‘आराधना’ देख आया एक्टर बनने का ख्याल
दीप भट्ट
तकरीबन 100 से अधिक हिन्दी फिल्मों में अभिनय कर चुके अभिनेता टॉम आल्टर, भारतीय फिल्मों का जाना-माना नाम हैं। उनके हिस्से में ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘देस-परदेस’, ‘चमेली मेमसाहब’ और ‘कुदरत’ जैसी चंद ऐसी यादगार फिल्में आई हैं, जिनमें उनके बेहतरीन अभिनय की झलक मिलती है। वह रंगमंच की दुनिया का भी एक जाना-माना चेहरा रहे। टॉम आल्टर से लेखक की यह बातचीत उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले कई चरणों में हुई थी।
हिन्दी की फिल्मों की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?
19 साल तक मैंने हिन्दी फिल्में बहुत कम देखी थीं, ज्यादातर इंग्लिश फिल्में देखता था। हिन्दी फिल्में देखना मैंने तब शुरू किया, जब लोगों के दिलों पर राजेश खन्ना छाए हुए थे। उनकी फिल्में देख-देखकर मैं उनका बहुत बड़ा फैन बन गया। ‘आराधना’ तो मैंने पहले हफ्ते में पांच बार देखी। इसे देखने के बाद मेरे मन में आया कि मैं भी एक्टर बन सकता हूं।
कैसे और किस फिल्म से आपकी सिनेमा में शुरुआत हुई?
साल 1972 में मैंने पुणे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ज्वाइन किया। 1974 में वहां से निकला। मेरी पहली फिल्म थी, ’चरस’। इसके निर्देशक थे, मशहूर फिल्मकार रामानंद सागर। धर्मेन्द्र इस फिल्म के हीरो थे।
अपनी टॉप टेन फिल्मों में आप किन फिल्मों को शुमार करते हैं?
‘चरस’ तो है ही। ’शतरंज के खिलाड़ी’, ’आशिकी’, ’चमेली मेमसाहब’ और वेद राही की ’वीर सावरकर’ पर बनी फिल्म। इसके अलावा सईद मिर्जा की ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’, देव आनंद की ‘देश-परदेस’, राजकपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ भी। वहीं ‘सल्तनत’ और ‘क्रांति’ में भी मेरी अच्छी भूमिकाएं थीं।
आपने ज्यादातर विलेन के किरदार निभाए?
अगर आप मेन रोल प्ले करते हैं तो हीरो हो जाते हैं। अगर करेक्टर आर्टिस्ट कर रहे हैं तो कुछ शराफत वाले रोल होते हैं, कुछ बदमाश वाले रोल होते हैं। ‘आशिकी’ में मैं ओपन विलेन नहीं था, पर था वो विलेन का ही किरदार। बहुत मजा आता था, उस किरदार को करने में।
किन फिल्मों में आपने सबसे ज्यादा एंजॉय किया?
‘परिन्दा’ में काम करने में बड़ा मजा आया। ‘सरदार’ फिल्म में माउंटबेटन का किरदार निभाया जो काफी चुनौतीपूर्ण था।
आपने कई फिल्मकारों के साथ काम किया। आपके अभिनय को समृद्ध बनाने में किसका ज्यादा योगदान रहा?
‘चरस’ के दौरान मैंने महसूस किया कि रामानंद सागर को थोड़ी सी लाउड एक्टिंग पसंद है। देव आनंद के साथ मैंने अभिनेता और निर्देशक दोनों रूपों में काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी और मनमोहन देसाई से भी काफी कुछ सीखने को मिला। राजकपूर तो ऐसी शख्सियत थे कि एक्टर के अंदर का डर, उनसे एक मुलाकात में निकल जाता था।
‘शतरंज के खिलाड़ी’ में सत्यजीत रे जैसे महान फिल्मकार के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
उनके जैसा प्रीपेयर्ड डायरेक्टर मैंने और कोई नहीं देखा। शूटिंग से छह माह पहले हमारे हाथ में मुकम्मल स्क्रिप्ट आ गई थी।
चेतन आनंद के साथ आपने ‘साहब बहादुर’ और ‘कुदरत’ फिल्में कीं। उनके निर्देशन के बारे में क्या कहेंगे?
मैंने उनके साथ सबसे पहले ‘साहब बहादुर’ की थी, जो चली नहीं। उसके बाद ‘कुदरत’ की, जो बहुत चली। किसी भी एक्टर से उनका काम लेने का तरीका अद्भुत था।
ऋषिदा के साथ ‘नौकरी’ फिल्म की? उनके साथ काम करते हुए कैसे अनुभव रहे?
‘नौकरी’ में मेरे एक ओर मेरे फेवरिट राजेश खन्ना थे तो दूसरी ओर शोमैन राजकपूर। मेरी भूमिका काफी अच्छी थी और काफी भावुक चरित्र था यह। मैं अपनी भूमिका को भावुक अंदाज में निभाना चाहता था। पर ऋषि दा ने मुझे अपने किरदार को इमोशनल अंदाज में करने से रोक दिया। बस यहीं से मन उखड़ गया। काम किया, पर मेरा किरदार दबकर रह गया।
फिल्मों से इतर आपकी हॉबीज कौन-कौन सी हैं ?
शौक खेलने का बहुत है- चाहे क्रिकेट हो, टेनिस हो, बैडमिंटन हो या क्रास कंट्री रनिंग हो, वॉलीबाल हो या बास्केटबाल। वहीं लिखने का भी शौक है। पढ़ने का शौक है। शायरी में दिलचस्पी बहुत है।
आप तो पोइट्री भी करते हैं?
हमारा खानदानी पेशा है, पोइट्री। खानदान में चारों तरफ पोइट्स हैं, लेखक हैं। तो उस सिलसिले में कभी-कभार हाथ मार लेता हूं। अपने को उस दर्जे तक नहीं पहुंचा सकता। लेकिन मेरे बड़े भाई साहब अच्छे कवि हैं। इंगलिश में लिखते हैं, जॉन अल्टर।
हिन्दी सिनेमा में आई तब्दीली को किस तरह महसूस करते हैं?
सिनेमा अब फिर जिन्दगी के करीब हो रहा है। पहले जिस घिसे-पिटे ढांचे के अंदर फिल्में बनती थीं, वो टूट गया है। हिन्दी सिनेमा का एक पहलू उम्मीदों से भरा है। ‘पेज थ्री’, ‘स्वदेश’ और ‘वीरजारा’ जैसी फिल्मों के बीच ‘खामोश पानी’ जैसी फिल्में भी बन रही हैं, जो जिन्दगी की कड़वी सच्चाई बयान करती हैं।