For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

लोक जीवन के सच्चे चित्रकार

06:56 AM Nov 03, 2024 IST
लोक जीवन के सच्चे चित्रकार
Advertisement

डॉ. आनन्द शर्मा
दुबला-पतला शरीर, मोटे खद्दर का कुर्ता, अलीगढ़ी पायजामा, गले में भोजपुरी गमछा, कोट पहने, कनटोप लगाए, आंखों पर ऐनक, पैरों में चप्पल, मझोला कद, चेहरे पर उत्साह और पीड़ित वर्ग के प्रति व्यथा की मिली-जुली प्रतिक्रिया के भाव—धाकड़ और अक्खड़ तबीयत के नागार्जुन सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर अपनी सुघड़ लेखनी से कभी पद्य में, तो कभी गद्य में लड़ते-लड़ते इस संसार को अलविदा कह गए।
साधारण व्यक्तित्व के धनी इस असाधारण प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार का जन्म कब हुआ, यह ठीक से उन्हें भी ज्ञात नहीं था, लेकिन इतना ज्ञात है कि वे ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को जन्मे थे। सतलखा इनका ननिहाल था, वहीं इनका जन्म हुआ। दरभंगा के निकट तरौनी इनका पैतृक गांव माना जाता है। मैथिली ब्राह्मण परिवार में जन्मे नागार्जुन की माता का देहावसान इनकी शैशवावस्था में ही हो गया था। ‘वत्स गोत्रीय’ ब्राह्मण परिवार में इनसे पूर्व चार संतानें काल का ग्रास बन चुकी थीं। अतः इनके जन्म के बाद बाबा बैद्यनाथ से आशीर्वाद पाने के पश्चात इनका नाम बैद्यनाथ हो गया। सभी को भय था कि यह बालक भी अपने परिवार को ठग जाएगा, अतः इन्हें ‘ठक्कन' के नाम से अभिहित किया गया। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप नागार्जुन ने हिन्दी साहित्य में नए आयाम स्थापित किए।
अनेक विद्याओं के ज्ञाता इस साहित्यकर्मी को कई नामों से जाना गया जिनमें ठक्कन मिसर, वैद्यनाथ मिश्र, नागार्जुन, पात्री और बाबा प्रमुख हैं लेकिन असल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। पिता गोकुलनाथ मिश्र अल्पपठित, परंपरावादी, किंतु साहसी, ईमानदार,घुमक्कड़ व्यक्ति थे, दायित्व के प्रति उदासीन भी। नागार्जुन के बालमन पर उनकी इस आदतों का प्रभाव पड़ा। इनकी माता उमादेवी सीधे-सादे ढंग की, किन्तु सहृदय, परिश्रमी एवं दृढ़ चरित्रवान नारी थीं। अधेड़ आयु में ही उनका देहान्त हो गया था। वात्सल्य के अभाव में नागार्जुन ने तेरह वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था।
नागार्जुन की प्रारम्भिक शिक्षा ‘लघु सिद्धान्त कौमुदी’ और ‘अमर कोश’ जैसी संस्कृत पुस्तकों से हुई। किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते उनकी पढ़ने की लालसा प्रबल हो गयी, लेकिन घर की परिस्थिति विपरीत थी। ‘तरौनी’ में प्रथम परीक्षा और ‘गनौली’ के संस्कृत विद्यालय में रहकर ‘व्याकरण मध्यमा’ पास करने के बाद काशी से संस्कृत आचार्य की उपाधि ग्रहण की। साल 1930 में पालि और प्राकृत भाषा का अध्ययन करने के बाद काव्यतीर्थ की उपाधि कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज से मिली। सन‍् 1936 में सिंहलद्वीप (श्रीलंका) जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। पालि के पंडित बने और बौद्ध-धर्म एवं बौद्ध साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। यहीं वे वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन