संविधान का मर्म समझ अनुकरण की जरूरत
संविधान को लागू करने के 75वें साल में हमें अपने संविधान के आमुख में कही बातों को सही अर्थों में समझने की कोशिश करनी चाहिए थी, पर संसद में हुई बहस व्यक्तियों की आलोचना में सिमट कर रह गयी। विचार और व्यक्ति को अलग करके देखने-समझने का विवेक जैसे हमने खो दिया है।
भले ही घोषित उद्देश्य कुछ भी रहा हो पर संसद के दोनों सदनों में भारत के संविधान के संदर्भ में हुई चार दिन की बहस कुल मिलाकर निराश करने वाली ही थी। निश्चित रूप से यह एक ऐसा अवसर था जब हमारे सांसद न केवल संविधान को नये सिरे से समझने की कोशिश के रूप में उपयोग में ला सकते थे, बल्कि देश के सामने एक ऐसी रूप-रेखा भी रख सकते थे जो ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ की स्थापना के लिए ‘हम भारत के लोगों ने समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधार पर अपने लिए बनाया था। हमारा संविधान नागरिक के अधिकारों के साथ-साथ उसके कर्तव्यों को भी परिभाषित करता है।
75 साल पहले हमने अपने लिए यह संविधान बनाया था और एक सपना देखा था कि इसके आधार पर हम एक नया भारत बनायेंगे। इसीलिए, यह एक अवसर था जब हम मिल-जुल कर यह आकलन करते कि हमारा यह संविधान, जो विश्व का सबसे वृहद लिखित संविधान है, अब तक अपने उद्देश्यों को पूरा करने में कितना सफल रहा है; नागरिक से और राजनेताओं से संविधान जो अपेक्षाएं करता है, उन्हें किस हद तक पूरा किया गया है; और हमें अपने लक्ष्यों तक पहुंचाने में यह संविधान अब तक कितना कुछ कर पाया है। यह अवसर था जब हम देखते कि संविधान में वर्णित सपनों को पूरा करने में हम कितनी दूरी तक पहुंच पाये हैं?
वस्तुतः यह आत्म-विश्लेषण का भी अवसर था। अपनी उपलब्धियों और कमियों का ईमानदार आकलन होना चाहिए था। लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा कुछ हुआ नहीं। इस संदर्भ में संसद के दोनों सदनों में जो कुछ हुआ वह कुल- मिलाकर निराश करने वाला ही था। सारी बहस के दौरान कहीं ऐसा नहीं लगा कि सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष ने इस संदर्भ में कोई विशेष तैयारी की थी। एक-दूसरे पर आरोपों-प्रत्यारोपों का वही सिलसिला इस बार भी दिखा जो दुर्भाग्य से हमारी संसद में होने वाली बहसों की एक पहचान बन चुका है।
यह कहना ग़लत होगा कि हमारी संसद में सही सोच वाले और दूसरे की बात को सही ढंग से समझने वाले लोग हैं ही नहीं, पर पता नहीं क्यों हमारे राजनीतिक दल और अधिकांश राजनेता व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों से ऊपर उठकर कुछ सोचने-कहने के लिए तैयार ही नहीं दिखते।
विश्व का सबसे विस्तृत संविधान बनाने वाले हमारे संविधान-निर्माताओं ने इसे तैयार करने के लिए हर धारा, हर शब्द पर गहराई और गंभीरता से विचार किया था। संविधान-सभा की सारी कार्रवाई उपलब्ध है। वे सारी बातें और भाषण मौजूद हैं जिनके माध्यम से संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करने की आशाएं बांधी गयी थीं। ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान-निर्माताओं में मतभेद नहीं थे। खूब मतभेद थे। पर उन्होंने बड़े ही धैर्य से मतभेदों की कंटीली राहों में विवेक के आधार पर पगडंडियां बनायीं- हमारे लिए एक ऐसी विरासत छोड़ गये जो हमारी राहों को सुगम बना सकती थी। यह अवसर उस विरासत के बारे में विचार करने का था, उन दार्शनिक आधारों को समझने का था जो हमारी विकास-यात्रा के लिए हमारे पूर्वजों ने हमें सौंपे थे।
