सुरभि बुआ
प्रभा पारीक
रसोई में चूल्हे के सामने बैठी सुरभि बुआ ...और मैं बस बुआ को ताक रही थी। कुछ तो बुआ का गोरा चमकता रंग, आत्मविश्वास की आभा से दमकता भाल। आग की गर्मी से सुर्ख हुआ चेहरा... एकटक देखते रहने को मन करता। मेरी भी उम्र थी कोई दस-ग्यारह वर्ष। सौन्दर्य को शब्दों में बांधना नहीं आता था पर आज भी कितना भी प्रयास कर लूं उस रूप, उस तेजमय चेहरे की दमक को। आंखों की चमक को कहां शब्दों में पिरो पाऊंगी... जानती हूं, सारे प्रयास निष्फल होंगे। सुरभि बुआ जिसे विधाता ने घड़ा, दादी ने संस्कार दिये और समय ने बहुत कुछ सिखाया, इतना सब कुछ जो किताबी ज्ञान से परे है।
...बाजरे के आटे की लोई को सधे हाथों से हल्के-हल्के थपकी देती और चांद-सी गोल व मटमैली-सी बाजरे की रोटी तवे तक कब पहुंच जाती और मैं वहीं बैठी बस देखा करती। गति, ताल और लय का अद्भुत संगम था उनका रोटी बेलना। चूडि़यों का बजना चिमटे का उठाना, रखना और घी भरी कलछी से रोटी को तरबतर करके थाली तक पहुंचाना। चूड़ियों की आवाज साथ में अचानक झनक उठती पायल की आवाज, गजब की सादगी और सौन्दर्य।
मैं मंत्रमुग्ध... बस देखा करती। बुआ जानती थी, मैं उन्हें निहार रही हूं। कभी-कभी द्रव लोचन मेरे ऊपर उठाकर गिरा भी लेती।
बावली हो गई है मेरी लाडो...। चल उठ, खा लिया हो तो हाथ धो ले और औरों को थाली लगाकर दे। आ... जा तेरे बापू को भी बुला ला, गर्म-गर्म परोस दूंगी।
सुरभि बुआ जब भी घर आती, हमारा चुपचाप-सा रहने वाला घर गुलजार हो जाता। मां, बाबा का मुस्कुराता चेहरा मेरे मन के सातों सूरज उगा देता।
जब बुआ आती, अपनी मां... मेरी दादी को याद करके दुःखी होती पर बुआ ने कभी इस बात को तूल नहीं दिया। बस मां को कहती ‘तू है न मेरी राई सी भौजाई’ घर की सारी जिम्मेदारी अपने पर लेकर सुरभि बुआ मां को पापड़, मंगोड़ी, सिलाई आदि में व्यस्त कर देती। धीरे से जीभ दबा कर कहती ‘बना दे भौजी सास भी राजी रहेगी’ वर्ना नाम देगी... मां नहीं है तो भौजी ने भी मुंह फेर लिया। कुछ भी कह देगी... वो क्या जाने उसने कौन-सी बेटियां जनी हैं। एक ही बेटा है, उसे भी उनके शब्दों में मैंने कहीं का नहीं छोड़ा।
बुआ को बेटा, बेटी के नफे-नुकसान भी पता थे। सुरभि बुआ जब भी आती हमारे लिये छोटी-छोटी चीजें लातीं, पर चीजें देखकर लगता अरे हमें तो इसकी बहुत दिनों से जरूरत थी।
बुआ एक हफ्ते से ज्यादा नहीं रुकती मैं पल्लू पकड़ कर कहती ‘रुको न बुआ अगले हफ्ते चली जाना’ देखो, राखी आने वाली है। और बुआ धीरे से कहती ‘जाने दे लाडो, राखी-दिवाली तो यूं ही आते रहते हैं।’ बड़ी होकर ही समझ पाई थी उनके इन शब्दों के अर्थ।
