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पानी की कहानी फिल्माने से परहेज

09:14 AM Oct 19, 2024 IST
मराठी फिल्म ‘पाणी’ का दृश्य

हेमंत पाल
सामाजिक मुद्दों को प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा ही है। परदे पर समस्या को देखकर लोग उससे सीधे जुड़ते हैं। फिल्म इंडस्ट्री भी बरसों से सामाजिक मुद्दों को लेकर सजग रही। फिल्मों के शुरुआती काल से 80 के दशक तक ज्वलंत मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राज कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास, रित्विक घटक और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से ही खोजा। मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई सामाजिक मुद्दे हाशिये पर चले गए। ऐसी फिल्में बनना कम होते-होते बंद हो गई। यही कारण है कि पानी की समस्या पर कभी गंभीर फ़िल्म नहीं बनी, जो बनी भी तो उसका मूल कथानक किसी और विषय पर केंद्रित रहा। आज जब देश-दुनिया के सामने पानी की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, कोई भी फिल्मकार इस विषय पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं।
‘रोटी, कपड़ा और मकान’ पर तो मनोज कुमार ने फिल्म बनाई, पर ‘पानी’ को कभी विषय नहीं बनाया गया। शायद इसलिए कि इसे फ्लॉप आइडिया माना जाता है। किंतु, अब प्रियंका चोपड़ा और आमिर खान ने इस दिशा में कोशिश की है। प्रियंका ने मराठी में ‘पाणी’ बनाई, जिसका निर्देशन आदिनाथ एम कोठारे ने किया और हनुमंत केंद्रे ने मुख्य भूमिका निभाई है। फिल्म की बुनियाद मराठवाड़ा के जल संकट पर आधारित है। इस संकट के कारण युवाओं की शादी भी प्रभावित होती हैं। प्रियंका चोपड़ा की मां डॉ. मधु चोपड़ा और कुछ अन्य लोग फिल्म के निर्माता हैं। उनके अलावा आमिर खान भी अब हिंदी में ‘पानी’ विषय पर फिल्म बनाने वाले हैं।

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ख्वाजा ने पहल की

इस विषय की अहमियत को सबसे पहले ख्वाजा अहमद अब्बास ने समझा और 1946 में ‘धरती के लाल’ फिल्म बनाई। यह बंगाल के अकाल की विभीषिका और उससे उभरे लालच और क्रूरता की कहानी थी। यह उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद 1963 में राजस्थान में एक महत्वाकांक्षी जल परियोजना की शुरुआत की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ख्वाजा अहमद अब्बास से एक दिन ज़िक्र किया कि वे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में पानी की अहमियत और नहर के बनने पर फिल्म क्यों नहीं बनाते? अब्बास को इस मुद्दे में बहुत से आयाम नज़र आए। उन्होंने ‘दो बूंद पानी’ (1971) फिल्म बनाई। इस फिल्म की कहानी गंगा नाम के युवा किसान और उसकी पढ़ी-लिखी दुल्हन गौरी पर केंद्रित थी। गंगा के पिता पानी की कमी से अपनी ज़मीन के सूखने से परेशान होते है। गंगा भी इस बांध बनने में योगदान देना चाहता है, उसकी पत्नी भी यही सलाह देती है। गंगा बांध के काम पर चला जाता है। लेकिन, बांध निर्माण के दौरान एक हादसे को बचाते हुए गंगा मारा जाता है। फिल्म का अंत उम्मीद जगाता है। क्योंकि, गौरी अपने नवजात बच्चे को ‘जमुना’ नाम देती है।

‘लगान’ बनी पर उसमें कहीं पानी नहीं


इसके बाद पानी की समस्या पर कभी कोई गंभीर फिल्म नहीं बनी। आमिर खान ने 2001 में ‘लगान’ जरूर बनाई। लेकिन, ये बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जल संकट जैसा मुद्दा दब गया। साल 2013 में पानी के मुद्दे पर ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ (2014) जरूर आई थी। ‘जल’ को तो कच्छ के रण में फिल्माया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था। इससे पहले 2005 में दीपा मेहता ने ‘वाटर’ जरूर बनाई, पर इसका पानी वास्ता नहीं था। ‘वेल डन अब्बा’ (2010) हैदराबाद के एक गांव की पृष्ठभूमि में बनी फिल्म है जिसमें एक आदमी दुनिया में बढ़ती पानी की समस्या के चलते अपने खेत में कुआं खुदवाना चाहता है तो उसे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। फिल्म का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया।
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घोषणा की, पर पूरा नहीं किया


शेखर कपूर ने 2010 के कांस फिल्म समारोह में ‘पानी’ बनाने का ऐलान किया था। इसमें भविष्य के ऐसे दौर की कल्पना की गई, जब पानी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होगा और लोग एक-एक बूंद के लिए संघर्ष करेंगे। लेकिन, ये फिल्म नहीं बनी। फिर 2013 में ‘यशराज फिल्म्स’ के बैनर तले इस फिल्म की चर्चा हुई। सुशांत सिंह का इसमें अहम किरदार बताया गया। बाद में फिल्म का ये आइडिया आता-जाता रहा। इसके बाद फिर शेखर कपूर ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया। लेकिन, फिल्म घोषणा से आगे नहीं बढ़ी। इसकी कथा 2040 के कालखंड को जोड़कर बुनी गई जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। दोनों क्षेत्रों में जंग छिड़ती है और इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांत राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा को लिया गया था। फिल्म का पोस्टर भी जारी हुआ, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया, जिसमें एक बूंद भी पानी नहीं।

कुछ और फ़िल्में जिनमें पानी केंद्र में नहीं

पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या। फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। यह फिल्म कर्ज में डूबे किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती है। ऐसी ही एक फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ दो गांवों ‘ऊपरी’ और ‘बैरी’ की कहानी है। ऊपरी गांव ऊंची जाति वालों का है। बैरी में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं लेकिन, वे पानी को सहेजते हैं और वहां पानी बहुत है। जब ऊंची जाति वालों के गांव में पानी की किल्लत आती है तो वे बैरी गांव से छल कर पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा।
पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर कैसे पिएं। पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी हैं। इनमें से एक है ‘थर्स्टी सिटी।’ 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया। ‘पानी’ विषय पर फ़िल्में भले ही गिनती की बनी हों, गाने भी कम बने, पर पसंद किए गए। फिल्म ‘अनोखी रात’ का गीत ‘ओह रे ताल मिले नदी के जल में’ हमारे जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करता लगता है। पानी पर कुछ और गाने लोकप्रिय हुए- पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिलाओ (शोर), मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानो तो बहता पानी (गंगा की सौगंध) और काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसा जा (लगान) जब सुनाई देते हैं तो दिल में उतर जाते हैं।

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