बहुत कुछ करना बाकी है लक्ष्य प्राप्ति को
कुछ घटनाक्रमों से देश का माहौल बदलता नजर आने लगता है। लेकिन ऐसे समाचारों में छिपी हैं कुछ चेतावनियां। जो अगले वर्ष महाचुनाव के मद्देनजर आम आदमी को सजग करती हैं। सवाल यह कि आज़ादी के साढ़े सात दशक के बाद भी हम विकसित देश क्यों नहीं हैं? अमृत महोत्सव भी इस विकासशील देश ने अपनी विकासशीलता के तले मना लिया। लेकिन अब जैसे राष्ट्र के कर्णधार भी कहते हैं कि देश में मूल प्रवृत्ति बने जो यह कहे कि हम न अल्पविकसित हैं, न विकासशील हैं बल्कि विकसित देश हैं। सुखद यह है कि अभी रिजर्व बैंक का जो नया आकलन अर्थव्यवस्था के लिए आया है, वह यह बताता है कि इस वर्ष की आखिरी तिमाही में हम सात प्रतिशत की विकास दर प्राप्त कर चुके हैं।
बेशक पिछले दशक में हमारे देश ने आर्थिक सफलता के नाम पर दसवें पायदान से पांचवें पायदान तक आने की उपलब्धि प्राप्त कर ली है, लेकिन अब जापान और जर्मनी को पछाड़कर तीसरी महाबली आर्थिक शक्ति बनने का कार्यक्रम है। कुछ बातें इस कार्यक्रम को पुष्ट करती हैं। पहली बात यह कि एक देश, एक कर में जीएसटी लागू करने का जो निर्णय किया गया था, वह सफलता दिखा रहा है। अर्थात सोचा गया था कि एक लाख करोड़ रुपये तक का कर संग्रह अगर जीएसटी कर दे तो हम संतुष्ट हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह कर संग्रह इस लक्ष्य से ज्यादा है। इस वर्ष यह 1.68 लाख करोड़ से अधिक हो चुका है जबकि अगले वर्ष 2 लाख करोड़ का लक्ष्य है। जब कर बढ़ता है तो राजस्व घाटा घटता है। जन कल्याण के लिए अधिक पैसे बचने लगते हैं और उनका इस्तेमाल उस समस्या से देश को बचा सकता है जिसे आजकल रेवड़ियां बांटने की संस्कृति का नाम दिया जाता है। इस समय तो आलम यह है कि अपने चुनावी एजेंडे को आकर्षक बनाने के लिए राज्य कर्ज लेकर भी रेवड़ियां बांटने में गुरेज नहीं करते।
इसमें संदेह नहीं कि अभी आए पांच विधानसभा चुनावों के परिणामों में तीन परिणाम बड़े स्पष्ट तरीके से सत्तारूढ़ भाजपा के हक में गए हैं। नि:संदेह आम आदमी ने देश में राजनीति के स्थायित्व को महत्व दिया है। उस प्रधानमंत्री को महत्व दिया गया है जिसने एक प्रौढ़ कूटनीति का पालन करते हुए देश का ध्वज विश्व में ऊंचा कर दिया है। अब कोशिश हो देश में सांस्कृतिक मूल्यों का पुन: अवतरण हो, नैतिक मूल्यों के पतन के रास्ते में अवरोध खड़े किए जाएं और भ्रष्टाचार का खात्मा किया जाए।
इसके अतिरिक्त बेशक औरतों को 33 प्रतिशत आरक्षण मिल गया हो। लाडली बहन जैसी योजनाएं भी सामने आ गईं और महिलाओं को उनकी गरिमा के अनुसार समानाधिकार देने की पहल भी शासन ने की है। यह भी एक बड़ा कारण है कि महिला मतदाताओं ने मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ दल को वोट दिया। अब देखना यह होगा कि क्या वास्तव में आने वाले दिनों में महिलाओं को वही समानाधिकार, वही सशक्तीकरण की सौगात दी जाती है, जिसके बारे में हर मंच से भाषण किए जाते हैं। आज भी राजनीति में दायित्वपूर्ण स्थानों पर महिलाओं की कमी नजर आती है। संसद से लेकर विधानसभाओं तक में उनकी संख्या पुरुषों के मुकाबले कहीं कम है। सही है कि एक शुरुआत हो गई है। अब सेनाओं के अग्रिम मोर्चों पर स्थायी कमीशन पद लेकर महिलाओं को लड़ने की इजाजत मिल गई और इसके अलावा कार्पोरेट जगत भी बता रहा है कि मुख्य संस्थानों में सर्वोच्च अधिकारी के रूप में महिलाएं नियुक्त की जा रही हैं। कोशिश हो कि कोरोना संकट में रोजगार से विस्थापित महिला कामगारों को पहले जैसा काम मिले।
सत्ताधीश ध्यान दें कि देश में सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। हताशा ने नशाखोरों और पियक्कड़ों की एक ऐसी पीढ़ी पैदा कर दी है जिसके सामने रिश्तों का कोई मूल्य नहीं। रोज-ब-रोज ऐसी खबरें मिलती हैं कि बेटों ने बाप की या भाई ने बहन की हत्या कर दी। फिरौती की धमकियां माहौल में दनदना रही हैं। राह चलते लोगों से उनके पर्स और मोबाइल छीने जा रहे हैं। ऐसे अपराध करने पर भी अपराधी शर्मसार नहीं होते और जब उन्हें कारागार में भेजा जाता है तो वे वहां भी इन्हें अपराधगृह बनाने में देर नहीं करते।
नया वक्त आ रहा है, नई चुनौतियां सामने हैं। एक चुनौती तो अभी तक पर्यावरण प्रदूषण की है। जिसकी वजह से असाधारण जलवायु ने देश की खेती, जो पहले ही जुआ थी, को उससे भी बड़ा जुआ बना दिया है। देश की अर्थव्यवस्था हमने डिजिटल कर दी लेकिन इसे चलाने के लिए कारीगरों को उचित प्रशिक्षण नहीं दिया गया। शिक्षकों को बदलाव की लड़ाई के लिए पूरी तरह तैयार नहीं किया। यह होना चाहिए अगर भारत को विश्व गुरु होना है। अगर भारत को अपनी ही नहीं बल्कि विश्व की संस्कृति का अगुवा बनते हुए वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को फलीभूत करना है।
लेखक साहित्यकार हैं।