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ओ! तेरी

07:34 AM Sep 22, 2024 IST
ओ  तेरी
चित्रांकन : संदीप जोशी
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हरि मोहन
इस बार पंडिज्जी को पार्टी ने टिकट नहीं दिया। यह महाशोक वाली स्थिति थी। हमारे इस छोटे से कस्बे के लिए यह बड़े अचरज की बात थी। पैरवी करने वालों ने खूब कोशिश की पर सफलता नहीं मिली। पैसा और गांठ से गया। पंडिज्जी कई रातों तक ठीक तरह से सो नहीं सके। दो दिन बाद नामांकन का अंतिम दिन था। उनके प्रतिद्वंद्वी राधेश्याम को टिकट मिल गया। पंडिज्जी के सीने पर सांप लोट गया! एकदम उनके दिमाग में बत्ती जली। वे पार्टी को बता देंगे मैं भी क्या चीज हूं। ऐसा दांव मारूंगा कि राधेश्याम को हरवा के ही चैन लूंगा। बेचैनी में वे बाहर के कमरे में चक्कर लगा रहे थे। तभी परसा उधर से गुजरा। उसने पंडिज्जी को पांव लागू बोला। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और आवाज लगाई ‘अरे! सुनो परशुराम!’ परशुराम को सब परसा या पारसी नाम से जानते हैं। वह अपना परशुराम नाम लगभग भूल ही गया था। पहली बार पूरा और सही नाम सुन रहा था। वह भी पंडिज्जी के मुंह से। उसे प्रेम से कुर्सी पर बिठाकर पंडिज्जी ने अंदर से पानी मंगवाया। परसा मन ही मन सोचने लगा पंडिज्जी को आज कौन-सा काम याद आ गया। इतने प्यार और सम्मान से बात कर रहे हैं। टिकट तो इनका कट गया है। क्या निर्दलीय लड़ेंगे? ‘क्या सोच रहे हो परशुराम बेटा?’ बेटा! शब्द सुनकर वह और सावधान हो गया। ‘कुछ नहीं बस ऐसे ही।’ कहते हुए उसने हिम्मत करके पंडिज्जी से पूछा, ‘आपका टिकट क्यों कट गया पंडिज्जी?’ उसने बात आगे सरकाई ‘मुझे ताज्जुब है। पार्टी में भी कई गुट बने हुए हैं। आपका गुट तो मजबूत है। आप दो बार के एमएलए हैं।’ ‘चाय पियोगे?’ पंडिज्जी ने यह चर्चा यहीं खत्म कर दी। ‘नहीं मन नहीं हो रहा।’ उसने चाय के लिए मना किया। ‘कहां जा रहे थे?’ पंडिज्जी ने बात आगे बढ़ाई। ‘खेतों की तरफ जा रहा था।’ परसा ने कहा। ‘राधेश्याम के पास जा रहे थे क्या?!’ ‘अरे राम राम राम! आपने किसका नाम ले दिया। उसको टिकट जातिवाद के गणित से और पैसे से मिला है। सब जानते हैं। बड़ी पार्टियां पैसे लेकर टिकट दे रही हैं। ...मैं आपका सेवक हूं। आपको छोड़कर कहीं नहीं जाने वाला।’ उसने जोड़ा। पंडिज्जी ने थाह ली, ‘तुम भी तो उसी जाति के हो। बहुत वोट हैं तुम लोगों के... मुझे मालूम है तुम एक बार निर्दलीय लड़े थे और तीसरे नंबर पर थे। अच्छा लड़े थे।’ ‘सब आपके चरणों का प्रताप है पंडिज्जी। वरना इस परसा को कौन वोट देगा।’ कहते हुए वह निरीह दिखाई दिया। ‘ऐसा करते हैं परशुराम इस बार तुम चुनाव लड़ लो।’ इस अप्रत्याशित प्रस्ताव को सुनकर परशुराम पंडिज्जी के चेहरे की ओर देखने लगा। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। कहीं मजाक तो नहीं कर रहे। लेकिन पंडिज्जी के चेहरे पर गंभीरता थी। वे चुहल नहीं कर रहे थे। वह आश्वस्त हुआ। ‘लेकिन पंडिज्जी मेरे पास चुनाव लड़ने लायक पैसा कहां है। एक बार लड़ के देख लिया।’ ‘उसकी फिकर मत करो बेटा। मैं हूं ना!’ परशुराम सोचने लगा आज ये क्या हो रहा है हनुमान बाबा! उसे पंडिज्जी की आवाज कहीं किसी और ही ग्रह से आती लगी। ‘इसे गोपनीय रखना। समझ गए?’ ‘जी पंडिज्जी। आपके चरणों में बैठकर इतनी राजनीति तो सीख ही गया हूं। आप मेरे गुरु हैं।’ कहते हुए परशुराम ने पंडिज्जी के पैर पकड़ लिए। ‘बस अपना आशीर्वाद बनाए रखिए। इस बार राधेश्याम को पटखनी दे दूंगा।’
