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भारतीय राजनीति में पहचान आधारित पैंतरे के जोखिम

06:30 AM Dec 04, 2023 IST
राजेश रामचंद्रन

अब जबकि चुनाव परिणाम के नतीजे लगभग सामने हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से अहम सबक यह है कि हिंदी भाषी क्षेत्र में गैर-भाजपा पार्टियों में कांग्रेस अभी भी सबसे मज़बूत दल है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ऐसे सूबे हैं जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच दो ध्रुवीय मुकाबला होने की रिवायत रही है। हालांकि, तेलंगाना में कांग्रेस की जीत यह सिद्ध करती है कि क्षेत्रीय दलों के ग्रहण लगने के बावजूद उसकी जड़ें कायम हैं।
कांग्रेस एक पुरानी पार्टी है, अलबत्ता चुनावी मौसम के दौरान इसमें कुछ हरी कोंपलें उग आती हैं जिनका मकसद सत्ता से खिन्न मतदाता के जरिये ताकत प्राप्त करना होता है। एक ऐसी पार्टी है जिसका एकमात्र तर्क रहा है, सत्ता। चूंकि एजेंडा तभी क्रियान्वित होता है जब सरकार हो, अतएव सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय अभियान चलाने वाले कार्यकर्ता की क्या जरूरत। ऐसा दल चुनाव के समय का इंतजार यह देखने के लिए करते हैं कि क्या फिज़ा में बदलाव आया है और लोगों का मिजाज़ सत्ताधारी दल के प्रति मोह से मोहभंग में परिवर्तित हुआ है या नहीं। तब केवल इतना करने की जरूरत होती है कि नाराज़ जनता के सामने खुद को सबसे काबिल विकल्प के रूप में पेश किया जाए।
लेकिन इसकी बजाय, यह मत समझें कि जनता के मिजाज़ में बदलाव विचारधारा में भी हुआ है। उक्त दल का सिद्धांत केवल सत्ता है न कि जाति। कांग्रेस विगत में विभिन्न जातीय समीकरण बनाने की कोशिश कर चुकी है, मसलन, उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम, आंध्र प्रदेश में रेड्डी-दलित-मुस्लिम, कर्नाटक में अल्पसंख्यक-पिछड़ा वर्ग-दलित आधारित ‘अहिन्दा’ नामक युगम, गुजरात में क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुस्लिम का ‘खाम’ नामक प्रयोग, केरल में कांग्रेस ने मुस्लिम और ईसाई दलों से गठबंधन किया है तो और अन्य जगहों पर भी इसी किस्म के समुच्चय बैठाए। इस तमाम प्रयासों के बावजूद, पार्टी सिकुड़ती गई क्योंकि पहचान-आधारित यह राजनीति विपक्ष के लिए प्रतिक्रियात्मक-गोलबंदी के लिए उत्प्रेरक और वैधता प्रदान करने वाली बनी। वास्तव में यह राजनीतिक जरूरत भले हो लेकिन अनाड़ीपन यह मानना रहा कि मुस्लिम पहचान की राजनीति करने से हिंदुत्व संगठनों के एकजुट होने को बल नहीं मिलेगा, लेकिन यही हुआ और वह भी किस कदर!
कांग्रेस इस बार न केवल सत्ताधारियों के प्रति मतदाताओं के मोहभंग की आसान फसल काटने को तत्पर रही है बल्कि जाति-पहचान का कार्ड भी खेलती रही है। शायद यह चाल किसी राज्य में जीत दिला भी दे, जहां उसने जाति-आधारित जनगणना करवाने का वादा किया हो। शायद आगे राष्ट्रीय स्तर पर भी पिछड़ी जातियों की पहचान आधारित राजनीति करने की कोशिश इस उम्मीद में करे कि इससे हिंदुत्व के घेरे में सेंध लग सके। खैर, जिस तरह मुस्लिम कार्ड ने हिंदू-कार्ड को वैधता दी थी और हिंदू वोट बैंक बना डाला, जोकि 1990 के आखिरी सालों तक भी किसी की कल्पना में नहीं था, ठीक वैसे ही जातीय-पत्ता भी धार्मिक एजेंडे को वैधता देने में प्रभावी हो सकता है– यह दोनों ही पूर्व-आधुनिक समूह बनाने के संकेतक हैं।
मसलन, आंध्र प्रदेश की राजनीति में रेड्डी समुदाय की बहुसंख्या से केवल ‘काम्मा’ उद्भव को वैधता मिली है, यह ठीक वही है जब उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में हुए गैर-यादव पिछड़ी जाति सशक्तीकरण ने यादवों के विजय रथ को पलट डाला था या फिर कर्नाटक में लिंगायतों का मजबूत बनना अन्य सामाजिक गठबंधनों पर भारी पड़ गया। पिछड़ी जातियों का आरक्षण कोटा 27 फीसदी से बढ़ाकर 42 प्रतिशत या 50 प्रतिशत करना या फिर सरकारी नौकरियों में पिछड़ों और दलितों का कोटा 90 फीसदी करने वाला जुमला केवल एक चुनाव में चल पाएगा, बस इतना ही। तथापि इस नारे को भी किसी भरोसे योग्य पिछड़ी जाति के नेता द्वारा उठाए जाने की जरूरत हाेगी। हालांकि, इस नारे का कुल प्रभाव सत्तासीनों के प्रति मतदाता के मोह या मोह-भंग की मात्रा पर निर्भर करेगा। लेकिन इस नारे की स्वीकृति में पेंच है कि यह तभी प्रभावशाली होगा जब पिछड़ी जाति के अब तक न आजमाए किंतु भरोसे काबिल नेता द्वारा उठाया जाए।
