रोजगार सृजन हो और महंगाई पर नियंत्रण
देश को 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखा गया है, लेकिन वर्तमान में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती असमानता और मंदी के संकेत इसे चुनौतीपूर्ण बना रहे हैं। आर्थिक विकास की गति मंदी की ओर अग्रसर है, जबकि निवेश और रोजगार सृजन में कमी देखी जा रही है।
सुरेश सेठ
आज़ादी के बाद, संविधान द्वारा यह घोषणा की गई थी कि हम प्रजातांत्रिक तरीके से समाजवाद की स्थापना करेंगे, यानी अमीर-गरीब के भेद को मिटाएंगे। हालांकि, संविधान को अंगीकार करने के पौन सदी बाद भी यह भेद जस का तस बना हुआ है। देश में प्रगति तो हो रही है, लेकिन वह चंद धनकुबेरों की संपत्ति बनकर रह गई है। आज भी 10 प्रतिशत लोग देश की 90 प्रतिशत संपत्ति पर हावी हैं, जबकि 90 प्रतिशत लोग 10 प्रतिशत संपत्ति से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
वर्ष 2047 तक देश को पूरी तरह से विकसित बनाने का लक्ष्य रखा है और यह सपना देखा है कि भारत विश्व गुरु बनेगा। वर्तमान सरकार के 11 वर्षों में हमने देश को दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बना दिया है और अगले वर्षों में तीसरी महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं। हालांकि, यह सपना है, पर क्या वास्तविकता में अमीर-गरीब का भेद मिट पाया है? क्या मेहनत करने वालों को रोजगार मिला है? और क्या वजह है कि हर संकट में गरीब और भी अधिक परेशान होता है, जबकि अमीर और भी समृद्ध हो जाते हैं। नए आंकड़े बताते हैं कि एशिया में सबसे अधिक खरबपति भारत में हैं।
भारत को 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना बहुत आकर्षक है, लेकिन इसके लिए जीडीपी विकास दर 8-9 प्रतिशत के बीच रहनी चाहिए। हालांकि, 2024-25 के आर्थिक वर्ष की आखिरी तिमाही में जीडीपी विकास दर पिछले चार सालों में सबसे कम रही, जो 5.4 प्रतिशत तक गिर गई। इसका कारण महंगाई, शहरी मांग में कमी, महंगी वस्तुएं और घटती उपभोक्ता शक्ति बताई जा रही है। इसके अतिरिक्त, पूंजी निवेश में कमी और उत्पादकता में अवरोध भी आर्थिक मंदी के कारण बने। वर्ष 2023-24 में भारत ने 8.2 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि हासिल की थी, जो दर्शाता है कि यदि सही नीतियां अपनाई जाएं, तो आर्थिक वृद्धि संभव है।
आगामी बजट में वित्तमंत्री को इस मंदी का ध्यान रखते हुए ऐसे कदम उठाने होंगे जो निवेश को प्रोत्साहित करें, उत्पादकता बढ़ाएं, और रोज़गार के अवसर सृजित करें। इसके परिणामस्वरूप मांग में वृद्धि होगी और बाजारों में निरुत्साह की स्थिति को रोका जा सकेगा। कृषि, जो देश का प्रमुख क्षेत्र है और जिसमें 62 प्रतिशत श्रम लगा है, अब उसके जीडीपी योगदान में गिरावट आ रही है।
कोविड महामारी के प्रभाव से शहरी औद्योगिक और उत्पादक क्षेत्रों से श्रम बल वापस ग्रामीण इलाकों में लौट आया है, और अब वे शहरों में काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। आंकड़ों के अनुसार, 16 प्रतिशत श्रम बल कृषि से अन्य क्षेत्रों में गया था, लेकिन पिछले दस वर्षों में 19 प्रतिशत श्रम बल खेती में लौट आया है, जबकि खेती की उत्पादकता अन्य क्षेत्रों से कम है। सेवा क्षेत्र और पर्यटन ने जीडीपी में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन रोजगार की संभावना सीमित है। सरकार के मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और उत्पादन लिंक्ड इंसेंटिव योजनाओं के बावजूद पूंजी निर्माण की कमी के कारण ये योजनाएं सफल नहीं हो पाई। शहरी उपभोग में गिरावट के साथ ग्रामीण उपभोग में वृद्धि हुई है।
सरकार ने सहकारी क्षेत्र को विकसित करने का प्रस्ताव रखा है, लेकिन इसके लिए इन उद्योगों को गांवों, कस्बों या छोटे शहरों में स्थापित करना आवश्यक है। शहरी महंगाई से गरीब वर्ग का सामना कठिन हो रहा है, जबकि गांवों में खेती का कुटीर उद्योग कुछ सहारा दे सकते हैं। महंगाई का असर गांवों और शहरों दोनों पर है। एक और बड़ी चुनौती यह है कि युवा पीढ़ी को रोजगार की गारंटी नहीं मिल पा रही, खासकर सरकार द्वारा महंगाई नियंत्रण के लिए लागू की गई सख्त साख नीति के कारण। उच्च ब्याज दरों और रैपो रेट में कोई कमी न आने से यह स्थिति और भी जटिल हो गई है।
आगामी माह में रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति में ब्याज दरों या रैपो रेट में कटौती की आवश्यकता होगी, ताकि खेती से लेकर निवेश तक को प्रोत्साहन मिल सके और रोजगार सृजन हो सके। वर्तमान में कृषि, होटल और सम्पत्ति क्षेत्र को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रों में विकास दर घट गई है, जैसे निर्माण, खनन, विद्युत, गैस, और व्यापार। इसका कारण निवेश और पूंजी निर्माण की कमी है, जो ब्याज दरों में कटौती से पूरी हो सकती है। हालांकि, ब्याज दरों में कमी महंगाई को बढ़ा सकती है, इसलिए आर्थिक संतुलन बनाए रखना जरूरी है।
लेखक साहित्यकार हैं।