दुर्भाग्य ही है कि संसद में हुई चार दिन की बहस कुछ व्यक्तियों-परिवारों की आलोचना में सिमट कर रह गयी। लगभग सभी वक्ता वही सब बोले जो वह चुनावी सभाओं में बोलते चले आ रहे हैं। वही सोच, वही शब्दावली। मैं दुहराना चाहता हूं कि यह अवसर आरोपों-प्रत्यारोपों का नहीं, आत्मालोचन का था। संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए दूसरे की कमीज़ को अधिक मैला साबित करने के बजाय अपनी कमीज़ के दागों को देखने का मौका था यह। यह मौका उन्होंने गंवा दिया। नुकसान उनका नहीं हुआ, नुकसान हुआ है भारत के उस आम नागरिक का जो सब कुछ देखने के बावजूद उम्मीद लगाये बैठा है कि उसके नेता कभी तो सही राह पर आयेंगे।
पिछले एक लंबे अरसे से हम यह देख रहे हैं कि हमारी संसद में होने वाली बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। सारी बहस व्यक्तियों पर केंद्रित होकर रह जाती है। व्यक्तियों की गलतियों की चर्चा होनी चाहिए, पर यह चर्चा यहीं सिमटनी भी नहीं चाहिए। बात विचारों पर होनी चाहिए। सोचा जाना चाहिए था कि बाबा साहेब आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, मौलाना आज़ाद, पुरुषोत्तम दास टंडन, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर जैसे व्यक्तित्वों ने क्या सोचकर हमें एक ऐसा संविधान दिया जिसके कारण पिछले पिचहत्तर साल में हमारा लोकतंत्र सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद दुनिया भर के लिए मिसाल बना हुआ है? ऐसा नहीं है कि इस दौरान संविधान के संदर्भ में कोई ग़लती नहीं हुई। आपातकाल निश्चित रूप से एक काले अध्याय के रूप में याद रखा जाना चाहिए– पर यह याद इसलिए नहीं होनी चाहिए कि किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा ग़लत, कहना चाहिए आपराधिक, कदम उठाया था, इस काले अध्याय को याद इसलिए रखा जाना चाहिए ताकि फिर कोई शासक इस तरह का अपराध न कर पाये। संविधान में उचित संशोधन करके इस आशंका को मिटाने की कोशिश की गयी है, पर आवश्यकता नेतृत्व की सोच में संशोधन करने की है।
यह याद रखना ज़रूरी है कि हमने संविधान जब बनाया तो देश विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था। सांप्रदायिकता की आग में जलने के बावजूद तब हमारे नेतृत्व ने हमें एक पंथ-निरपेक्ष समाज के निर्माण का संदेश दिया था, हमें बताया था कि समानता का अर्थ यह है कि धर्म और जाति से ऊपर उठकर एक मानवीय समाज की रचना करके ही हम एक न्यायपूर्ण व्यवस्था को अपना सकते हैं। हमारे नेता आज संविधान को सर्वोपरि मानने की बात तो करते हैं, पर उनकी करनी में वह सब दिखाई नहीं देता जिसकी अपेक्षा हमारा संविधान उनसे करता है।
हमें हमारे संविधान-निर्माताओं ने बंधुता का आदर्श दिया था, हम धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर स्वयं को दूसरे से बेहतर स्थापित करने में लगे हैं। संविधान को लागू करने के 75वें साल में हमें अपने संविधान के आमुख में कही बातों को सही अर्थों में समझने की कोशिश करनी चाहिए थी, पर संसद में हुई बहस व्यक्तियों की आलोचना में सिमट कर रह गयी। विचार और व्यक्ति को अलग करके देखने-समझने का विवेक जैसे हमने खो दिया है। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों ने इस बहस के दौरान ऐसा कुछ अहसास नहीं होने दिया, जो यह बताता कि हमारे नेता संविधान को सचमुच आदर की दृष्टि से देखते हैं। संविधान को हाथ में लेकर शपथ लेने अथवा संविधान के समक्ष माथा टेकने के नाटक से उबरना होगा हमें। आवश्यकता संविधान की भावना को समझने, उसे जीने, की है। दुर्भाग्य से, ऐसा कोई आश्वासन इस बहस के दौरान दिखा नहीं–कब कोई देगा ऐसा आश्वासन?Advertisement
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।