खामोशी के दौर में इशारों का ठौर
शमीम शर्मा
साहस केवल यही नहीं है कि आप खड़े हो जायें और बोलने लगें। साहस यह भी है कि आप चुपचाप बैठ जायें और इत्मीनान से सुनें। संकेतों की भाषा भी समझें। पर कई बार चुपचाप सुनना या इशारों को समझना महंगा पड़ जाता है। एक बार मंदिर में सत्यनारायण कथा की आरती हो रही थी। आरती की थाली सामने आने पर पहली पंक्ति में खड़े एक आदमी ने अपनी जेब से छांटकर कटा-फटा दस रुपये का नोट कुछ इस तरह थाली में रखा कि कोई नोट को देख ही न सके। तब उस आदमी के कंधे पर पीछे खड़ी औरत ने थपकी मारकर दो हजार का नोट उसकी ओर बढ़ाया। नोट हाथ में पकड़कर उस आदमी ने चुपचाप आरती की थाली में डाल दिया। तब तो उसे अपने दस के नोट पर और भी लज्जा आई। बाहर निकलते हुए उस आदमी ने महिला को श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। तब वह औरत बोली, दस का नोट निकालते समय आपका 2000 का नोट जेब से गिरा था, वो ही आपको वापस किया था। सत्यनारायण भगवान की जय कहते हुए वह महिला मंदिर की सीढ़ियां तेजी से उतरते हुए आगे बढ़ी। रह-रह कर उस आदमी का ध्यान आता है कि उसके दिल पर क्या गुजरी होगी।
इशारे भ्रामक होते हैं। तो भलाई इसी में है कि जहां असमंजस की स्थिति हो, वहां स्पष्टीकरण लेने में फायदा है। वरना जेब कटे आदमी जैसी हालत होने में देर नहीं लगेगी। इस मामले में अपने नेतागण चतुर सुजान हैं। सुनना तो उन्हें आता ही नहीं है और कोई उन्हें इशारा करे यह किस तुर्रमखां की हिम्मत? खरी-खरी सुनाने में नेताओं को जो आनंद आता है, वह लाख रुपये की लॉटरी निकलने पर भी नहीं मिलता। पर जनता तो हमेशा से सुनने में ही विश्वास रखती आई है और रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी। अच्छे-अच्छे चुप बैठे हैं, बस देख रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि बेचारे देखते ही रह जायें। जीभ की छुट्टी होती प्रतीत हो रही है।
उन डॉक्टरों की पीढ़ी तो विलुप्त होती जा रही है जो कहा करते जीभ दिखाओ। अब तो सीधे टैस्ट लिखे जाते हैं। और आम आदमी सोचता है कि पहली क्लास से टैस्ट शुरू हुए थे पता नहीं कब जाकर पिंड छोड़ेंगे। पर बेचारा यह बात बोल तो नहीं सकता।
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एक बर की बात है अक नत्थू अपनी घरआली रामप्यारी ताहिं समझाते होये बोल्या- जै मैं मर ज्याऊं तो सामने वाले घर की लुगाइयां नैं जरूर बुला लिये। रामप्यारी नैं हैरानी तै बूज्झी अक उस घर की लुगाइयां मैं इसा के खास है? नत्थू बोल्या- उनके घर की लुगाइयां मुरदे कै लिपट-लिपट कै रोया करैं।