मैंने कभी सुरभि बुआ से उनके ससुराल के विषय में नहीं पूछा...। इस साल छुटि्टयों पर बाबा ने बताया कल तैयार हो जाना, हम सुरभि बुआ के घर जा रहे हैं। मैं तो खुशी से उछल पड़ी। मां ने हमारे एक-एक जोड़ी कपड़े रखे और हम सुरभि बुआ के घर पर थे। कुछ ट्रेन में बैठने का आनंद कुछ घर के बाहर जाने का अवसर। कुल मिलाकर हम बहुत प्रसन्न थे। सुरभि बुआ ने हमारा स्वागत जिस तरह हंसते-खिलखिलाते किया, उतने ही आत्मीयता से उनकी सास भी मिली। सास नाम के शेर को मैं पहली बार देख रही थी। बाबूजी उनकी सास के साथ ऐसे बतिया रहे थे जैसे वर्षों बाद मिले हों। मैंने धीरे से बाबूजी से पूछा था, मैं बुआ के पास जाऊं? और बाबूजी के बदले उनकी सास ने कहा था ‘हां जा, चौके में चली जा जूती बाहर धर जईयो।’ उनके संतोष के लिये बाबूजी ने इशारा किया था ‘यहीं कोने में खोलकर चली आओ।’ मेरा भाई तो बुआ के पास पहुंचने से पहले ही गाय के बछड़े के साथ खेलने लगा। आंगन में लटकती पतंगें उसे बुआ से ज्यादा जरूरी लग रही थीं।
सामने चौके में बुआ बैठी काम कर रही थी। वही सादगी, वही रौनक, लाल-लाल बिन्दी, माथे पर चमक रही थी। दूसरा पट्टा देती हुई बोली, कौन-सा का साग बनाऊं? क्या खायेगी। मैंने कहा, कुछ भी बना लो, सब खा लूंगी। कहना न भूली कि मां कहां हमसे पूछ कर बनाती है। आज यह बात सोचती हूं तो मन ही मन कह उठती हूं, बुआ तुम्हारे हाथ से तो जहर भी मीठा हो जायगा।
बुआ काम करती जा रही थी और बतियाती जा रही थी। अचानक जैसे एक हुंकार की आवाज आई और बुआ लोटा भर पानी लेकर उतावली में कहीं गुम हो गयी। बुआ के बाकी बचे साग को मैं तोड़ने का प्रयास करने लगी। कुछ देर में बुआ आ गयी—रहने दे बिट्टो, मैं कर लूंगी।
बुआ की चमचम करती रसोई देखकर मुझे हमारी शहर की रसोई गंदी लग रही थी। दोपहर का भोजन करके बाबूजी ने कहा ‘चलो’। मैं कुछ कहती उससे पहले बुआ ने कहा, इसे तो छोड़ जाओ भैया कुछ दिन रह लेगी मेरे साथ। बुआ की सास ने भी हामी भरी और भाई को बाबूजी के साथ भेजकर मैं बुआ के पास रह गई।
शाम को मां याद आने लगी। बुआ ने मेरा उतरा हुआ मुंह देखा और सब समझ गई। मुझे गांव के मंदिर में ले गयी। चल ठाकुर जी की भी आंखें चुंधिया आते हैं। अर्थात दीया जलाकर तेज रोशनी दिखा आते हैं। रास्ते भर पड़ोस के लोगों के बारे में बातें करती रहीं। कितनी सकारात्मक थी कि किसी की बुराई नहीं। कौन अपनी गैया का कितना ध्यान रखता है, किसकी गैया ज्यादा प्यारी है आदि-आदि। तब मैंने पूछा था और तुम्हारी गैया और बुआ ने कहा था ‘वह मेरी थोड़े ही है वो तो मां जी की है।’ सोचा बुआ को सबसे प्यार है पर गैया से क्यों नहीं?
