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इस जनमत के निहितार्थ भी समझिए

10:22 AM Jun 05, 2024 IST
इस जनमत के निहितार्थ भी समझिए
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विश्वनाथ सचदेव

आशाओं और आशंकाओं के बीच झूलते हुए लोगों ने आम-चुनाव के परिणामों को देखने-समझने की कोशिश की है। इसी समझ का एक परिणाम यह भी है कि सारा चुनाव-प्रचार इस बात का साक्षी रहा है कि संकल्प-पत्र की गारंटियों और घोषणापत्रों के दावों के बावजूद कम से कम भाजपा की ओर से यह चुनाव मुद्दों से कहीं अधिक पार्टी के ‘एकछत्र नेता’ के नाम पर अधिक लड़ा गया था। हमारे संविधान में भले ही ऐसी कोई व्यवस्था न हो, पर पिछले चुनाव की तरह ही इस बार भी अमेरिका की राष्ट्रपति-प्रणाली की तरह चुनाव लड़ने की कोशिश सत्तारूढ़ दल ने अवश्य की थी। ऐसा नहीं है कि इस बार मुद्दे थे ही नहीं, पर मुद्दों की जगह जुमले ज़्यादा उछले। ‘इंडिया एलायंस’ ने ज़रूर संविधान की रक्षा जैसे सवाल उठाये और महंगाई बेरोज़गारी की बात की, लेकिन यह भी हमने देखा कि चुनाव-प्रचार के दौरान संविधान को बदलने की कोशिशों के संकेत भी दिये गये।
भाजपा पर संविधान को बदलने की कोशिशों की बात कांग्रेस पार्टी ने उठायी थी। आरोप यह था कि भाजपा संविधान को बदलकर देश को तानाशाही की ओर ले जा सकती है। भाजपा ने इस बात का पुरजोर खंडन किया और हमारे संविधान के मुख्य शिल्पी बाबा साहेब अंबेडकर की दुहाई देकर संविधान में अपनी आस्था प्रकट की। यह कहना तो मुश्किल है कि संविधान को लेकर उठे इस मुद्दे का चुनाव के नतीजे पर क्या और कितना असर पड़ा, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि संविधान के साथ छेड़छाड़ की इस बात ने देश के नागरिकों के एक वर्ग को चौकन्ना अवश्य बना दिया था। संविधान को लेकर इधर चर्चाएं भी हो रही हैं। यही वह समय है जब यह ज़रूरी हो गया है कि देश में संविधान की महत्ता और उसे लेकर उठाये जा रहे सवालों पर देश का प्रबुद्ध नागरिक विचार करे।
हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस बात को रेखांकित करना जरूरी समझा था कि यह देश हर भारतीय का है। जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण के आधार पर किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता। हमारा संविधान नागरिक के कर्तव्य और अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या करता है। था एक वर्ग जो समान अधिकार के नाम पर ‘राजा और गंगू तेली’ को समानता देने के तर्क को समझ नहीं पाया था, पर देश की सामूहिक चेतना ने हर नागरिक को वोट का अधिकार देकर यह सुनिश्चित कर दिया था कि जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाला हमारा गणतंत्र क्षमता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के ठोस आधारों पर खड़ा है। यहां हर एक के वोट का अधिकार समान है; यहां हर एक को न्याय पाने का अधिकार है; यहां हर एक को विकास का सामान अधिक अवसर मिलेगा; यहां हर एक को अपनी आस्था के अनुसार जीवन-यापन करने की सुविधा मिलेगी। देश के नागरिक को यदि किसी बात की गारंटी की आवश्यकता है तो वह इस बात की है कि उसे एक सार्वभौम स्वतंत्र देश के गौरवशाली नागरिक के रूप में जीने का अधिकार और अवसर प्राप्त हो। हमारा संविधान इस बात की गारंटी देता है।
