट्रेलियाई सरकार नए कानूनों की शक्ल में कर रही है। उम्मीद है कि पाबंदियों से सोशल मीडिया कंपनियां अपनी जिम्मेदारी समझने को विवश होंगी और बच्चों-बड़ों को बहकाने और गलत रास्ते पर धकेलने की आदत से बाज आएंगी।
सोशल मीडिया के झोलाछाप सलाहकार
पांच साल पहले 2019 में सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव संबंधी मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश दीपक मेहता ने टिप्पणी की थी कि जब तक वह खुद सोशल मीडिया से अनजान थे, तब तक वह बहुत खुश थे। अब इस पर इतना नकलीपन आ गया है कि लगता है कि स्मार्टफोन छोड़कर बेसिक फीचर फोन अपना लिया जाए, ताकि सोशल मीडिया के बुरे असर से बचा जा सके। बेरोकटोक ऑनलाइन टीका-टिप्पणी, ट्रोलिंग, चरित्र हनन, झूठ और फर्जी खबरों के प्रसार पर चिंता प्रकट करते हुए जस्टिस मेहता ने कहा था कि इस तकनीक ने कई मामलों में बेहद खतरनाक रूप ले लिया है। इसकी थोड़ी सी जानकारी रखने वाले चाहें तो डार्क वेब की मदद से कुछ खतरनाक व प्रतिबंधित चीज खरीद सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि इसके इस्तेमाल पर रोक लगाई जाए। और कुछ नहीं तो झूठा प्रचार करने, दूसरों की अकारण निंदा करने वालों की पहचान करने वाली तकनीक विकसित की जाए। ऑस्ट्रेलियाई सरकार की तरह जस्टिस मेहता का भी सुझाव था कि यह काम सोशल मीडिया कंपनियां का है कि वे ऐसी सामग्रियों के स्रोत की पहचान करें और उसे रोकें। सोशल मीडिया पर नकलीपन का एक बड़ा हिस्सा इसके इंफ्लूएंसर्स के जरिए पैदा होता है। इसकी मिसाल इसी वर्ष चीन में मिल चुकी है। वहां एक इंफ्लूएंसर अपने ऑनलाइन चैनल के जरिए एक लाख से ज्यादा लोगों को फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने और इस आधार पर देश-विदेश में अपनी धाक जमाने के सपने दिखा रहा था। ये महाशय लोगों को सही अंग्रेज़ी लिखने, बोलने और सही उच्चारण करने के सबक दे रहे थे। लेकिन अंग्रेजी की जानकारी की परीक्षा लेने वाले बेसिक टेस्ट सीईटी-4 में यह युवक फेल हो गया। इस आसान से अंग्रेजी के टेस्ट में फेल होने के बाद इस युवक ने अपने फॉलोअर्स से माफी मांगी और चैनल को हटा दिया। असल में, सोशल मीडिया पर हर क्षेत्र से जुड़े झोलाछाप सलाहकारों की फौज पैदा हो गई है। ये कोई योग्यता नहीं रखते व उनकी भाषा भी उपयुक्त नहीं होती। लेकिन कैमरे के सामने से प्रभावशाली तरीके से बोलने की क्षमता के आधार पर किसी न किसी विषय पर सलाहें देने का काम करने लगते हैं। कुछ लोग तमाम विषयों के ऑनलाइन कोर्स भी बेचकर लाखों-करोड़ों कमाते हैं। वक्त आ गया है कि ऐसे लोगों की पहचान की जाए और इनके जाल में फंसने से लोगों को बचाया जाए।