For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

सहजता में समग्रता

04:05 AM Jan 20, 2025 IST
सहजता में समग्रता
Advertisement

अनीता

Advertisement

हम देखते हैं कि पदार्थ अचेतन है, चट्टान हिल नहीं सकती, इसमें जीवन नहीं है। जीव जगत अर्धचेतन है, वृक्ष, पशु, पक्षी जीवित हैं, लेकिन उनमें विकसित मन नहीं है। मनुष्य चेतन है, उसमें मन है। मनुष्य में चेतना ‘मैं’ के विचार के साथ आती है। उसके भीतर चिंतन शुरू होता है, उसका व्यक्तित्व अस्तित्व में आता है। मन और बुद्धि द्वारा वह अतीत का आकलन करता है, भविष्य की योजनाएं बनाता है। मन को एक तरह की स्वतंत्रता है। मन में एक के बाद दूसरा विचार आता रहता है इसलिए वह अहंकार द्वारा कार्य करता है। किंतु चेतना की एक चौथी अवस्था भी है जिसका निर्माण करना मानव के हाथ में है। इससे ही अंतर्दृष्टि का जन्म होता है। अंतर्ज्ञान भीतर से आता है, यह भीतर से विकसित होता है। चेतना के इस गुण को जिसे ध्यान, अंतर्ज्ञान, अंतर्दृष्टि, कालातीत होना कहा जाता है; वर्तमान भी कह सकते हैं। बुद्ध इसे ही निर्वाण कहते हैं, हिंदू और जैन इसे मोक्ष कहते हैं। जिसे पतंजलि तुरीय कहते हैं अर्थात‍् ‘चौथा’। यह अवस्था ध्यान के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है।
यदि गहराई से देखें तो मन के सारे तनाव का मूल स्रोत व्यक्ति का असंतोष है। एक व्यक्ति सदा कुछ न कुछ और बनने की कोशिश करता रहता है। वह स्वयं जैसा है उसे स्वीकार नहीं करता, इसी कारण वह दूसरे के अस्तित्व को भी नकारता है। उसका मन सदा किसी आदर्श स्थिति को पाने की कल्पना करता है। इसलिए तनाव सदा इस बात के कारण होता है कि वास्तव में वह क्या है और क्या बनना चाहता है। व्यक्ति के पास जो आज है, वह उससे क़तई खुश नहीं है और वह पाना चाहता है, जो नहीं है।
दरअसल, मन का स्वभाव ही द्वंद्वात्मक है, मन स्वयं का विरोधी है। किसी भी बिंदु पर अपने स्वभाव के कारण मन एकमत नहीं होता। यह हमेशा बंटा हुआ होता है। अगर व्यक्ति मन की बात मानकर एक काम करता है तो मन का दूसरा हिस्सा कहता है, यह काम सही नहीं था। अगर वह इस हिस्से की बात सुने, तो दूसरा हिस्सा कहता है, यह अस्थिरता ठीक नहीं है।
व्यक्ति अपने भीतर सदा एक सवाल का सामना करता है, और उसकी सारी शक्ति अपने भीतर के इस तनाव से स्वयं को बचाने में ही खर्च होती रहती है। इस तनाव से बचाने का उपाय है जैसे हैं, उस रूप में खुद को स्वीकारना। इससे उसके भीतर बहुत-सी ऊर्जा बच जाती है, जिसका उपयोग वह अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए कर सकता है।
साभार : अमृता-अनीता डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

Advertisement
Advertisement
Advertisement