बने। ‘विद्यालंकार परिवेण’ का अध्ययन किया। यहीं साम्यवाद और समाजवाद के प्रथम पाठ पढ़े। इनके संस्कृत काव्य गुरु अनिरुद्ध मिश्र रहे, लेकिन हिन्दी में पहले इन्होंने कबीर और निराला को अपना काव्यगुरु माना। जिनकी काव्य परंपरा इनके काव्यग्रंथों में देखी जा सकती है। पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना इनकी दैनिकचर्या का हिस्सा था। हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगला, मराठी आदि भाषाओं के राजनैतिक और साहित्यिक पत्रों से ये लदे रहते थे। इसीलिए नागार्जुन इतने प्रखर व लोकोन्मुखी विचारक साहित्यकार बने।
नागार्जुन के व्यक्तित्व में सरलता एवं दृढ़ता का समन्वय था। विद्रोही और घुमक्कड़ स्वभाव के नागार्जुन का रहन-सहन सादा था। देश की मिट्टी और लोगों को पहचानने की विलक्षण शक्ति उनके पास थी।
आधुनिक लेखकों में नागार्जुन लेखन प्रतिबद्धता की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कविता और उपन्यास, दोनों विधाओं में इनका स्थान अग्रिम पंक्ति के लेखकों में परिगणित किया जाता है। लोक जीवन की गहन समझ नागार्जुन को थी। इन्हें जनवादी लेखक माना गया। बोलचाल की भाषा में इन्होंने राजनीतिक व्यवस्था का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए नेताओं के वास्तविक चेहरों से नकाब उतारे और अपने उपन्यासों व काव्य में राजनीति की करतूतों का पर्दाफाश किया। कबीर की भांति सहजता से गहन गंभीर बातें कह जाना नागार्जुन को आता था।
हिन्दी साहित्य के विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकारों की प्रथम श्रेणी में पहुंचना केवल नागार्जुन के व्यक्तित्व-कृतित्व से संभव था। प्रेमचन्द के पश्चात वे ही ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने कथा-साहित्य को सामाजिक यथार्थ से जोड़ा। उनका कथा-साहित्य और काव्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
नागार्जुन का रचनाकार निरन्तर निखरता एवं प्रौढ़ होता चला गया। वे प्रारम्भ में ज्ञान की छोटी सी गरिमा लेकर निकले थे, कालान्तर ज्ञान का महासागर बन पाठकों को आत्मविभोर किया। गत पांच दशकों से अपनी रचनाओं द्वारा समाज के प्रत्येक वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय, आयु और व्यक्ति का वर्णन कर नागार्जुन हिन्दी साहित्य धारा में प्रभावशाली स्थान बनाने में सफल रहे। इनकी रचना-धर्मिता में मैथिली साहित्य, बाल-साहित्य, निबंध, हिन्दी साहित्य के कीर्तिस्तम्भ हैं। व्यंग्य लेखों में इनकी समानता करना प्रायः कठिन है। घुमक्कड़-फक्कड़ प्रवृत्ति के कारण भी समाज को वे निकट से देख सके और उनकी रचनाओं में समाज का कटु यथार्थ अंकित हुआ। अनेक राजनीतिक आर्थिक-सामाजिक उतार-चढ़ावों के पश्चात इनकी आस्था अंततः साम्यवादी विचारधारा में ही रही। इनके साहित्य में मार्क्स से प्रभावित विचारों का अंकन विशेषतया हुआ। इनके युगीन साहित्यकार भी इन्हें जनवादी बाबा नाम से पुकारते हैं।
इनकी लेखनी आडंबरों, रूढ़ियों और विषमता के विरुद्ध जमकर चली। प्रेमचन्द की भांति भारतीय कृषक, मजदूर के प्रति आत्मीयता, फक्कड़पन और अनुचित बातों पर कबीर-सी फटकार—सभी का मिला-जुला रूप थे नागार्जुन।

Advertisement

Advertisement
Advertisement