अब तो मेवे से मिलती है सेवा
केदार शर्मा
बुजुर्गों से यही सुनते आए हैं कि बेटा, सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा। सेवा और मेवा का चोली-दामन का साथ बताया गया है। सेवा करने के बाद मेवा मिलेगा या नहीं इसमें संदेह हो सकता है परंतु कई बार पहले मेवा खिलाने के बाद सेवा पक्की मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। मेवा खाने के बाद आदमी में सेवा करने की ताकत भी आ जाती है। सेवा करने में जोखिम हो सकता है, परंतु मेवा खाने में किसी तरह का जोखिम नहीं होता।
हम नाचीज़ बादाम, पिस्ता, काजू जैसी चीज़ों को ही मेवा समझते रहे, जो पैसा खर्च करने के बाद बाजार में मिल जाते हैं। परंतु साहित्य में सेवा और मेवा दोनों व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। जैसे स्वाति नक्षत्र की एक बूंद कदली, सीप और भुजंग के मुख में जाकर अपना अलग रूप ग्रहण कर लेती है। वैसे ही मेवा भी अलग-अलग तरह के सेवकों के सान्निध्य में जाकर अलग तरह का प्रभाव दिखलाता है। मेवा पाने के लिए सेवक बनना जरूरी है। इसीलिए हर क्षेत्र में सेवक बनने की कतार में सेवा करने के लिए व्याकुल सेवाकांक्षियों की फौज खड़ी है, जिनमें सरकारी सेवा के क्षेत्र में सबसे अधिक भीड़ है। सरकारी सेवक सेवा जनता की करते हैं पर बंधा-बंधाया मेवा सरकार देती है। कुछ के भीतर सेवा करने की तड़प, जो पहले सेवक बनने के लिए थी, मेवा फिक्स होने के बाद उनमें नॉर्मल होने लगती है।
देश, काल और परिस्थिति के अनुसार मलाईदार पद वालों के पास बाहर का मेवा भी आता रहता है। मलाई मेवे को खींचती है। कई भक्त सरकारी सेवकों की सेवा से प्रसन्न होकर मेवा अर्पण करते हैं। मेवा तो प्रतीकात्मक है, असल में तो उनकी सेवा भावना में जमी श्रद्धा और विश्वास को गति देना है।
मेवा को किसी समय सेवा का अनुगामी माना जाता था परंतु आज सेवा मेवा की अनुगामिनी है। कभी-कभी मेवा सेवा के साथ निष्पक्ष न्याय नहीं करता है, यही मेवा की सबसे बड़ी विसंगति है। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी पर्याप्त मेवा न मिले और किसी को नाम मात्र का श्रम करने पर भी भरपूर मेवा मिल जाए तो इसे क्या कहा जाए?
कुछ ऐसे भी भाग्यशाली होते हैं जिनको सेवा और मेवा दोनों एक साथ नसीब होते हैं। अनेक बाबा लोग इस श्रेणी में आते हैं, जिनके पांव कोई और दबाता है तथा कपड़े कोई और धोता है। अपनी मनोकामना पूरी होने की चाहत में भक्त मेवा भी चढ़ाते हैं।