दूसरे दिन मैं खेलती-खेलती, उस कमरे के सामने पहुंची जहां एक व्यक्ति चुपचाप बैठा अपने हाथों को देख रहा था। उनको इस तरह से देखा तो मैं भी अपने हाथ देखने लगी, न जाने कहां से बुआ आ गई। मैंने पूछा, ‘ये कौन है?’ उन्होंने धीरे से जैसे कान में कहा, वो तुम्हारे फूफाजी हैं।’ बस मुझे पकड़ कर चौके के सामने ले आई और कहा ‘यहां खेल’। दोपहर को सब काम होने पर दो थाली में खाना लेकर जाते देखा। मुझे अपनी सास के कमरे में जाकर सोने को कहा। मैं भी चुपचाप चली गई और बुआ की सास ने मुझे अपने पास लाड़ से सुला लिया। छोटी बालिका प्यार का स्पर्श पाकर तुरन्त सो गई।
शाम को मैंने बुआ से पूछा, तुम कहां गई थी। बुआ ने मेरी ठोड़ी पकड़ते हुए कहा, मैं वहां उस कमरे में खाना खाने गई थी। क्या तुम यहां, मैंने चौके की ओर इशारा किया, बैठकर खाना नहीं खाती। उसने कहा नहीं, वहां मेरा कोई इंतजार जो करता रहता है।
मैं कभी-कभी सोचती, ये सुरभि बुआ क्या छुपाती है सब से, ऐसा क्या है मां से पूछो तो वह भी टाल देती है, पिताजी भी ‘बच्चे हो, खेलो-कूदो’, कहकर चुप हो जाते हैं।
आज मेरे विवाह पर जब सुरभि बुआ दो दिन के लिये आई तो साथ में एक साफ-सुथरे सुन्दर से व्यक्ति को देखकर मेरी आंखों में अनेक प्रश्न उभर आये। पिताजी ने बगल वाले घर में एक कमरे में साथ आये व्यक्ति के रहने की व्यवस्था की थी। मुझे तो तब समझ आया यह व्यवस्था उनके लिये है, हमारे रघु चाचा दिनभर उनका ध्यान रखने के लिये तैनात थे, ताकीद थी रघु काका को कि वह किसी तरह बाहर न निकल जायें।
अब मैं बड़ी हो गई थी, एकांत पाकर बुआ से पूछा, बुआ फूफा जी बाहर नहीं आते क्यों?’ बुआ ने एक प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा था वो मेरे प्यार में पागल जो हैं। मुझे हंसी आई। ‘इसलिये बंद करके रखती हो कि किसी और के प्यार में आपको न छोड़ दें।’ चल हट... कह कर बुआ वहां से चली गई। उनकी भर आई पनीली आंखों को आज भी नहीं भूली मैं।
शाम को ढोलक की थाप पर बुआ ने खूब समां बांधा। मैंने बुआ से कहा, ‘बुआ, फूफाजी को बुला लाऊं।’ उन्होंने बिलकुल न कहा और मुझे ऐसा न करने की सख्त हिदायत दी। उस रोज हम बुआ-भतीजी ने खूब बातें कीं। बुआ कहने लगी। लाडो तू चली जायेगी तो मेरा तो इस घर में आने का चाव ही चला जायेगा। कुछ बातें सोच कर ही हम दुःखी हो जाते हैं। मैंने बुआ से पूछा, सच बताना बुआ क्या हुआ है मेरे फूफा को। बुआ बहुत देर तक चुप रही फिर बोली, लाडो कुछ नहीं हुआ बस... सोच ले भाग्य खराब है मेरा। ऐसा राजकुमार-सा दूल्हा मिला कि सारा गांव सराहता थक गया। जम्मू में सरकारी नौकरी थी, तबादला हो गया, साथ में शादी भी हो गई। तेरे फूफा को मुझसे इतना प्यार था कि मां को दो टूक शब्दों में कह दिया, सुरभि के बिना नौकरी पर नहीं जाऊंगा। अम्माजी बहुत भुन-भुनाई चिढ़ गई। मुझे भी भला-बुरा कहती पर शादी हुए अभी महीना ही हुआ था। क्या करती। सारी गृहस्थी का सामान बेटे के लिये तैयार किया। पैक किया और भारी हृदय से बेटे को विदा किया। स्वयं तो बीमार बाबूजी के कारण हमारे साथ आ नहीं सकती थी। काश! आई होती तो आज मुझे दोषी तो नहीं मानती।
रात का समय था, ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। उन्होंने पूछा तुम्हें कुछ खाना है। मैंने कहा भी था नहीं मुझे कुछ नहीं चाहिए। अम्माजी ने भी दिया है पर पता नहीं क्या सोच कर ट्रेन से उतरे। मैंने तो कुछ नहीं देखा पर ट्रेन चल पड़ी। ध्यान आते ही दौड़े और घबराहट में चलती ट्रेन में चढ़ने के प्रयास में ढल पड़े, साथ के लोगों ने ट्रेन रुकवाई। किसी तरह मुझे वहां तक पहुंचाया। सामान तो मेरा लाडो दो हफ्ते के बाद आया। मैं जब इनके पास पहुंची तब यह बड़बड़ा रहे थे कैसे उतरेगी सुरभि, उसे तो कुछ पता नहीं है वह तो ये भी नहीं जानती, हमें जाना कहां है। हाय! रब्बा अब क्या होगा मेरी सुरभि मेरी सुरभि... लाख बार आश्वस्त किया, आ गई देखो, मैं आपके साथ हूं। पर तब तक तेरे फूफा अपना आपा भूल चुके थे। वर्षों उनके साथ रहने के बाद अब उनको विश्वास हुआ है कि उनकी सुरभि उनके पास है।
