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वैश्विक व्यापार में अपनी जगह तलाशता भारत

04:00 AM Dec 23, 2024 IST

अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट थामना जरूरी है। विदेशी व्यापार घाटा कम करके यह संभव है यानी निर्यात बढ़ाएं और आयात वृद्धि राेकें। बेशक ज्यादा विदेशी निवेश आकर्षित करना, एफटीए व नवाचार जैसे उपाय इसमें कारगर हैं। वहीं आर्थिकी के विभिन्न सेक्टर्स को निर्यात प्रतिस्पर्धी भी बनाना होगा।

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सुरेश सेठ

भारत अपनी मुद्रा के अमेरिकी डॉलर के मुकाबले निरंतर गिरावट को लेकर चिंतित है। इस समस्या से निपटने के लिए ब्रिक्स सम्मेलन में प्रस्तावित किया गया कि तीसरी दुनिया के देशों और रूस के साथ व्यापार अपनी-अपनी मुद्राओं में किया जाए या डॉलर के बजाय एक वैकल्पिक मुद्रा का उपयोग किया जाए।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चेतावनी दी है कि डॉलर के मुकाबले वैकल्पिक मुद्रा की कोशिशों पर सौ प्रतिशत टैरिफ बढ़ा दिया जाएगा, जिससे व्यापार प्रभावित हो सकता है। फिलहाल, भारत को अपनी आयात-आधारित अर्थव्यवस्था को बदलकर निर्यात-आधारित अर्थव्यवस्था में रूपांतरित करने की आवश्यकता है, और निवेश आकर्षित करने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है, ताकि वैश्विक निवेशक भारत की ओर आकर्षित हो सकें।
अमेरिका वैश्विक व्यापार में बहुत बड़ी हिस्सेदारी रखता है, जबकि भारत की हिस्सेदारी केवल 1 प्रतिशत है। भारत को अधिकांश सामान जैसे कच्चा तेल और फार्मा उद्योग के लिए आवश्यक सामग्री आयात करनी पड़ती है। दरअसल, हम अमेरिका और चीन पर अत्यधिक निर्भर हैं, हालांकि चीन के उत्पादों के निर्यात कम करने की कोशिशों के बावजूद व्यापारिक निर्भरता कम नहीं हुई है। भारत को आत्मनिर्भर बनकर आयात को कम करने और निर्यात बढ़ाने की दिशा में जल्दी कदम उठाने की आवश्यकता है, लेकिन पिछले साल निर्यात वृद्धि बहुत कम रही और आयात की निर्भरता बनी रही।
भारत ने आशा व्यक्त की थी कि कोविड महामारी के बाद चीन की कमजोर स्थिति के चलते वह विदेशी निवेश को आकर्षित कर सकेगा। ट्रम्प ने चीन से आयात पर अतिरिक्त शुल्क बढ़ाने की घोषणा की थी, और कनाडा, मैक्सिको से भी आयात पर शुल्क लगाया गया था, जबकि हाल ही में चेतावनी को छोड़ दें तो भारत के विरुद्ध इतने बड़े स्तर पर ऐसा कदम शायद ही उठाया गया हो। चीन के आर्थिक संकट में निवेशक वहां पैसा लगाने से हतोत्साहित हो रहे हैं, जिससे ‘चीन प्लस वन’ रणनीति को लागू करने की बात की जाती रही है, ताकि भारत एक आकर्षक निवेश स्थल बने। हालांकि, नीति आयोग का कहना है कि इसमें सीमित सफलता मिली है। इसके मुकाबले, वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया को अधिक लाभ हुआ क्योंकि वहां सस्ता श्रम, सरल कर कानून, कम शुल्क और तेज़ मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए।
भारत के लिए बेहतर यह हो सकता है कि वह वैश्विक व्यापार में अपने स्थान को मजबूत करे, लेकिन नौकरशाही, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार इसके मार्ग में रुकावट डाल रहे हैं। अनुसंधान और नवाचार की कमी, साथ ही एफटीए समझौतों में असफलता, भारत को अन्य देशों की तरह सफलता दिलाने में विफल रही। जबकि अमेरिका ने चीनी वस्तुओं पर सख्त शुल्क लगा दिए, बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन के विकल्प की तलाश कर में रहीं, लेकिन यह अवसर भारत में नहीं आ सका। इसके परिणामस्वरूप, व्यापार में श्रम सघन क्षेत्रों में भारत की हिस्सेदारी घट गई और कृषि उत्पादों में प्रतिस्पर्धा नहीं बढ़ पाई। बासमती चावल का पेटेंट हमारे पास होने के बावजूद, पाकिस्तान ने उसकी नकल कर ली। किसानों को निर्यात प्रोत्साहन नहीं मिल सका क्योंकि सरकार की अनुदान नीति के कारण अनाज की कीमतें बढ़ने नहीं दी गईं। भारत अपने निर्माण और विनिर्माण क्षेत्र में प्रगति करने में अग्रणी देशों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सका। उच्च लागत, गिरते मुद्रा मूल्य और सस्ते निर्यात के कारण उत्पादकों को घाटा हो रहा है, जिससे स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। नीति आयोग ने चीन प्लस वन रणनीति की सीमित सफलता को स्वीकार किया है। हालांकि, पहले चीन में निवेश से बचकर व्यापार विविधता की आवश्यकता उत्पन्न हुई थी, भारत इस अवसर को अभी तक पूरी तरह से भुना नहीं सका। नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक ने भी कहा कि ट्रम्प की घोषणाएं भारत के लिए एक बड़ा अवसर हैं।
अगर अब भारत खुद को सही तरीके से तैयार करता है, तो यहां एक बड़ा आर्थिक उछाल आ सकता है, क्योंकि भारत का वैश्विक व्यापारिक चेहरा बदलने वाला है। अमेरिका, जो भारत का बड़ा व्यापारिक साझेदार है, के साथ संबंध मजबूत हो रहे हैं। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी भारत की ‘वोकल फॉर लोकल’ नीति की सराहना की है और यहां निवेश बढ़ाने की घोषणा की है। हालांकि, विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कहना है कि सिर्फ निवेश बढ़ाना पर्याप्त नहीं है, रूस को भारतीय उत्पादों के लिए अपने बाजार भी खोलने चाहिए। यदि निर्यात बढ़ाने की दिशा में कदम उठाए जाते हैं, तो बदलती स्थिति और भी आकर्षक बन सकती है।
पिछली तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर में गिरावट आई है, जबकि सरकार का लक्ष्य 2047 तक 7 प्रतिशत की विकास दर बनाए रखना है। इस गिरावट ने भारत सरकार को सतर्क किया है कि वह अपने सार्वजनिक निवेश को घटाने के बजाय स्थिर बनाए रखे, क्योंकि यह पूंजी निर्माण में सहायक है। घरेलू निवेशकों द्वारा कमी को पूरा किया जा सकता है, लेकिन विदेशी निवेशकों का समर्थन आवश्यक है, ताकि भारत चीन की जगह निवेश का आकर्षक स्थल बन सके। तभी भारत अपनी बेरोजगारी दर को कम कर सकेगा और मंडियों की मांग को पूरा कर सकेगा। इसके लिए यथास्थितिवाद पर्याप्त नहीं होगा, जैसा कि मौद्रिक नीति में रैपो रेट में कोई बदलाव न करने से स्पष्ट है। सरकार को साहसिक निर्णय और सभी क्षेत्रों में समावेशी उद्यमिता को बढ़ावा देना चाहिए।

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लेखक साहित्यकार हैं।

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