अगले दिन परशुराम ने बड़ी धूमधाम से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन भर दिया। आसानी से गवाह भी मिल गए। उसने घर लौटकर टीम बनाई। उसकी टीम में कुछ लोग ऐसे थे, जो उस के साथ बैठकर आए दिन शराब पीते थे। चुनाव चिह्न मिल गया था गेंदे का फूल। होर्डिंग और पैम्फलेट बनाए गए। वह पंडिज्जी की प्रचार व्यवस्था देखता रहा था इसलिए उसको अनुभव था। वह जानता था कि पोस्टरों से अच्छी-अच्छी लड़ाइयां जीती जा सकती हैं। उसने डोर टू डोर संपर्क की तकनीक अपनाई। बड़ी पार्टियों के प्रत्याशी जगह-जगह रोड शो कर रहे थे और बड़े-बड़े मंचों से भाषण दे रहे थे। सब के सब अपनी जीत के लिए आश्वस्त थे। वह अपने कुछ साथियों के साथ घर-घर गया। आसपास के गांवों में भी उसने यही तकनीक अपनाई। वह गांवों के प्रभावशाली लोगों के पास भी उनका आशीर्वाद लेने गया। वह हाथ जोड़कर इतना ही कहता ‘आप मुझ गरीब को वोट दे देना। मैं लंबी-चौड़ी भाषणबाजी नहीं जानता। न कोई वादे करता और न कोई सपने दिखाता। ...आपके दम पर लड़ रहा हूं। सब को देख लिया आपने। इस बार अपने परसा को भी एक मौका दे दें।’ जहां नमस्ते, राम राम, सतश्री अकाल और जय जिनेन्द्र या आदाब और सलाम की जरूरत होती वहां वैसा ही करता। कई हजार लोगों के पांव छुए। बस अबकी बार अपने इस बच्चे को वोट दे दो। उसने आसपास के हर शहर और गांवों में नुक्कड़ों पर चौपालें लगाईं। अपने जाति भाइयों के संग बैठकर चर्चा की। उसने जातियों का डेटा अखबारों से इकट्ठा कर लिया था। उसका फोकस गरीब, मजदूर, किसानों और छोटे-मोटे काम करने वाले मजदूरों पर था। वही उसके वोट बैंक थे। परशुराम ने अपने कुछ लोगों को यह अफवाह फैलाने के लिए लगा दिया कि इस बार परसा जीत रहा है। उसके समाज के लोग हैंड्रेड पर्सेंट उसे ही वोट दे रहे हैं। राधेश्याम से और उसकी पार्टी से लोग बहुत नाराज हैं। राधेश्याम की अपने समाज में छवि अच्छी नहीं थी।
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एक दिन राधेश्याम की ओर से परशुराम को संदेश मिला कि मैं तुम से मिलना चाहता हूं। वह समझ गया कि मेरी स्थिति मजबूत हो रही है। उसने संदेश का जवाब भिजवा दिया कि ‘दो दिन बाद मिलूंगा अभी तो क्षेत्र में जा रहा हूं।’ कई छोटे-बड़े किसान उसे ट्रैक्टर देकर और मोटर मैकेनिक पुरानी गाड़ी देकर उसका सहयोग कर रहे थे। पंडिज्जी से डीजल के पैसे मिल रहे थे। युवा टोली चाय-बिस्कुट या दांव बैठ गया तो देसी से काम चला रही थी। उसके साथ दस-पंद्रह युवा साथियों का झुंड हर समय रहता था। चुनाव प्रचार के सीमित साधनों के रहते हुए भी लोग उसकी ओर ध्यान देने लग गए। वह एक चुनाव लड़ चुका था। इसलिए अनुभव था। कहां किस से वोट मिल सकता है।
