मनुष्यता को मूल रूप में दर्शाती फिल्मों के सृजक
उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे आम लोगों के जीवन की सच्चाई और उनके संघर्षों को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं।
नब्बे की उम्र और किडनी के रोग से ग्रसित फिल्मकार श्याम बेनेगल सोमवार की शाम इस फानी दुनिया को अलविदा कह गये। श्याम बेनेगल भारतीय सिनेमा का वो नाम है जिन्होंने सिनेमा को एक अलग ही रूप-रंग देकर दुनिया की वास्तविकता को पर्दे पर उतारा। सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक की परंपरा के निर्देशक श्याम बेनेगल का जाना पूरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक एक बड़ी क्षति है।
14 दिसंबर, 1934 को हैदराबाद में एक साधारण परिवार में जन्मे श्याम बेनेगल जब छह-सात साल के थे तब पहली बार फिल्म देख कर इस कदर सम्मोहित हुए थे कि उसी समय ठान लिया था कि जीवन भर फिल्में ही बनाएंगे। अर्थशास्त्र में परास्नातक करने के उपरांत युवा श्याम ने फोटोग्राफी शुरू की। उनके पिता भी फोटोग्राफर थे। फिल्म बनाने के जुनून ने निर्माण की तकनीक को जानने-समझने के लिए शुरुआत में हिन्दुस्तान लीवर में कॉपी एडीटर का काम शुरू किया और उसके लिए एक विज्ञापन लिखा। उनके लिखे विज्ञापन को लोगों ने काफी पसंद किया। उस विज्ञापन को राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला।
फिल्म इंडस्ट्री में बतौर निर्देशक 1974 में श्याम ने अपनी शुरुआत ‘अंकुर’ से की थी, जो नारी सशक्तीकरण और सामाजिक मुद्दों पर आधारित थी। इस फिल्म ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। फिल्म ‘अंकुर’ की चर्चा सिर्फ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी हुई। इस फिल्म की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘अंकुर’ ने 40 से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड हासिल किये। अंकुर रिलीज होने के बाद व्ही. शांताराम ने फोन कर श्याम बेनेगल से पूछा कि ऐसी फिल्म कैसे बनाई? अब तक क्या कर रहे थे? फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने उनसे कहा कि तुमने पहले कभी फिल्म नहीं बनाई, फिर भी इतनी अच्छी फिल्म बना दी। ये कैसे किया? इसके बाद श्याम बेनेगल ने मंथन, कलयुग, निशांत, आरोहण, ‘भूमिका’, जुनून, मंडी, जुबैदा, भूमिका, मम्मो, सरदारी बेगम, सूरज का सातवां घोड़ा, वेलकम टू सज्जनपुर, मुजीब : एक राष्ट्र का निर्माण जैसी यादगार फिल्में बनाई।
श्याम बेनेगल ने जवाहरलाल नेहरू और सत्यजीत रे पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के अलावा दूरदर्शन के लिए धारावाहिक ‘यात्रा’, ‘कथा सागर’ और ‘भारत एक खोज’ का भी निर्देशन किया। कला के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए साल 1991 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। साल 2007 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया।
उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे आम लोगों के जीवन की सच्चाई और उनके संघर्षों को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं। इसके नेपथ्य में थी श्याम बेनेगल की साधना। सिनेमा के प्रति उनकी स्पष्ट सोच थी कि मेरी सबसे ज्यादा दिलचस्पी अपने देश के बारे में हरसंभव चीज जानने की होती है। मुझे लगता है, मेरी फिल्मों के जरिए मेरी ही तरह दर्शक भी हिंदुस्तान को उसके असल रंग-रूप में देख-जान पाते हैं। मानवीय पहलू वाला सिरा आपको पकड़कर रखना पड़ता है, वह छूट गया तो आप उस व्यक्ति को सुपरमैन, अति-महान टाइप बना डालेंगे, किसी व्यक्ति को उसकी कमजोरियों के साथ देखना होता है।
आम आदमी से उनके सरोकारों का प्रतिफल था कि 1976 में रिलीज हुई फिल्म ‘मंथन’ के निर्माण की कहानी आज भी हैरानी में डाल देती है कि इस फिल्म के प्रोड्यूसर कोई और नहीं बल्कि, 5 लाख किसान थे। ‘मंथन’ की कहानी श्वेत क्रांति यानी दुग्ध क्रांति पर आधारित है, इस विषय वस्तु पर फिल्म बनाने का फैसला कर चुके श्याम बेनेगल के सामने समस्या यह थी कि फिल्म पर पैसा कौन लगाएगा। इसी ऊहापोह में फिल्म का बजट तैयार हुआ करीब 10 लाख रुपये। दुग्ध क्रांति के नायक डॉ. कुरियन ने बजट का एक तरीका निकाला। तय हुआ कि दुग्ध क्रांति से लाभान्वित गांवों में बनाई गई समितियों को हर पैकेट पर 2 रुपये कम लें जिससे फिल्म का पूरा बजट निकल गया। किसानों ने खुश होकर दूध के पैकेट पर 2-2 रुपये कम कर लिए। साल 1976 में जब ‘मंथन’ रिलीज हुई तो इसे देखने के लिए भी गांव के लोगों की भारी भीड़ सिनेमाघरों तक पहुंची। किसी फिल्म के निर्माता पांच लाख किसान हों, यह अपने आप में एक ऐतिहासिक बात है।
आम आदमी से जुड़े उनके सरोकार ही थे कि श्याम बेनेगल ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को अपनी 2500 उपयोगी किताबें सौंपी थी। सिनेमा हो या निजी जीवन, दोनों ही में उनके लिए मानवीय सरोकार पहले थे। भारतीय जनता पार्टी से वैचारिक दूरी होते हुए वर्ष 2015 में लेखकों द्वारा पुरस्कार वापसी अभियान से श्याम बेनेगल सहमत नहीं थे। तब एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि ‘पुरस्कार देश देता है, सरकार नहीं। मेरी नजर में पुरस्कार लौटाने का कोई मतलब नहीं है।’
श्याम बेनेगल ने आपातकाल का खुलकर प्रतिरोध किया था। इसके बावजूद यह श्याम बेनेगल की शख्सियत ही थी कि इंदिरा गांधी ने एक बार उनकी तारीफ करते हुए कहा था कि उनकी फिल्में मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं।
लेखक कला और संगीत के जानकार हैं।