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दृष्टि के मुकाबले मूल्यवान होता है दृष्टिकोण

07:29 AM Sep 06, 2021 IST
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आज हम सभी समाज में व्याप्त नकारात्मक सोच को लेकर व्यथित और चिंतित रहते हैं। सच तो यह है कि जीवन में दृष्टि से बहुत अधिक मूल्यवान तो व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है। पेड़ को सभी पेड़ ही कहते हैं, लेकिन सहृदय कवि उस पेड़ में जीवन देख लेता है, जबकि कोई व्यापारी उसकी लकड़ी का मूल्य लगाकर हानि-लाभ का हिसाब लगा लेता है।

कौन नहीं जानता कि रामबोला नाम के एक युवक ने अपनी युवा पत्नी के प्रेम में पागल होकर नदी पार करके आधी रात को उसके पीहर में जाकर उसे जब जगाया, तो लोकलाज में डूबी पत्नी रत्नावली ने उसे एक दोहा कह दिया था :-

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अस्थि-चर्ममय देह यह, ता सौं ऐसी प्रीति।

नैकु जो होती राम सौं,क्यों होती भव भीति।

और, पत्नी के प्रेम में डूबे उस रामबोला को इन्हीं बोलों ने तुलसीदास बना दिया, जो रामचरित मानस रचकर अमर हो गए।

सच तो यही है कि हमारा दृष्टिकोण ही हमारे चिंतन का दर्पण होता है। एक व्यक्ति सारी बाधाओं के बाद भी शान्त और प्रसन्न रहता है, जबकि उसी के पास रहने वाला दूसरा व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी सदा रोता और बिलखता ही रहता है। नीति के कवि रहीम ने तो ठोक बजाकर कहा है :-

‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्यापत नहिं, लिपटे रहत भुजंग।’

फिर, ऐसा क्यों होता है कि समाज में सब कुछ होते हुए भी आदमी दुर्गुणों की ओर आकृष्ट हो जाता है? इस प्रश्न का उत्तर है कि हम दृष्टिकोण बदल लेते हैं।

एक राजा ने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने पूज्य गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी उत्सव में सादर आमन्त्रित किया। राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी मनोरंजन के लिए बुलाया गया। राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को यह कहकर दे दीं कि यदि वे चाहें तो राजनर्तकी के अच्छे गीत और नृत्य पर प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत कर सकें। सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की वेला आ गई। तभी राजनर्तकी ने देखा कि उसका तबला बजाने वाला ऊंघ रहा है। उत्सव में व्यवधान न हो, इसलिए उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा :-

‘बहुत बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।

एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय?’

राजनर्तकी के इस दोहे का दरबार में उपस्थित अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुरूप अलग-अलग अर्थ निकाला। राजनर्तकी की बात सुनकर तबले वाला भी सतर्क होकर अपना तबला बजाने लगा।

जब नर्तकी की यह बात राजा के गुरु जी ने सुनी, तो उन्होंने राजा के द्वारा दी हुई सारी स्वर्ण मुद्राएं प्रसन्न होकर उस नर्तकी के सामने फेंक दीं। तब तो अत्यंत उत्साहित नर्तकी ने वही दोहा फिर से पढ़ा, तो राजा की पुत्री ने तुरंत अपना नवलखा हार गले से निकालकर उसे भेंट कर दिया। राजनर्तकी ने उत्साह में भरकर फिर वही दोहा दोहराया, तो राजा के पुत्र युवराज ने भी अपना राज-मुकट उतार कर नर्तकी को समर्पित कर दिया। उत्साहित नर्तकी जब वही दोहा फिर दोहराने लगी, तो राजा ने ऊंची आवाज़ में कहा—बस करो राजनर्तकी, अपने एक ही दोहे से, तुमने वेश्या होकर भी, आज यहां बैठे हुए लोगों को लूट लिया है।

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु जी कहने लगे—राजा! इसको तुम वेश्या मत कहो, ये तो मेरी गुरु बन गयी है। आज इसने बताया है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक ईश्वर-भक्ति करता रहा हूं और जीवन के आखिरी समय में इस राजनर्तकी का यह मुज़रा देखकर, अपनी साधना को नष्ट करने यहां चला आया हूं। इसलिए मैं तो चला। यह कहकर गुरु जी अपना कमण्डल उठा कर जंगल की ओर चल पड़े।

तभी राजा की लड़की ने भी कहा—पिताजी! आप राजकाज में आंखें बन्द किए बैठे रहे हैं। मेरी शादी की बात आपने कभी सोची ही नहीं। आज रात को मैंने आपके महावत के साथ भागकर शादी करने की योजना बना ली थी लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर, कभी तो तेरी शादी होगी ही। क्यों अपने पिता और इस राजवंश को कलंकित करने पर तुली हुई है? मुझे क्षमा करें। तभी युवराज ने भी क्षमा मांगते हुए कहा—पिता जी! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज्य नहीं दे रहे थे। मैंने आज रात ही आप के सिपाहियों से मिलकर, आपकी हत्या करवा कर राज्य छीन लेने की योजना बनाई थी, लेकिन इस नर्तकी ने मुझे समझाया कि पगले! आज नहीं तो कल, आखिर राज्य तो तुम्हें ही मिलना है, तब क्यों अपने पिता की हत्या का कलंक अपने सिर पर लेता है? जब ये सब बातें राजा ने सुनी, तो राजा को भी आत्मज्ञान हो गया। राजा के मन में भी वैराग्य आ गया। राजा ने उसी समय युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा—पुत्री! आज दरबार में एक से एक राजकुमार आये हैं। तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वर माला डालकर पति रूप में चुन सकती हो। राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा अपना राजपाट त्याग कर अपने गुरु की शरण में चला गया। यह सब देखकर उसी समय राजनर्तकी में हृदय में भी वैराग्य आ गया।

हर व्यक्ति को थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है। दृष्टि भले ही एक सा दिखलाती हो, लेकिन महत्वपूर्ण और मूल्यवान तो आदमी का दृष्टिकोण ही होता है।

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