For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

बस पतंग लूटनी है!

04:00 AM Jan 12, 2025 IST
बस पतंग लूटनी है
Advertisement

मां, मौसी, पिता जी और अन्य रिश्तेदार फूट-फूट कर बिलख रहे थे। अभि की चिता को मुखाग्नि देते हुए मुझे लगा कि मैं चरखी पकड़े खड़ा हूं। वह पतंग की तरह उड़ा जा रहा है-नीले आकाश में। बादल घिर आए हैं। ठंडी तेज हवाएं चल पड़ी हैं। पक्षियों का दल, मांझे के कटने के डर से पतंग से बचकर बिखरे और आगे बढ़कर फिर एक हो गये। तभी एक पतंग कहीं से कटकर, लहराती हुई आई और अभि की जलती चिता के पास गिरी।

Advertisement

डॉ. यश गोयल
ज्यादा नहीं सिर्फ एक साल पुरानी बात है ये! अभिषेक का मैं दोस्त नहीं था। पर था किसी दोस्त से कम भी नहीं। ग्लास-फैक्टरी की एक बड़ी दुर्घटना के समय अभिषेक के पिता जी के दोनों पैर हमेशा के लिये निष्क्रिय हो गये तो उसके परिवार ने उनकी देखरेख और सेवावृत्ति के लिये रखा था। मेरा कार्य उसके पिता जी के सुबह उठने से रात उनके सोने तक रहता था। शुरू में अभि मायूस रहता था। मुझसे बोलता नहीं था। रूठा रहता था। मैं उसे देखता या पुकारता तो वह मुंह फेर लेता था।
‘जब से वह इस घर में आये हैं, आप दोनों मुझे आवाज नहीं लगाते। कोई काम नहीं बताते। हमेशा कहते हैं-पढ़ाई करो। खाओ पीओ। खेलो कूदो-दोस्तों के साथ। और उसे सदा पिताजी के साथ रखते हो।’ अभि ने भरे गले से कहा तो मां ने उसे समझाया, ‘तुम अभी छोटे हो पढ़ाई पर ध्यान लगाओ।’
‘ये नंदन भैया भी तो पढ़ रहे हैं। इन्हें भी तो कॉलेज की पढ़ाई करनी होती है।’ अभि ने टोका तो मां ने फिर समझाया, ‘तुम्हारे पिताजी को सदा के लिये मदद की, हैल्पिंग हैण्ड की जरूरत है। नंदन कॉलेज में पढ़ाई भी करेगा और घर में रहकर पिताजी का हर तरीके से ध्यान रखेगा। तुम्हारी भी तबियत कभी-कभी गड़बड़ा जाती है। अच्छा होता कि तुम नंदन को अपना दोस्त समझो। इसमें कोई बुराई भी नहीं। ऊपर छत पर टीनशैड वाले कमरे मंे उसके रहने की व्यवस्था कर दी है। तुम उसके साथ खेल सकते हो।
धीरे-धीरे अभि को समझ आने लगा कि मैं सबके भले के लिये हूं। फिर भी वह मेरे करीब नहीं आ रहा था। वैसे भी मेरा इस घर में रहना अभि के पिताजी की सेवा के लिये था, जिन्हें मैं भी पिता जी पुकारने लगा था। छोटे से घर में हॉल से घूमकर ऊपर जाती सीढ़ियों के पास अभि का कमरा है। उसे मकर संक्रान्ति पर पतंग लूटने और लूटी हुई पतंगों को दुरुस्त कर उड़ाने का जुनून है।
सुबह-सुबह ठंड भरे हॉल मंे धूप की किरण घुसकर उजाला कर गयी। पिता जी अधलेटे अखबार की सुर्खियां देख रहे थे। रसोई घर में अभि के लिये मां नाश्ता तैयार कर रही थी। तभी स्टूल उलटने की आवाज के साथ अभि की चीख हॉल में गूंज गयी, ‘मां, मरा रे। पकड़ो... सम्भालो!’
रसोई से मां दौड़ी उसके कमरे की तरफ, ‘क्या हुआ?’ उसके कमरे में पहंुचते ही मां ने मुझे पुकारा, ‘नंदन जल्दी आ! भैया गिर गया है।’ मैं कमरे में पहंुचकर दंग रह गया कि कमरे की तीनों दीवारों की प्रत्येक कील पर लूटी हुई पतंगें लटकी थीं। टांड पर पतंगें, हाथ निर्मित मांझा, आटे की लोई से भरी गोंद जैसी शीशियां और कई लुभावने पोस्टर्स कमरे को नया ‘लुक’ दे रहे थे।
‘उधर क्या देख रहे हो। भैया को संभालो। कुर्सी हटाओ! इसे खड़ा करो। सहारा दो।’ मां ने नंदन को टोका तो उसने अभि के ऊपर पड़ी किताबें-कापियों, पतंगों को हटाया। अभि ने आंखें बंद कर रखी थीं। अपने पैरों को मोड़कर जमीन पर पड़ा था। माथे पर सलवटें थीं। उसकी रुलाई नहीं फूटी, मगर मां अपनी साड़ी के पल्ले से गीली आंखों को सोख रही थी, ‘इतनी क्या जल्दी थी। नंदन को आवाज दे लेता। ये उतार देता पतंगें।’