तथाकथित ‘मंडल मसीहा’ वीपी सिंह भी राजीव गांधी को केवल जाति-कार्ड खेलकर नहीं हरा पाए थे– लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटों वाली शक्तिशाली राजीव सरकार का पराभव बोफोर्स तोपों में रिश्वतखोरी के इल्जाम से ही हुआ था। ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ का नारा शुचिता, एक राजकुल से संबंधित इंसान द्वारा व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की छवि की खातिर था। यह विशुद्ध रूप से तत्कालीन सरकार से मतदाता की नाराजगी को भुनाने की राजनीति थी। सत्ता में बने रहने के खातिर जाति-आधारित राजनीति वाले मंडल-पैंतरे ने सिर्फ संघ परिवार के धार्मिक एजेंडा को वैधता प्रदान की थी। जाति-भावना का तोड़ केवल धार्मिक-भावना है। लिहाजा भाजपा के सांसदों की संख्या 1989 में 85 से बढ़कर 1991 में 120 हो गई। इसी बीच, पिछड़ी जातियों में बहुसंख्यक वर्ग के अब तक गैर-आजमाए और बेदाग नेता जैसे कि लालू यादव और मुलायम सिंह का उद्भव अपने कहे पर अमल करने वाले और नव-राजनीतिक चलन के प्रतीक के तौर पर हुआ।
लेकिन क्या जाति-आधारित जनगणना की बात करने से वक्त को पीछे ले जाया जा सकता है, वह भी उस वंशवादी राजनेता द्वारा जिसका परिवार विगत में उच्च-जाति के नेतृत्व को बढ़ावा देने का प्रतीक रहा है? क्या कांग्रेस के युवराज का प्रधानमंत्री बनने का प्रयास पिछड़ी जातियों के उद्भव को फलीभूत कर पाएगा? यह होना मुश्किल है क्योंकि पहचान आधारित एजेंडे में टकराव की राजनीति अंतर्निहित है, जिसके लिए एक दुश्मन होना जरूरी है– एक अपसंद ‘विजातीय’। उच्च जाति 1990 के दशक के वह ‘विजातीये’ थे जिन्होंने गंगा के मैदान में स्वतंत्रता के बाद से राज किया। उच्च जाति को विजातीय मानने की भावना उस वक्त जाकर घटी जब पिछड़ी जाति, खासकर मुलायम सिंह और लालू के कुनबे, 1989-90 से गांगीय-प्रदेश में सुशासन देने में नाकाम रहे। साथ ही, चुनावी रूप से, संघ परिवार मध्ययुग में कथित उत्पीड़न के प्रतीक वर्ग को भारतीय राजनीति में बतौर ‘विजातीय’ पेश करने में सफल रहा और यहां किसी भी प्रकार की शैक्षणिक या सैद्धांतिक युक्ति यह बताने में असमर्थ है कि एक किस्म की नफरत दूसरे से बेहतर कैसे है। वैसे भी भारतीय गांवों में विशेषाधिकार सापेक्ष है। पुराने वक्त का दमनकारी अचानक सौम्य दिखाई पड़ता है। अधिकांश भारतीय चुनावी क्षेत्रों में, बहुसंख्या रखने वाली जाति की अपेक्षा अन्य सभी जातियों की कुल गिनती सदा कहीं अधिक रहेगी। इसलिए बिना विचारे अधिक गिनती रखने वाले पिछड़े वर्ग की राजनीति उलटी भी पड़ सकती है क्योंकि तब फिर बाकी सब नए ‘वर्चस्ववादी’ को हराने को एकजुट हो जाएंगे। आखिरकार, पिछड़ी जाति जैसा कुछ नहीं है, यह सदा से अमुक जाति बनाम अन्य वाला मामला रहा है।
इसी बीच, भाजपा ने आहिस्ता ने एक अन्य ‘विजातीय’ पेश कर दिया– भ्रष्ट राजनेता। छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावी प्रचार में क्रमशः मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और सीएम अशोक गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत के कथित भ्रष्टाचार को तुरुप का पत्ता बनाया गया। यदि सत्तासीन दल के प्रति लोगों का झुकाव बरकरार हो, तो ऐन चुनाव के वक्त पर प्रवर्तन निदेशालय के छापे और विपक्षी प्रचार प्रभावहीन रहता है। और इसी में भारतीय लोकतंत्र की मजबूती निहित है।
फिर, हवा में रस्सी खड़ा करके उस पर चढ़ने वाले भारतीय जादुई करतब में प्रभाव सदा किसी जादूगर या फ़कीर का रहा है न कि रस्सी या जमूरे का। फिर इस पहचान की कलाकारी के लिए एक माहिर बाजीगर की जरूरत है जिसके बिना साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री कार्यालय की कुर्सी तक रस्सी का छोर नहीं पहुंच सकता।

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लेखक प्रधान संपादक हैं।

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