इलेक्शन में उसकी हवा बन रही थी। इसलिए राधेश्याम ने उसे याद किया था। दो दिन बाद वह उनसे मिला। बंद कमरे में दोनों की बातचीत हुई। राधेश्याम ने पहले तो अपना दबदबा दिखाया। ऐसा दिखाया मानो अपने समाज का वही इकलौता नेता है। फिर लालच दिया लाख दो लाख ले लो परशुराम जी और बैठ जाओ। इतना ही खर्चा हुआ होगा। (राधेश्याम उसकी कीमत जानता था कि परसा के लिए ये बहुत छोटी रकम बहुत बड़ी है। करोड़ों नहीं इसके लिए तो दो चार लाख ही बहुत रहेंगे।) ‘मेरे लिए प्रचार करो! तुम को मालामाल कर दूंगा।’ परंतु परशुराम अविचल रहा। उसने इतना ही कहा, ‘भाईजी अब बहुत देर हो गई है।’ उसने अनुमान लगाया कि बड़ी पार्टियों के प्रत्याशी अंदर ही अंदर डरे हुए हैं। वोटर अपने मन की बात किसी को नहीं बता रहे थे। कुछ टीवी चैनलों के पत्रकार धीरे-धीरे परशुराम के समाचार भी देने लगे थे। इस बार मुकाबला कांटे का है। परशुराम निर्दलीय भले ही हैं लेकिन वे खेल बिगाड़ सकते हैं। ऐसे समाचार वोटरों के लिए संजीवनी बन रहे थे। इसी बीच एक चैनल ने अनुमान लगाकर कहा कि परशुराम पर पंडिज्जी का हाथ है और वे परशुराम की मदद कर रहे हैं। इसका असर पंडिज्जी की जाति-बिरादरी के लोगों पर अच्छा पड़ने लगा था। सारे प्रत्याशी अपनी-अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थे। बड़ी पार्टियों के प्रत्याशियों में निश्चिंतता कुछ ज्यादा ही थी। फिर भीषण गर्मी का मौसम! प्रत्याशी घर-घर नहीं जा रहे थे। ज्यादा वोटर भी बूथ तक नहीं निकले।
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और लो परिणाम आ गया! एक हजार तीन सौ अठारह वोटों से परशुराम विजयी घोषित। ‘ओ तेरी!!’ जिसने सुना उसके मुंह से यही निकला। सर्टिफिकेट लेकर वह सबसे पहले पंडिज्जी के चरणों में प्रणाम करने पहुंचा। पंडिज्जी ने पहली बार उसे गले लगाया।
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क्या टीवी न्यूज, क्या अखबार सब जगह परशुराम। मना करने पर भी उसके युवा साथी नहीं माने, कस्बे में जुलूस निकाला। हालांकि ज्यादा लोग नहीं थे। धन्यवाद देने के लिए विजय यात्रा भी हुई। सब हुआ। गले में फूलमालाएं धारण किए, हाथ जोड़े, सिर झुकाए परशुराम अतिविनम्र भाव से सबका धन्यवाद व्यक्त कर रहा था।
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वह एक पढ़े-लिखे युवा साथी को लेकर राजधानी गया। पहुंचकर एक कमरा होटल में लिया। इसके बाद सुबह के लिए खादी के रेडिमेड कपड़े खरीदे।
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सरकार बनाने की चर्चाएं शुरू हो चुकी थीं। किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। जोड़-तोड़ का खेल चल रहा था। शाम को पंडिज्जी एक पूर्व मंत्री जी के साथ परशुराम के होटल में पहुंचे। उसको हैरानी हुई, ‘अरे! पंडिज्जी आप?’ मुंह से इतना ही निकला। उठकर उसने पांव छुए। पंडिज्जी ने मुक्त मन से आशीर्वाद दिया और साथ आए पूर्व मंत्री जी से परिचय कराया। बातचीत शुरू हुई। पूर्व मंत्री जी ने बधाई देते हुए उससे पूछा, ‘परशुराम जी आपने क्या सोचा है?’ वह प्रश्न को समझ ही नहीं पाया। उनके सपाट चेहरे की ओर देख रहा था। उनका श्यामल वर्ण, गले में रुद्राक्ष की मालाएं, हाथ में सोने का कड़ा और बड़ा कलावा, सभी उंगलियों में बेशकीमती अंगूठियां... यह उनकी धज थी। भक्क सफेद कुर्ता धोती पहने पान चबा रहे मंत्रीजी की आंखों में काइयांपन झांक रहा था। मंत्री जी अपनी धज में ऐसे लग रहे थे, जैसे बताशे में चींटा। पंडिज्जी भांप गए परसा कुछ समझ नहीं पा रहा है। उन्होंने सवाल को हल करते हुए समझाया, ‘ये पूछ रहे हैं कि तुम सरकार बनाने में किस पार्टी का समर्थन करोगे।’ परशुराम दुचित्ता हो रहा था। दो बड़ी पार्टियों में से किस को समर्थन दे, तय नहीं कर पा रहा था। उसने विनम्र भाव से कहा, ‘मैं तो पंडिज्जी का चेला हूं। वही तय करेंगे।’ सुनकर पंडिज्जी गद‍्गद हो गए। परसा ने मेरा मान रख लिया। थोड़ी देर तक वे दोनों उसको लाभ-हानि का गणित समझाते रहे। कितना पैसा मिलेगा। मंत्री पद तो नहीं, हां किसी निगम वगैरह का उपाध्यक्ष बना देंगे। अंततः मामला दो करोड़ और एक स्कॉर्पियो में तय हो गया।
