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फास्ट फूड की लत, खराब करे सेहत

08:21 AM Oct 08, 2024 IST
फास्ट फूड की लत  खराब करे सेहत
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सरस्वती रमेश
सिमरन के दोनों बच्चे टीनएजर हैं जो चिप्स, चॉकलेट, कोल्डड्रिंक, आइसक्रीम, पिज्ज़्ाा और पैकेज्ड फूड के दीवाने हैं। यह ऐसी उम्र है जब बच्चों को डांटना-फटकारना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। बच्चे मनमर्जी का खाना-पीना चाहते हैं। घर पर बना अधिकतर खाना उन्हें पसंद नहीं आता। सिमरन सजग मां है। उसे पता है कि डिब्बाबंद और पैकेज्ड फ़ूड अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में आते हैं जो सेहत के लिए हानिकारक होते हैं। वह बच्चों को ज्यादा पैकेट बंद चीजें खाने से मना भी करती है। मगर वो मानते नहीं। अब सिमरन उनके बढ़ते वजन व स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहती है। यह चिंता आज सिमरन जैसी हजारों-लाखों महिलाओं की है जो अपने बच्चों के स्वस्थ भविष्य के प्रति आशंकित हैं।

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कामकाजी लोगों की भी खास पसंदीदा

अनेक कामकाजी महिलाएं और पुरुष भी अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स के चंगुल फंसे हुए हैं। थकान भरी दिनचर्या, समय का अभाव, स्वादिष्ट भोजन की चाह और परिवेश के कारण वो झटपट उपलब्ध खाने को प्राथमिकता देने लगे हैं। सिर्फ महानगरों में ही बच्चों, महिलाओं और पुरुषों के बीच अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड की खपत नहीं बढ़ी बल्कि छोटे शहरों, कस्बों यहां तक कि गांवों में भी पैकेट बंद खाद्य वस्तुएं खूब बिक रही हैं। इनका बाजार तेजी से बढ़ रहा है। बच्चों को उपहार में कुकीज, चॉकलेट दिया जाता है। उनको बहलाने के लिए चिप्स, सॉफ्टड्रिंक, जूस आदि घर पर रखा जाता है। बच्चे ताजे के बजाय पैकेटबंद जूस पीना ज्यादा पसंद करते हैं। सॉस और कैचअप तो सभी के फ्रिज में रखा होता है। साल 2023 में भारत में पैकेज्ड फूड मार्केट का मूल्य 2.8 बिलियन डॉलर रहा, 2026 तक इसके पांच ट्रिलियन रुपये से अधिक होने की उम्मीद है।

क्या है अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स

अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स में नमक, चीनी और फैट के अलावा आर्टिफिशियल कलर, फ्लेवर, प्रिजर्वेटिव, आर्टिफिशियल स्वीटनर, थिकनर, इम्लसिफायर वगैरह डाले जाते हैं। जो निगेटिव न्यूट्रिएंट माने जाते हैं। ऐसा फूड्स को लंबे समय तक सुरक्षित रखने, टेक्स्चर बेहतर बनाने और स्वाद को लजीज बनाने के लिए करते हैं। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन ने अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में ऐसे फूड्स आइटम को रखा है, जो लंबे समय तक इस्तेमाल किए जा सकते हैं और इनमें पांच या उससे ज्यादा इंग्रीडिएंट होते हैं।

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यूं बढ़ रहा उपभोग

अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड का सेवन सबसे ज्यादा बच्चे और युवा करते हैं। आज की जनरेशन को सबकुछ जल्दी चाहिए, भूख मिटाने का तरीका भी फ़ास्ट चाहिए। तभी दो मिनट में बनने वाला नूडल्स अकेले रहने वाले लड़के-लड़कियों के बीच इतना लोकप्रिय है। रसोई में जाकर कुछ हेल्दी और टेस्टी पकाने का धैर्य अब खत्म होता जा रहा है। युवा खाना पकाने के बजाय अपना वक्त प्रोडक्टिव लगने वाले कामों में लगाना चाहते हैं। फिर पैकेट में मिलने वाले खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट और फौरन भूख मिटाने वाले होते हैं। मतलब इनकी कम मात्रा का सेवन करके भी भूख मिट जाती है। अमूमन हर कोई किसी न किसी रूप में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड खा रहा है। फिर चाहे वह बिस्किट हो या फ्रूट जूस।

रोगों की वजह है ऐसा खानपान

अनेक शोधों से यह जाहिर हो चुका है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स से मोटापा, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और हार्ट की बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है। अब डिप्रेशन भी सूची में जोड़ दिया गया है। जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित शोध के मुताबिक जो महिलाएं अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड ज्यादा खाती हैं, खासकर आर्टिफिशियल स्वीटनर्स वाले, उन्हें डिप्रेशन होने का खतरा अन्य महिलाओं से ज्यादा होता है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में गैर-संचारी रोगों के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं जिसकी मुख्य वजह लाइफस्टाइल और खान-पान है, यह भी कि भारत में 56 प्रतिशत बीमारियों की वजह अनहेल्दी फ़ूड है।

एडिक्टिव भी कम नहीं

शोधकर्ता मानते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड स्मोकिंग जितना एडिक्टिव होते हैं। इन्हें इस तरह बनाया जाता है कि बार-बार खाने की इच्छा हो। शुरू में शौकिया तौर पर इसे खाते हैं, मगर जल्द ही तलब सी उठने लगती है। इन खाद्य पदार्थों में रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट और वसा की मात्रा ज्यादा होती है, जो हमारे दिमाग में बदलाव कर सकते हैं। अधिकतर मांएं चाहती हैं कि उनके बच्चों को अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड के एडिक्शन से निजात मिले। अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड के उत्पादन और उपभोग पर कई देश लगाम लगाने के उपाय अपना रहे हैं जिनमें चिली, मैक्सिको, डेनमार्क, हंगरी, फ्रांस फ़िनलैंड व नॉर्वे शामिल हैं।

रोकथाम को लेकर भारत की स्थिति

भारत में, जीएसटी दरों का भोजन में पोषण सामग्री या अत्यधिक शुगर से कोई लेना-देना नहीं है। सभी नमकीन स्नैक्स पर 12 प्रतिशत कर लगाया जाता है, चाहे उनमें नमक की मात्रा कुछ भी हो। बिना चीनी वाले जूस और अधिक चीनी वाले जूस पर एक समान कर हैं। पैकेट पर इंग्रेडिएंट्स की जानकारी लिखने के निर्देश जरूर हैं। मगर कोई स्पष्ट चेतावनी के अभाव में इसका उपभोक्ताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

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