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संघर्ष और संवेदना की मार्मिक गाथा

07:18 AM Jun 02, 2024 IST
संघर्ष और संवेदना की मार्मिक गाथा
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डॉ. देवेंद्र गुप्ता
गुलज़ार सिंह संधु पंजाबी के चर्चित कथाकार है। उपन्यासों के अतिरिक्त कथेतर गद्य में भी उन्होंने खूब नाम कमाया है। पंजाबी भाषा से इस उपन्यास का अनुवाद वंदना सुखीजा और गुरबख्श सिंह मोंगा ने अनुवाद की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए बखूभी किया है। अनुवादकों ने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद करते समय यह ध्यान रखा है कि भाषा की सरलता और उसके अर्थ प्रभावित न हों।
उपन्यास का कथानक जर्मन तानाशाह हिटलर और द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि के खौफनाक मंजर में रचा गया है। उपन्यास ‘गोरी हिरणी’ की मुख्य नायिका मारथा हिरणी की भांति चंचल है। गोरी हिरणी एक प्रतीकात्मक शीर्षक है। उपन्यासकार ने मारथा के चरित्र के साथ पूर्ण न्याय किया है। उपन्यास में दो बच्चों को किंडर गार्डन में छोड़कर चली जाने वाली मां हिटलर की युवा ब्रिगेड के दायित्व को निभाती हुए चली जाती है। मां के न आने पर दोनों भाई-बहन माइकल और मोनिका अनाथालय भेजे जाते है। जहां नि:संतान दम्पति उनको गोद लेकर पालते हैं। माइकल अपनी बहन को बहुत याद करता है। ऐसे बच्चे अपने जन्मदाता को बेहद याद करते हैं। खून के रिश्तों की गहराई को लेखक ने बड़ी शिद्दत के साथ पेश किया है। लेखक ने एक और समस्या की ओर इशारा किया है कि कुछ गोद लेने वाले उन बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और यौन शोषण करते हैं। मोनिका के साथ उसकाे गोद लेने वाला पिता शोषण करता था और फिर उसने गलत रह पकड़ ली थी। आखिकार मारथा वापस आ जाती है और अपनी स्मृतियों को याद करते हुए अंतिम सांस लेती है।
मारथा, माइकल और मोनिका के माध्यम से लेखक ने घटनाओं का सजीव और मार्मिक वर्णन किया है। लेखक मानो 1939-1945 के समय के चश्मदीद गवाह हो। वर्णनात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास में संवाद बहुत कम हैं। चरित्र बहुत महीन तरीके से बुने गए हैं। मोनिका के जीवन की मनोवैज्ञानिक व्याख्या देखते ही बनती है। इस तरह उपन्यास में नाजीवाद के समय का, उसके बाद के समय का और युद्ध के दौरान बिछुड़े परिवारों की टूटन का विस्तार से विश्लेषण किया गया गया है। भाषा और शिल्प के स्तर पर यह उपन्यास वर्ण्य विषय और प्रसंगों के अनुरूप चलता है। नि:संदेह, संवेदना और संघर्ष के मिश्रण को सुंदर अनुवाद ने जीवंत कर दिया है।

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पुस्तक : गोरी हिरणी उपन्यासकार : गुलजार सिंह संधु हिंदी अनुवाद : वंदना सुखीजा गुरबख्श सिंह मोंगा प्रकाशक : गार्गी प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 134 मूल्य : रु. 120.

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