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सुबह के समाचारों में सरकार बनाने के लिए पार्टियों की खींचतान और गणित के समाचार छाए हुए थे। सात निर्दलीय चुनकर आए थे। उनके समर्थन पर सारा दारोमदार था। निर्दलीय विधायक कभी किसी के साथ कभी किसी के साथ दिखाए जा रहे थे। दोनों ओर के विधायकों की खरीद-फरोख्त का मुद्दा सभी समाचार चैनलों पर चल रहा था। कुछ सही कुछ झूठ। पैनल चर्चा में गर्मागर्म बहसें चल रही थीं। ज्योतिषियों के भी गणित हवा में तैर रहे थे।
अंत में एक पार्टी ने सरकार बनाने के लिए समर्थन जुटाकर जितनी आवश्यक थी, संख्या छू ली। जो अपने साथ हैं, उन विधायकों के हस्ताक्षर लेकर भावी मुख्यमंत्री जी अपना प्रतिनिधिमंडल लेकर राज्यपाल से मिलने राजभवन गए और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। समर्थन में हस्ताक्षर परशुराम ने भी कर दिए थे। शपथ ग्रहण का समय मांगा। राज्यपाल महोदय अनुकूल थे। उन्होंने अगले दिन की शाम को शपथ दिलाने के लिए अपनी सहमति दे दी।
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देर रात तक मंत्रिमंडल के गठन पर आलाकमान और कोर कमेटी की बैठक चलती रही। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यमंत्री आदि कौन-कौन बनाए जाएं? इस पर विचार-विमर्श हुआ। इसमें जाति और क्षेत्रीय गणित, कितनी महिलाएं, किस-किस संप्रदाय और वर्ग के लोग रखे जाएं, इस पर मंथन हुआ। परेशानी एक अन्य छोटी पार्टी से जीतकर आए दस विधायकों को लेकर थी। उस पार्टी में दल बदलने की कला में निपुण विधायक ज्यादा थे। सभी कैबिनेट मंत्री पद के दावेदार। बैठक में उनके पार्टी अध्यक्ष और एक अन्य सदस्य को भी बुला लिया गया था। जैसे-तैसे बात बन ही गई। इसमें निर्दलीय परशुराम कहां फिट हों, यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ। परशुराम की जाति के मात्र दो लोग जीतकर आए थे। जाति का प्रतिनिधित्व जरूरी था। और यहां फिर पंडिज्जी काम आए। पार्टी में उनके ग्रुप के कई लोग थे। उन सभी ने परशुराम को मंत्रिमंडल में लिए जाने का समर्थन किया।
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अगले दिन शाम को शपथ ग्रहण समारोह हुआ। टेलीविजन पर कार्यक्रम दिखाया जा रहा था। मुख्यमंत्री और दो उपमुख्यमंत्री सबसे पहले। फिर क्रम से कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), राज्य मंत्री ने शपथ ग्रहण की।
जैसे ही राज्यमंत्री के रूप में परशुराम का नंबर आया, टीवी देखते हुए कस्बे के लोगों में खुशी कम थी, जलन ज्यादा। मुख्यमंत्री जी ने मंत्रियों के मंत्रालय भी उसी समय बांट दिए थे।
‘ओ! तेरी!!’ सहसा लोगों के मुंह से एक बार फिर यही निकला। वे चौंके।
शिक्षा राज्यमंत्री बने पांचवीं पास श्री परशुराम जी।
विजयी भाव से राजधानी से नई स्कॉर्पियो में माननीय परशुराम जी के साथ पंडिज्जी गांव लौट रहे थे।

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