घर आने पर मां के दिल को जो धक्का लगा कि तेरे फूफा से ज्यादा संभालना पड़ा अम्माजी को। बेटे के दुःख में बाबूजी तो दस दिन भी नहीं निकाल पाये। इकलौते बेटे को इस हाल में देख ही नहीं पाये और लाडो, सारा पहाड़ टूटा मुझ पर। कैसा हट्टा-कट्टा लड़का लेकर गई थी क्या कर लाई। क्या खिला दिया। क्या जंतर-मंतर फेर दिया? आदि-आदि। तेरे रूप का क्या जादू किया उस पर, अम्माजी अपने बेटे को देख-देख कर मुझे कोसती। आज वर्षों बीत गये लाडो, धीरे-धीरे मेरी अथक सेवा से प्रभावित होकर अम्माजी ने अपना दुःख आंगन में खड़ी गाय को सुनाना चालू कर दिया। आज वर्षों से यह गैया मेरे सारे बिन करे अपराधों की साक्षी है। पर मौन है और मुझे वह अपनी बैरन लगती है। क्योंकि वह मूक होकर बस मेरी बुराई सुनती रहती है। जानती हूं वह निरीह प्राणी है पर लाडो मैं तो सुनती आई हूं कि गाय मैया है हमारी। तो वह मुझे बिन मां की बेटी की ओर देख कर मेरा कुछ भला क्यों नहीं कर देती। क्यों नहीं कर देती तेरे फूफा को पहले जैसा भला-चंगा।
अम्माजी जब उसे मेरी बनाई हुई रोटियां खिलाती हैं तब वह क्यों नहीं कुछ करती मेरे लिये। दुःखी मन है न लाडो और गुस्सा निकालने के लिये कोई है भी नहीं सामने तो। मैं भी उससे नाराज होकर अपना गुस्सा उस पर निकाल देती हूं। वो अम्माजी की गैया है मेरी नहीं।
बुआ चुप थी। मैं सोच रही थी बुआ सच कह रही है उनके पास सब कुछ था। चूल्हा-चौका और मान-सम्मान, उन्हें निहारने वाला पति और ढेर-सा प्यार करने वाली पर कभी मुंह से प्यार से न बोलने वाली सास। भरा-पूरा घर नौकरी पर होते हुए यह हादसा भी सुरभि बुआ को सरकार से अच्छा-खासा मुआवजा दिला गया था। न जाने बुआ संतान के मामले में कैसे वंचित रही। कैसा जीवन है बुआ का और फिर भी हम सबको बुआ ने असीम प्यार दिया। पीहर हो या ससुराल, सुरभि बुआ सबकी लाड़ली थी। मैं बचपन से लेकर आज तक इस इतनी बड़ी बात से अनजान रही। इसलिये सुरभि बुआ को समझ ही नहीं पाई थी।
सुरभि बुआ ने फूफाजी के कुछ दिनों के प्यार को कितनी हिफाजत से संभाला और आज के जमाने की पत्नियां, रोज सुबह-शाम आई लव यू कहने वाले पति पर भी सिवा संदेह के कुछ नहीं करती।
सुरभि बुआ ने फूफाजी के इलाज में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संभव है इसी दौरान उनकी मां बनने की उम्र भी निकल गई होगी। जानती थी फूफाजी और बच्चे दोनों को संभालना मुश्किल होगा। क्योंकि फूफाजी चुप रहते थे पर मानवीय संवेदना उसमें अभी निहित थी। इसका अहसास उसे बड़ी होने पर बुआ की बातों से और उनके दमकते रूप सौन्दर्य से होने लगा था।
सुरभि बुआ ने मेरे विवाह के सारे काम भाग-भाग कर निपटाये। विदाई के समय जब मैं बुआ के साथ लिपट गई, तब भरी आंखों व गद्गद कंठ से बुआ ने कान में कहा था क्या आशीर्वाद दूं लाडो, प्यार करने वाला परिवार मिले। खूब फूलो-फलो, दूल्हा चाहे जैसा हो, उसे संभाल कर रखना लाडो। आज वर्षों के बाद बुआ मेरे घर आ रही हैं। मुझे बुआ की बातें याद आ रही हैं। अपने घर जाकर ये करना, ये मत करना जैसे प्यार भरी सीख जिनके कारण मैं गर्व से कह सकती हूं—बुआ तुमने मेरा जीवन संवार दिया। वैसे भी कहा गया है अपना वजूद ऐसा बनाओ कि कोई तुम्हें छोड़ तो दे, पर भूल न सके। सुरभि बुआ का वजूद मेरे लिये ऐसा ही तो था।