लघुकथाएं
पैरों पर खड़े श्रमिक
प्रबोध कुमार गोविल
एक बार सुदूर गांव के एक दुरूह से खेत पर एक वृद्ध औरत काम कर रही थी। वह सुबह जब खेत पर आई थी तो उसने भिनसारे ही अपने चौदह साल के लड़के को यह कहकर घर से प्रस्थान किया कि वह जल्दी जा रही है क्योंकि खेत पर बहुत काम है।
लड़के ने उसके चले जाने के बाद नहा- धोकर चूल्हे पर रोटी बनाई और एक कपड़े की पोटली में चार मोटी रोटी अपने लिए तथा दो रोटी अपनी मां के लिए लेकर वह खेत की ओर चल पड़ा।
जब वह खेत पर पहुंचा तो उसने देखा कि उसकी मां ने धूप में पसीना बहाते हुए गोबर के उन सब उपलों के ढेर को उठाकर किनारे के बबूल के पेड़ के नीचे जमा कर दिया है जिन्हें वह कल उसी पेड़ के नीचे से उठा कर खाद के रूप में पूरे खेत में फ़ैला कर गया था। उसे मां पर क्रोध आया जिसने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया था।
वह बाल्टी उठाकर पीने का पानी भर लाने के लिए पास के कुएं पर चला गया।
कुएं की जगत पर उसने कपड़े की एक पोटली टंगी देखी जिसमें सुबह-सुबह सूर्योदय से भी पहले उठ कर मां द्वारा बनाई गई रोटियां थीं।
मां ने उससे पूछा कि क्या वह उन रोटियों को खा आया है, जो उसने सुबह उसके लिए बना कर रसोई के छींके पर टांग दी थीं?
लड़के के पास किसी गाबदू की तरह मां को देखे जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उसने दोबारा रोटी बनाकर मां की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया था।
एक-दूसरे से नाराज़ होकर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। और फिर मां-बेटा अब एक साथ बैठ कर प्याज़ और रोटी खा रहे थे।
वक्त
रेखा शाह आरबी
‘रोहन... मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।’ रोहन के पिता ललित जी बोले।
‘पापा मुझे ड्यूटी के लिए देर हो रही है, शाम को आपसे बात कर लेता हूं।’
‘बेटा ड्यूटी तो रोज रहती है पर ओवर ड्यूटी करके रात को जब आते हो तो या तो तुम बहुत थके होते हो या मैं सो चुका होता हूं इसीलिए मुझे अभी तुमसे बात करनी है।’
बगल में सोफे पर बैठते हुए रोहन बोला, ‘ठीक है पापा, बोलिए क्या बात है?’’
‘कोई बहुत बड़ी बात नहीं है रोहन... लेकिन आजकल तुम अपने परिवार को जरा भी वक्त नहीं दे रहे हो... तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे बेटे को सिर्फ तुम्हारे कमाए पैसों की जरूरत नहीं है... तुम्हारी भी जरूरत है... कल मैं पैसों के लिए अपने बेटे का बचपन अच्छी तरह से नहीं जी सका, आज तुम पैसों के पीछे अपने बेटे का बचपन नहीं जी रहे हो... ऐसा न हो... कि जिस तरह मैं आज अपने बेटे के पास बैठने के लिए दो घड़ी तरस रहा हूं... तुम भी अपने बेटे के पास बैठने के लिए तरस जाओ। इसीलिए अभी वक्त है अपना कुछ वक्त अपने बीवी-बच्चों के साथ गुजार लो... फिर यह समय लौट कर नहीं आएगा... मुझे बस यही कहना था।’ रोहन अपने पिता की भर्राई आवाज और उनके बोलने के उतार-चढ़ाव से उनका दर्द साफ महसूस कर रहा था।
अगले दिन ललित जी बाजार से जब सब्जी लेकर आए तो रोहन को शाम के पांच बजे घर में देखकर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रोहन मुन्ना के साथ खेल रहा था।
रोहन बोला, ‘पापा आज से मेरा बेटा... न अपने पापा के वक्त के लिए तरसेगा न आज से मेरे पापा अपने बेटे के वक्त के लिए तरसेंगे.. आज से आपका और मेरा बेटा दोनों अपने पापा के साथ वक्त गुजारेंगे... क्योंकि यह वक्त लौटकर नहीं आएगा अब यह सीख चुका हूं।’
ललित जी के चेहरे पर एक प्यारी-सी मुस्कान आकर ठहर गई।