यही गारंटी इस बात को भी सुनिश्चित करती है कि देश का हर निर्वाचित शासक संविधान के बुनियादी ढांचे के अनुरूप कार्य करेगा। समय और स्थितियों के अनुसार संविधान में संशोधन अवश्य हो सकता है, पर संविधान की मूल आत्मा को बदलने का अधिकार किसी को नहीं है। क्या है यह संविधान की मूल आत्मा? इस प्रश्न का उत्तर हमारे संविधान की प्रस्तावना में छिपा है। हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस प्रस्तावना में स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘हम भारत के लोग एक समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, जनतांत्रिक गणतंत्र’ की स्थापना करते हैं। हमने इस संविधान को स्वयं आत्मार्पित किया था। सौ से अधिक बार आवश्यकता के अनुसार संविधान में संशोधन हो चुके हैं, पर प्रस्तावना में वर्णित अवधारणाओं को कहीं छेड़ा नहीं गया। समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, जनतांत्रिक गणतंत्र यह चार शब्द मात्र शब्द नहीं हैं, इन चार शब्दों में वे सारे सपने समाहित हैं जो हमने 75 साल पहले अपने लिए देखे थे। देश का हर प्रयास उन सपनों को पूरा करने की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम होना चाहिए।
जब हम समाजवाद की बात करते हैं तो इसका अर्थ हर नागरिक को समान अधिकार और अवसर देना मात्र नहीं है। मनुष्य मात्र की समानता में विश्वास करने वाला सिद्धांत है यह। मैं भी जियूंगा, तुम भी जियो; मेरे पास एक रोटी है, आओ हम आधी- आधी बांटकर कुछ भूख मिटा लें। यही मनुष्यता है। इसी मनुष्यता का तकाज़ा यह भी है कि हम एक-दूसरे की सीमाओं का सम्मान करते हुए स्वतंत्रतापूर्वक विकास की सीढ़ियां चढ़ें। यहां विकास का अर्थ बड़े-बड़े कल-कारखाने अथवा लंबी-चौड़ी सड़कें मात्र नहीं है, मनुष्य का सर्वांगीण विकास इसकी परिभाषा है। हर व्यक्ति को न्याय मिले, हर व्यक्ति स्वयं को दूसरे से जुड़े होने की सार्थकता को समझ सके, यह है वह स्थिति जो हमारे गणतंत्र को सार्थक बनाती है।
18वीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों में हमारे राजनीतिक दलों ने बहुत से वादे और दावे किये हैं। नई सरकार को एक वादा देश के हर नागरिक के साथ करना होगा—संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा करने का वादा। कोई नयी बात नहीं है यह। हमारा हर निर्वाचित प्रतिनिधि और निर्वाचित सरकार का हर सदस्य संविधान की रक्षा की शपथ लेता है। इस रक्षा का सीधा-सा अर्थ यह है कि हम उन बुनियादी मूल्यों-आदर्शों के अनुरूप जीवन जीने का ईमानदार प्रयास करेंगे जो हमारे संविधान को एक पवित्र ग्रंथ बनाते हैं। सिर्फ माथा टेकने से संविधान की रक्षा नहीं होगी। संविधान के अनुरूप आचरण ही यह रक्षा करेगा।
इस आचरण की पहली शर्त हर नागरिक को समान समझना है। इन चुनाव में हमने देखा है कि किस तरह वोट की राजनीति राष्ट्र के निर्माण की राजनीति पर हावी हो जाती है। हमने यह भी देखा है कि सत्ता की राजनीति करने वाले किस तरह धर्म और जातियों में नागरिकों को बांटकर हमारे संविधान की मूल अवधारणा पर प्रहार करते हैं। यह राजनीति बंद होनी चाहिए। हम सबके पास कुछ सपने होते हैं– अपने लिए, अपनों के लिए। सपनों की यह लक्ष्मण रेखाएं बंधन बन रही हैं। इन बंधनों से उबरना होगा– जब हमारा सपना सबके लिए सपना बनेगा, तब हमारा जनतंत्र सही अर्थ में सफलता की राह पर चलेगा। यह सफलता ही हम सब का सपना होनी चाहिए।
आज हमारे नेता विकसित भारत की बात कर रहे हैं– परिभाषित करना होगा इस विकास को। यह विकास तभी सही माने में अर्थवान होगा जब यह सबका विकास होगा। यह काम नारों से नहीं होगा, पूरी ईमानदारी के साथ करने से होगा। ईमानदारी की इस परीक्षा में सबसे पहले हमारे उन नेताओं को उत्तीर्ण होना होगा जो हमें गारंटियों से भरमाते रहे हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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