हरियाणवी व्याकरण के मानकीकरण का हस्तलिखित दस्तावेज
अरुण नैथानी
आज जब जीवन के हर क्षेत्र में चमक-दमक व कृत्रिमताएं सिर चढ़कर बोल रही हैं और प्रकाशन के क्षेत्र में रंग-बिरंगे ग्लैमर का वर्चस्व है, ऐसे में सादगी से हस्तलिखित पुस्तक का प्रकाशन सुखद अहसास दे जाता है। करीने से, हाथ से लिखे शब्दों का अपना सम्मोहन होता है। फिर जब सृजन का मकसद किसी बोली को भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का ऋषिकर्म जैसा हो, तो शब्द मोहक बन जाते हैं। हरियाणा की संस्कृति, संस्कार, बोली व समृद्ध विरासत को जीने वाले डॉ. जयभगवान श्रमसाध्य प्रयासों से शोधपरक पुस्तक लेकर आए हैं ‘हरियाणवी व्याकरण।’ जिसका मकसद मां बोली हरियाणवी को प्रादेशिक राजभाषा का दर्जा दिलाना है। ताकि इसके जरिये हरियाणा की संस्कृति, सदियों से संचित ज्ञान का संवर्धन हो सके।
डॉ. जयभगवान का मानना है कि यदि कोई बोली लुप्त होती है तो इसके साथ-साथ संस्कृति, परंपरा, परंपरागत ज्ञान के साथ उस समाज की विशिष्ट पहचान का भी क्षय होता है। वे मानते हैं कि समय के साथ-साथ हरियाणवी साहित्य, लोककलाओं, फिल्मों, सांग, गीत-संगीत ने हरियाणवी को समृद्ध किया है। इससे शब्दों का खजाना बढ़ा है। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है कि बिना मानक व्याकरण के इसकी अपेक्षित समृद्धि संभव नहीं है। वे मानते हैं कि हरियाणवी मेरे रक्त, हृदय और सांसों में है। जिसने उन्हें हरियाणवी में सृजन को प्रेरित किया है। उनकी धारणा है कि कोई बोली सहज जन अभिव्यक्ति होती है, लेकिन व्याकरण व लिपि ही उसे भाषा के रूप में स्थापित करते हैं।
लेखक ने पाठकों की सुविधा हेतु पुस्तक को बीस अध्यायों में विभाजित किया है। पहले में भाषा, बोली, लिपि तथा व्याकरण, दूसरे में वर्ण विचार, तीसरे में शब्द विचार, चौथे में उपसर्ग, पांचवें में प्रत्यय, छठे में समास, सातवें में संज्ञा, आठवें में संज्ञा-विकार : लिंग, नौवें में वचन, दसवें में कारक, ग्यारहवें में सर्वनाम, बारहवें में विशेषण, तेरहवें में क्रिया, चौदहवें में काल, पंद्रहवें में वाच्य, सोलहवें में अव्यय, सत्रहवें में हरियाणवी शब्द समूह, अट्ठारहवें में वाक्य विचार, उन्नीसवें में विराम चिह्न तथा बीसवें अध्याय में हरियाणावी मुहावरे व लोकोक्तियां समाहित की गई हैं। वहीं दूसरी ओर परिशिष्ट (क) में हरियाणवी, अहीरी, बागड़ी, मेवाती,कौरवी व ब्रज के साठ-साठ वाक्यों का अनुवाद शामिल है। जिन्हें बोली व भाषा के विशेषज्ञों द्वारा अनुवादित कराया गया है। वहीं परिशिष्ट (ख) में गणपाठ शामिल है।
दरअसल, इस हस्तलिखित पुस्तक में लेखक ने हरियाणा के विभिन्न भागों में क्षेत्रीय वैशिष्ट्य एवं संास्कृतिक इतिहास समेटे विभिन्न बोलियों व उपबोलियों का गहन मंथन किया है। उन तर्कों पर चर्चा की है जो बांगरू को हरियाणवी के रूप में दर्शाते हैं। निस्संदेह, डॉ. जयभगवान का प्रयास श्रमसाध्य व लीक से हटकर है। कुल मिलाकर हरियाणवी के व्याकरण को जीवंत दस्तावेजी बनाने का प्रयास है। निस्संदेह, पाठकों व हरियाणवी प्रेमियों का इस पुस्तक को सकारात्मक प्रतिसाद मिलेगा।
पुस्तक : हरियाणवी व्याकरण रचनाकार : डॉ. जयभगवान शर्मा प्रकाशक : साहित्य मंदिर, नई सड़क, दिल्ली पृष्ठ : 304 मूल्य : रु. 740.