सच्ची पितृ-भक्ति
महान संत रामचंद्र डोंगरे जी महाराज एक बार गुजरात के किसी नगर में श्रीमद्भागवत की कथा सुना रहे थे। एक युवक बड़ी तन्मयता से उनकी कथा सुन रहा था। लीला प्रसंगों को सुनकर उसकी आंखें नम हो जाती थीं। जैसे ही रात के सात बजते वह कथा बीच में छोड़कर घर लौट जाता। एक दिन वह कथा से पूर्व डोंगरे जी के दर्शनों के लिए आया। संत जी ने उससे पूछ लिया, बेटा तुम कथा बीच में छोड़कर क्यों चले जाते हो? युवक ने बताया कि महाराज मेरी माता जी का निधन हो चुका है। घर में पिताजी अकेले रहते हैं। उन्हें आंखों से दिखाई नहीं देता। दिन छिपते ही मैं घर पहुंचकर दिया जलाता हूं। उन्हें दवा देता हूं। अपने हाथ से उनके लिए भोजन तैयार करता हूं। जब तक सो नहीं जाते उनके चरण दबाता हूं। इसलिए पूरी कथा नहीं सुन पाता। डोंगरे जी उस अनूठे पितृभक्त के समक्ष नतमस्तक हो उठे। युवक को संकोच में देखकर बोले, ‘मैं तो मातृ-पितृ भक्तों की कथा ही सुनाता हूं। तुम तो अपने हाथों से माता-पिता की सेवा करते हो।’ यह कहते-कहते उन्होंने युवक के हाथों को अपने हाथों में ले लिया।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा