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किशोरों के जीवन से खेलती बुरी लत

07:07 AM Apr 05, 2024 IST
किशोरों के जीवन से खेलती बुरी लत
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दीपिका अरोड़ा

तकनीकी विकास की करिश्माई देन, मोबाइल फ़ोन अपनी विविधता की उपयोगिता के चलते युवाओं तथा बड़े बुज़ुर्गों से लेकर बच्चों तक का चहेता बन चुका है। अवयस्कों द्वारा सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताना उनके शारीरिक, मानसिक व नैतिक विकास को प्रभावित कर रहा है।
मोबाइल के बढ़ते दुष्प्रभावों पर संज्ञान लेते हुए, हाल ही में अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य में नाबालिगों के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने का ऐलान किया गया। इसके अंतर्गत, 14 वर्ष से कम आयुवर्ग के बच्चों के सोशल मीडिया खातों पर रोक रहेगी। सोशल मीडिया के प्रयोग से पूर्व अभिभावकों की अनुमति अनिवार्य होगी। नियमोल्लंघन पर संबद्ध छात्र का मोबाइल ज़ब्त करने एवं आदेश पालन सुनिश्चित बनाने हेतु शिक्षकों को बच्चों के बैग सख़्तीपूर्वक जांचने का अधिकार दिया गया है। सुधारात्मक दृष्टिकोण से इसे एक सराहनीय क़दम माना जा रहा है।
फ्रांस सरकार पहले ही अपने देश में इससे संबद्ध कानून लागू कर चुकी है। ब्रिटेन के शिक्षा मंत्रालय ने भी कुछ ही समय पूर्व, छात्रों का व्यवहार संयमित करने तथा पढ़ाई पर एकाग्रता बढ़ाने के उद्देश्य से विद्यालयों में मोबाइल फ़ोन के प्रयोग पर पूर्ण पाबंदी लगाने संबंधी निर्देश जारी करते हुए कहा कि पाठशाला में इसका प्रयोग पढ़ाई तथा अन्य गतिविधियों में व्यवधान उत्पन्न करता है।
बच्चों में मोबाइल की बढ़ती लत के विषय में भारतवर्ष भी अपवाद नहीं। सोशल मीडिया ने मानो बच्चों का बचपन ही छीन लिया है। परम्परागत खेल खेलने की बजाय मोबाइल पर उंगलियां घुमाना बच्चे मनोरंजन का बेहतर उपाय मानते हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, पांच साल तक के 99 प्रतिशत बच्चे गैज़ेट एडिक्शन के शिकार हैं। अधिक स्क्रीन टाइम बच्चे के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है, देश के 66 प्रतिशत अभिभावक इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार, 65 प्रतिशत परिवार खाना खिलाते समय बच्चों को टीवी-मोबाइल दिखाते हैं। 12 माह का बच्चा प्रतिदिन 53 मिनट स्क्रीन देखने में बिताता है, 3 वर्ष की उम्र होने तक यह अवधि बढ़कर डेढ़ घंटा हो जाती है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक़, बचपन में ही मोबाइल की लत लगने से बच्चे अनेक रोगों की चपेट में आने लगते हैं। स्क्रीन टाइम बढ़ने से शारीरिक गतिविधि कम होती है तथा ओवरइटिंग की आदत पनपती है, जिसके फलस्वरूप मोटापा घेरने लगता है एवं अल्पायु में ही मधुमेह, हृदय रोग आदि गंभीर रोगों से पीड़ित होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताना जहां समूची दिनचर्या को प्रभावित करता है, वहीं बच्चों में आलस्य, अनिद्रा, अवसाद, चिंता, तनाव आदि मानसिक समस्याएं बढ़ाने के साथ ही बेचैनी, झल्लाहट तथा हिंसक प्रवृत्ति उपजाने का भी प्रमुख कारण बनता है। अभिभावकों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय न बिताना उन्हें समाज से अलग-थलग कर, आत्मकेंद्रित तो बनाता ही है, उनकी एकाग्रता को भी प्रभावित करता है। विशेषकर, रील बनाने का आधुनिक प्रचलन अवयस्कों को ऐसी आत्ममुग्धता की ओर धकेल रहा है, जिसमें बहुत बार मर्यादाएं भी तार-तार होती दिखाई पड़ती हैं। गैज़ेट्स पर ज्यादा समय बिताने से बच्चों को बोलने में दिक्कत व समाज में दूसरे लोगों से तारतम्य स्थापित करने में परेशानी महसूस होने लगती है। दूसरे शब्दों में, मोबाइल, टेबलेट, कंप्यूटर आदि का अधिक प्रयोग बच्चों को वर्चुअल ऑटिज़्म का शिकार बना रहा है।
मोबाइल टाइम का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव आंखों पर देखने में आया है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़, 20 वर्षों के दौरान छोटे बच्चों में मायोपिया की बीमारी तीन गुणा बढ़ गई। इस संदर्भ में अकेले राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो 2001 में बच्चों में आंख से कम दिखने की समस्या 7 प्रतिशत थी जो कि 2011 में बढ़कर 13.5 प्रतिशत तक जा पहुंची। कोविड के पश्चात 2021 में किए गए सर्वेक्षण में 20 से 22 प्रतिशत बच्चे मायोपिया की समस्या से ग्रस्त पाए गए, जिसका सबसे बड़ा कारण बच्चों में बढ़ता स्क्रीन टाइम रहा।
सोशल मीडिया की लत से बचाने के लिए अभिभावकों से अपेक्षित है कि बच्चों को गुणवत्तापूर्वक समय देने के साथ ही उनकी हॉबीज़ को उभारने में भी सहायक बने। फ़ैमिली टाइम के दौरान स्वयं भी मोबाइल से दूरी बनाए रखना निहायत ज़रूरी है। बच्चों को प्रतिदिन 20-30 मिनट साइकिल चलाने के लिए प्रेरित करना एवं बैडमिंटन, क्रिकेट, टेनिस जैसी आउटडोर खेलें खेलने हेतु प्रोत्साहित करना बच्चों को शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक रूप से पुष्ट बनाएगा। खेल विशेषज्ञों के अनुसार, रोज़ाना बाहर खेलने से आंखों की रोशनी में सुधार होता है।
अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस सरकारों का यह निर्णय निश्चय ही छात्रों के लिए हितकारी है। इससे न केवल वे पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे बल्कि मोबाइल फ़ोन पर अनुचित सामग्री देखने से भी बच सकेंगे। अपराधीकरण में प्रवृत्त अवयस्कों की बढ़ती संख्या के दृष्टिगत, भारत जैसे देशों को भी इस संदर्भ में ठोस उपाय ढूंढ़ने चाहिए। बच्चे तो कच्ची माटी की मानिंद हैं, उनके व्यक्तित्व को सही आकार प्रदान करना अभिभावकों, समाज व सरकारों का ही साझा दायित्व है।

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