शुष्क भूमि विस्तार से उपजा मानवीय संकट
आज दुनिया के कुछ सबसे शुष्क क्षेत्रों में पहले से ही जबरन पलायन दिखाई दे रहा है। जैसे-जैसे भूमि अनुपयोगी होती जाती है और खेती विफल होती जाती है, परिवारों और समुदायों के पास अक्सर स्थानांतरित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
मुकुल व्यास
हाल के दशकों में पृथ्वी की तीन-चौथाई से अधिक भूमि स्थायी रूप से शुष्क हो गई है। जलवायु संकट के प्रभावों से जूझ रही दुनिया के लिए शुष्क भूमि का विस्तार होना नई चिंता पैदा करता है। मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन द्वारा जारी की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि 2020 तक के तीन दशकों में पृथ्वी की लगभग 77.6 प्रतिशत भूमि ने पिछले 30 साल की अवधि की तुलना में शुष्क परिस्थितियों का अनुभव किया। उन्हीं तीन दशकों में, शुष्क भूमि का विस्तार लगभग 43 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हुआ जो अंटार्कटिका को छोड़कर पृथ्वी की सभी भूमि का 40.6 प्रतिशत हिस्सा है। इस समय सीमा के भीतर, वैश्विक भूमि का लगभग 7.6 प्रतिशत क्षेत्र शुष्कता की सीमा को पार कर गया। अधिकांश आर्द्र भू-भाग शुष्क भूमि में परिवर्तित हो गए, जिससे कृषि, पारिस्थितिकी तंत्र और उन पर निर्भर लोगों पर गहरा असर पड़ा।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश नहीं लगाती है, तो इस सदी के अंत तक आज के आर्द्र क्षेत्रों का 3 प्रतिशत अतिरिक्त क्षेत्र शुष्क भूमि में परिवर्तित हो जाएगा। वैज्ञानिकों की नई रिपोर्ट वैश्विक शुष्कता रुझान तथा भविष्य के अनुमान के बारे में सऊदी अरब के रियाद में आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में प्रस्तुत की गई। यह अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त राष्ट्र भूमि सम्मेलन था। पश्चिम एशिया में यह पहली बैठक थी। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो शुष्कता के प्रभावों से व्यापक रूप से प्रभावित है। रियाद बैठक में पहली बार शुष्कता के संकट को वैज्ञानिक स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया गया। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन इस संकट का प्राथमिक चालक है। बिजली उत्पादन, परिवहन, उद्योग और भूमि-उपयोग परिवर्तनों से होने वाले उत्सर्जन ग्रह को गर्म कर रहे हैं और वर्षा के पैटर्न, वाष्पीकरण दर और पौधों के जीवन को बदल रहे हैं। ये स्थितियां बढ़ती शुष्कता को रेखांकित करती हैं।
कुल मिलाकर विश्व स्तर पर शुष्क भूमि का विस्तार हो रहा है। 2020 तक 2.3 अरब लोग यानी दुनिया की आबादी के एक-चौथाई से भी ज्यादा लोग विस्तारित शुष्क भूमि में रह रहे थे। शुष्कता से संबंधित भूमि क्षरण, जिसे मरुस्थलीकरण के रूप में जाना जाता है, मानव कल्याण और पारिस्थितिक स्थिरता के लिए एक गंभीर खतरा है। इस दिशा में ठोस कार्रवाई के बिना भविष्य और भी अधिक निराशाजनक हो सकता है। सबसे खराब उत्सर्जन परिदृश्यों के तहत, सदी के अंत तक पांच अरब लोग शुष्क भूमि पर रह सकते हैं। ऐसी स्थिति का मतलब होगा मिट्टी का क्षय, जल संसाधनों की कमी और मानवता के बड़े हिस्से के लिए पारिस्थितिकी तंत्र का ढहना।
आज दुनिया के कुछ सबसे शुष्क क्षेत्रों में पहले से ही जबरन पलायन दिखाई दे रहा है। जैसे-जैसे भूमि अनुपयोगी होती जाती है और खेती विफल होती जाती है, परिवारों और समुदायों के पास अक्सर स्थानांतरित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। इससे वैश्विक स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां बढ़ती जाती हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि समस्त भूमि का पांचवां हिस्सा अचानक पारिस्थितिकी तंत्र के परिवर्तनों से गुज़र सकता है। इनके प्रभावों से जंगल घास के मैदानों में बदल सकते हैं। दुनिया के कई पौधों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के बारे में