अफ़ग़ानिस्तान को मान्यता नहीं, मदद की दरकार
पंद्रह अगस्त, 2023 को अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के दो साल हो चुके हैं। तालिबान शासन ने तीसरे साल में प्रवेश कर लिया है, उसे अब भी मान्यता का इंतज़ार है। जब मान्यता नहीं है, तो दिल्ली स्थित अफग़ान दूतावास को क्या अवैध माना जाए? विदेश मंत्रालय में अफग़ान डेस्क देखने वाले कूटनीतिक इस यक्ष प्रश्न पर मौन साध जाते हैं। फरीद मामुंदजय ने 14 मार्च, 2021 को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को अपना प्रत्यय पत्र आभासी रूप में प्रस्तुत किया था। उसके पांच माह बाद 15 अगस्त, 2021 को काबुल में संघीय सरकार का पतन और इस्लामिक अमीरात के फतह की घोषणा हुई थी। फरीद मामुंदजय जैसे राजदूत के लिए असमंजस की स्थिति है। सरकार को मान्यता नहीं, और राजदूत की ज़िम्मेदारी निभानी है। अस्वीकृत सरकार के राजदूत कब तक बने रहेंगे? दुनियाभर में तैनात अफग़ान दूत इसी दुविधा से गुज़र रहे हैं।
15 अगस्त, 2021 को काबुल के पतन से नौ दिन पहले निमरोज़ पहला प्रांत था, जो इस्लामिक अमीरात की सेनाओं के कब्ज़े में आया। इसके प्रकारांतर नौ दिनों के भीतर देश के 32 अन्य प्रांत पूरी तरह से इस्लामिक अमीरात के नियंत्रण में आ चुके थे। इस्लामिक अमीरात के काबुल पहुंचते ही अराजकता फैल गई। राजधानी काबुल में तालिबान की दस्तक के साथ पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी ने 15 अगस्त की दोपहर झोला उठाया, और अफगानिस्तान से भाग निकले। इस्लामिक अमीरात ने दूसरी बार अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। शायद कुछ ही लोगों को गणतंत्र के पतन और अमीरात की स्थापना का अनुमान था। मगर वो तबाही का मंज़र था। पूरा मुल्क भयग्रस्त। दुनिया दम साधे इंसानी विस्थापन की बदतरीन तस्वीर देखती रही।
अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने तब कहा था कि हम अफगानिस्तान की समस्याओं को शांतिपूर्ण, भाईचारे के जरिये सुलझाने के लिए तालिबान के नेताओं से बात करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसा कुछ हुआ क्या? स्वयं हामिद करज़ई के लोगों को सत्ता में शिरक़त का अवसर नहीं मिल रहा। पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के जो लोग बचे-खुचे हैं, अपने देश में अज्ञातवास झेल रहे हैं। मगर, दिलचस्प यह है कि अशरफ ग़नी की सरकार को अब भी संयुक्त राष्ट्र में मान्यता मिली हुई है। राजधानी काबुल में 13 देशों ने अपना दूतावास खोल रखा है, उनमें भारत भी है। अफग़ानिस्तान के 49 दूतावास व 20 कौंसुलेट दुनियाभर में स्थापित हैं, लेकिन किसी भी राजदूत की नियुक्ति इस्लामिक अमीरात के माध्यम से स्वीकृत नहीं हो पाई है।
पुराने सत्ताधारियों का दुःख उस मंज़र को याद कर बढ़ जाता है, जब इस्लामिक अमीरात के सदस्यों ने 15 अगस्त, 2021 की शाम, आर्ग (राष्ट्रपति निवास) पहुंचकर पिछली सरकार का झंडा उतार दिया था। अल जजीरा टीवी के प्रसारण में उस समय इस्लामिक अमीरात के वरिष्ठ नेताओं में से एक मुल्ला अब्दुल गनी बारादर ने लोगों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का आश्वासन दिया था। उसके शब्द अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष फरेब ही साबित हुए। तब मुल्ला अब्दुल गनी बारादर ने कहा था, ‘हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए थे, जहां ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि अफगानिस्तान इस तरह हमारे हाथों में आ जाएगा।’
