लोहारू में ही परवान चढ़ा था मिर्जा गालिब का प्यार
सुशील शर्मा/निस
लोहारू, 26 दिसंबर
मशहूर शायर मिर्जा गालिब की प्रेम कथा लोहारू से ही शुरू हुई थी। 27 दिसंबर 1797 को जन्मे मिर्जा गालिब लोहारू के नवाब के भाई की बेटी उमराव जान के प्रेम में इस कदर दीवाने हुये वे उससे निकाह करके ही माने। शायरी में उनकी कामयाबी के पीछे उनकी पत्नी उमराव जान ही रही है। उमराव जान के लिए उनका प्यार शायरी में बदल गया। मिर्जा गालिब अपनी ससुराल में जिस विशाल किले के अंदर एक वृक्ष के नीचे बैठकर शेर लिखते थे, वह विशाल पेड़ आज भी उनकी याद दिलाता रहता है। पिलानी रोड स्थित नवाब विला में रहने वाले लोहारू नवाब के युवा वंशज रियाज खां आज भी मिर्जा गालिब के बारे में उनके पूर्वजों द्वारा बताई बातों को याद करके भूतकाल के सुनहरी यादों में खो जाते हैं। उन्होंने बताया कि मिर्जा गालिब हिंदू और मुस्लिम की संकीर्ण सोच से बहुत ऊपर उठे हुए थे।
शायरी के अलावा उनके दिल और दिमाग पर कोई चीज हावी नहीं हो सकी। यही वजह थी कि गालिब को न तो माथे पर आरती के बाद टीका लगवाने से परहेज था, न ही पूजा का प्रसाद खाने से कोई गुरेज था। एक बार वे दीवाली की रात अपने एक दोस्त के घर मौजूद थे। वहां पर लक्ष्मी पूजन के बाद पंडित ने गालिब को छोड़ सभी के माथे पर टीका लगाया। इस पर गालिब ने कहा कि पंडितजी उन्हें भी लक्ष्मी के आशीर्वाद के तौर पर टीका लगा दें। इस पर पंडितजी ने उनके माथे पर भी तिलक लगाया। जब गालिब वहां से निकले तो उनके हाथ में प्रसाद के तौर पर बर्फी थी। उसे देखकर एक मुल्ला बोले कि मिर्जा अब दीवाली की बर्फी खाओगे। इस पर गालिब रुके और पूछा कि मिठाई क्या हिंदू है। इस पर मुल्ला बोले और क्या। ये सुनकर गालिब ने तपाक से पूछ लिया इमरती हिंदू है या मुसलमान। इस सवाल का जवाब मुल्ला के पास नहीं था। गालिब उन्हें अकेला छोड़कर वहां से चले गए। दुनिया के उर्दू काव्य में अपना नाम अमर नाम करने के बाद मिर्जा गालिब 15 दिसंबर 1869 को अल्लाह को प्यारे हो गए। उनकी शेरो-शायरी का ही यह कमाल रहा है कि आज भी अपनी उम्र का शतक बना चुके कई बुजुर्ग गालिब की तरह शेरो-शायरी करते लोहारू में देखे जाते हैं।