एक अन्य अध्ययन में दुनिया के ग्लेशियरों के समक्ष आसन्न संकट को रेखांकित किया गया है। दुनिया के कई ग्लेशियर पिछले हिमयुग के दौरान बने थे। ये ग्लेशियर हजारों सालों से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों और ध्रुवीय क्षेत्रों में विद्यमान हैं। लेकिन आने वाले समय में इस स्थिति में बड़ा बदलाव हो सकता है। एक ताजा अध्ययन से पता चलता है कि इस सदी के अंत तक दुनिया के आधे से ज्यादा ग्लेशियर गायब हो सकते हैं। स्विट्ज़रलैंड और बेल्जियम के वैज्ञानिकों ने कार्बन उत्सर्जन के विभिन्न परिदृश्यों के तहत ग्लेशियरों की संभावित क्षति का अनुमान लगाया है। उन्होंने पृथ्वी के सभी ग्लेशियरों को ध्यान में रखा जिनकी संख्या दो लाख है। अध्ययन से मिले आंकड़े डराने वाले हैं। यदि कार्बन का उत्सर्जन उच्चस्तर पर हुआ तो सभी ग्लेशियरों में से 54 प्रतिशत तक ग्लेशियर गायब हो सकते हैं। आल्प्स में यह संख्या 75 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। पिछले साल किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं और ग्लोबल वार्मिंग के जारी रहने पर सदी के अंत तक उनके द्रव्यमान में 80 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है।
नए अध्ययन के मुख्य लेखक और ग्लेशियर वैज्ञानिक हैरी ज़ेकोलारी ने कहा कि ग्लेशियर दुनिया के कई हिस्सों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्लेशियरों में होने वाले परिवर्तन सीधे हमारे समाज और प्राकृतिक पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। स्थानीय स्तर पर ग्लेशियर प्राकृतिक खतरों का कारण बन सकते हैं। ग्लेशियर स्थानीय जल आपूर्ति निर्धारित करते हैं और पर्यटन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। ग्लेशियरों के पिघलने के परिणाम दूरगामी होंगे। पिघलते हुए ग्लेशियर समुद्र के बढ़ते स्तर में योगदान करते हैं जो तटीय कस्बों और शहरों में बाढ़ के जोखिम को बढ़ाता है।
इसके अलावा, ग्लेशियर के खत्म होने से मीठे पानी के संसाधन कम हो जाते हैं, जिस पर लाखों लोग पीने के पानी के लिए निर्भर हैं। ग्लेशियर से पानी की आपूर्ति में परिवर्तन जैव विविधता, उद्योग, कृषि और घरों के लिए पानी की उपलब्धता को प्रभावित करेगा। ग्रीनहाउस प्रभाव संकट को और बढ़ाएगा। जैसे-जैसे पृथ्वी की सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने की क्षमता कम होती जाती है, सूर्य से अधिक ऊर्जा परावर्तित होने के बजाय अवशोषित होती है। इससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ता है और जलवायु परिवर्तन और भी गंभीर हो जाता है।
भविष्य में ग्लेशियर क्षति का अनुमान लगाने के लिए शोध दल ने ऐतिहासिक ग्लेशियर द्रव्यमान, कार्बन उत्सर्जन और तापमान डेटा का अध्ययन किया। इस जानकारी और कंप्यूटर मॉडलिंग की सहायता से शोधकर्ता भविष्य में ग्लेशियर द्रव्यमान की क्षति के बारे में पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो गए। विभिन्न जलवायु परिदृश्यों के तहत 21वीं सदी में ग्लेशियर विकास का मॉडलिंग करके शोधकर्ताओं ने भविष्य के उत्सर्जन स्तरों के आधार पर परिणामों में भारी अंतर पाया। कम कार्बन उत्सर्जन के तहत 2100 तक ग्लेशियर अपने द्रव्यमान का 25 से 29 प्रतिशत खो सकते हैं। उच्च-उत्सर्जन परिदृश्य के तहत यह आंकड़ा 46 से 54 प्रतिशत के बीच बढ़ सकता है। इन चिंताजनक खुलासों के बावजूद शोधकर्ताओं ने अनुमानित ग्लेशियर विकास में अनिश्चितताओं को स्वीकार किया गया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि शोध में विशेष रूप से ग्लेशियरों की जांच की गई है, न कि बर्फ की चादरों की। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका पर पाई जाने वाली बर्फ की चादरों में भूमि की बर्फ का 99 प्रतिशत और पृथ्वी के ताजा पानी का 68 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मौजूद है।
लेखक विज्ञान मामलों के जानकार हैं।