अंतिम अमेरिकी सैनिक मेजर जनरल क्रिस डोनह्यू के अफग़ानिस्तान छोड़ देने के बाद दुनिया ने मान लिया कि 31 अगस्त, 2021 को अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी दो दशकों की सैन्य उपस्थिति समाप्त कर दी। लेकिन अमेरिकी चौधराहट से अफग़ानिस्तान को मुक्ति नहीं मिली है। करीब 3 लाख 50 हज़ार की संख्या बल वाली जिस अफगान सेना को तैयार करने में बरसों-बरस लगे, वो एक झटके में बिखर गई। 6 सितंबर, 2021 को पंजशीर पर फतह के अगले दिन इस्लामिक अमीरात ने अपनी अंतरिम कैबिनेट की घोषणा की।
एक मुल्क जहां के लोग आशियाना और आबोदाना की समस्या से जूझ रहे हों, उन्हें भूखों मरने के लिए छोड़ा नहीं जा सकता। भारत, संयुक्त राष्ट्र खाद्य कार्यक्रम (यूएनडब्ल्यूएफपी) के तहत अब तक 47,500 मीट्रिक टन गेहूं अफग़ानिस्तान भेज चुका है। इसके अतिरिक्त दवाएं और दूसरी सहायता सामग्रियां इस देश को भेजी गई हैं। हेरात स्थित ‘यूएनडब्ल्यूएफपी’ के अधिकारी बताते हैं कि अफग़ानिस्तान के एक करोड़ 60 लाख ज़रूरतमंद लोगों के लिए ये सामग्रियां चाबहार पोर्ट के रास्ते भारत ने अफग़ानिस्तान भिजवाने का इंतज़ाम किया है।
चीन, दाने-दाने को तरसते इस देश को सहायता के नाम पर स्कॉलरशिप दे रहा है। अफग़ान मार्ग का इस्तेमाल चीन सेंट्रल एशिया में व्यापार के विस्तार के लिए कर रहा है। इस्लामिक अमीरात को चीन ने सस्ती दर पर विद्युत और सीमेंट उत्पादन के लिए राजी किया है। ‘फान-चाइना अफग़ान माइनिंग प्रोसेसिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी’, अफग़ानिस्तान में खनन के वास्ते 35 करोड़ डॉलर के निवेश का अहद कर चुकी है। चीन-पाकिस्तान आपदा में अवसर तलाशने की हर कोशिशें कर रहे हैं, लेकिन अफ़गान शासन को मान्यता या यहां की जनता को अन्न-वस्त्र देना इनकी नीयत और नीति से ग़ायब दिखता है।
अमेरिका ने अफग़ानिस्तान को दर्द दिया है, तो दवा वही पर्दे के पीछे से मुहैया करा रहा है। प्रतिबंध के बावज़ूद, वाशिंगटन ने बातचीत का दरवाज़ा बंद नहीं किया है। अमेरिका और तालिबान के बीच नियमित बातचीत के दो रास्ते हैं, एक राजनीतिक और दूसरा, खुफिया आधारित। तालिबान खुफिया विंग ‘जीडीआई’ के प्रमुख अब्दुल हक वासिक दोहा का अक्सर दौरा करते हैं। दोहा अब भी तालिबान का राजनीतिक मुख्यालय है। अमेरिका के विशेष दूत टॉम वेस्ट ने जुलाई में कतर में विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी के नेतृत्व में तालिबान टीम के साथ बातचीत की थी। क़तर अकेला मुल्क है, जो अफग़ानिस्तान में खुलकर मानवीय मदद कर रहा है।
12 अगस्त, 2023 को ख़बर आई कि तालिबान के उप-प्रधानमंत्री मुल्ला अब्दुल गनी बारादर तुर्कीये दौरे पर थे। वहां उनकी मुलाक़ात तुर्कीये विदेश मंत्रालय में आर्थिक महकमे के प्रमुख नाइल ओलपाक से हुई। तुर्कीये नाटो का प्रमुख देश होने के साथ-साथ अमेरिकी क्लब का सक्रिय सदस्य है। मानकर चलिये कि मदद देने की कवायद अमेरिकी इशारे पर हो रही है। दूसरी ओर रूस ने भी तालिबान का दामन नहीं छोड़ा है। इस्लामिक अमीरात का दावा है कि आगामी 29 सितंबर को ‘मास्को फार्मेट’ की बैठक में उनके प्रतिनिधि को आमंत्रित किया गया है।
इस्लामिक अमीरात की दूसरी सालगिरह का दुर्भाग्य देखिये, अब तक किसी भी देश ने इसे मान्यता नहीं दी है। भविष्य में दुनिया के साथ इस्लामिक अमीरात के सहकार का क्या होगा? यह अनिश्चित है। वहां औरतें शिक्षा के साथ अपने हुकूक के सवाल के साथ खड़ी हैं। अमीरात अपनी आदतें सुधारेगा नहीं, मगर उसे पूरी दुनिया से आर्थिक मदद चाहिए!
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।