‘मां तुम क्यों रोये जा रही हो। मेरे को कुछ नहीं हुआ। देख, इस कुर्सी के हत्थे कितने मजबूत हैं। ये दादाजी की कुर्सी थी न। मैं खड़ा हो जाऊंगा। तुम सहारा दो बस।’ कहते-कहते अभि ने हाथ फैला दिये तो मैंने पकड़कर उसे उठा दिया। पर वह तत्काल गिर पड़ा। वह पैरों पर खड़ा नहीं रह सका।
‘कहा था न कि अपना खयाल रखा कर। नंदन इसे किसी तरह उठाकर बिस्तर पर लेटा।’ कहते-कहते मां ने अभि के दोनांे हाथ पकड़े और मैंने शरीर के नीचे का भाग, और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।
‘चुपचाप लेटे रहो। रेस्ट दो-पैरों को। पैनरिलीफ ऑयन्टमेंट मसल देती हूं।’ उसके पांव पर बैठ मां उसे दवा लगा मसाज करती रही। वो सोया तो मां ने आकर पिताजी को कहा, ‘अभि मानता कहां है। गिरने से उसकी हड्डी का दर्द उभर आया है। कितनी बार कहा उसे कि घुटनों पर जोर मत दे वर्ना ‘फैमर’ रोग बिगड़ जायेगा। पहले ही जांघ की हड्डी काफी मुड़ गयी है। दोनों पंजे बाहर की तरफ मुड़ रहे हैं। तिरछे होने लगे हैं। अभी थोड़ा बहुत चल लेता है, इसी तरह चोट लगती रही तो बिस्तर पकड़ लेगा।’
अगली सुबह अभि हिम्मत करके उठा, और टेढ़ी-मेढ़ी चाल से चलने लगा तो मां ने कहा, ‘आज तुम्हें नंदन स्कूल छोड़कर आयेगा। साइकिल चलाकर नहीं, उस पर बैठकर जाओ।’
‘जी पिता जी। मुझे कमजोर मत समझो। मैं भले ही इस ‘जेनूवेलगम’ जिसे ‘लाक्डनीज’ भी कहते हैं, से पीड़ित हूं। यंू हार मानने वाला नहीं हूं। नियमित व्यायाम और दैनिक कार्य करूंगा तो बीमारी पास नहीं फटकेगी। मुझे वकील बनना है पिता जी।’ अपनी बात मनवाते हुए अभि स्कूल चलता बना।
उसके जाने के बाद मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि कल तक जो मुझसे चिढ़ता था। कभी-कभी नफरत भी करता था। एक दम नजदीकी कैसे महसूस करता है? ‘पतंग उड़ायेंगे-संक्रान्ति को। अभी तो लूटेंगे। चलो, उठ खड़े हो ओ।’ कहते हुए उसने स्कूल बस्ते को मेज पर रखा। स्कूल शूज उतार कर स्पोर्ट्स शूज पहन लिये।
‘कपड़े तो बदल लो। नाश्ता कर लो, फिर निकलना,’ मां कहती रह गयी। वह मेरा हाथ पकड़ करके पिछवाड़े खाली पड़े मैदान पर जहां बड़े-बड़े नीम, आंवला, कंटीले बबूल के पेड़ खड़े थे। कच्ची बस्ती के बच्चे लम्बी पतंग कर पेंच लड़ा रहे थे। बहुतेरे छतों पर चढ़े हुए थे। वो काटा, वो काटा की आवाज के साथ माहौल गर्माया हुआ था। हाथ में लम्बा बांस पर कंटीला झाड़ लिये वह दौड़ पड़ता था। चूंकि अभि लम्बे कद का था, मोहल्ले और बस्ती के बच्चे चिल्लाते थे, ‘अबे ओ अभि। पहले ही टांग टेढ़ी हैं। दौड़ेगा तो उलटे मुंह गिरेगा।’ ये सुनते ही मुझे गुस्सा आया तो अभि ने टोका, ‘चिन्ता मत कर। ये बकवास करेंगे। हमें पतंग लूटनी है। इनकी परवाह मत कर।’
‘ये ले दूध पी ले। बहुत मेहनत की है तुमने। थक गया होगा।’ मां ने उसके माथे से सहलाते हुए आगे कहा, ‘छत खुली पड़ी है। चाहे जितनी उड़ा, काट, कटवा अपनी पतंगें। बाहर जाकर बस्ती के लड़कों के साथ पतंग लूटना शोभा नहीं देता।’
‘इसमें क्या मेहनत खर्च हुई? बाजार से लाकर उड़ाई गई पतंग से पतंग लूटने का जो मजा है वह जीने का असली संघर्ष जैसा है। आकाश को छू लेने वाली उमंग जितनी पतंगबाज में होती है उससे अधिक-कटी हुई पतंग को लूटते वक्त होती है। मैं पतंग लुटेरा हूं। मैं कभी नहीं चाहता कि पतंग कटे और धूल चाटे। उसकी ऊंचाइयों और मनुष्य के सपनों को मैं सहेज कर रखना चाहता हूं। सपनों के इरादों की उड़ान भी पतंग की तरह आकाश को चूमना चाहती है। वो कटी नहीं, सपने चकनाचूर। यही मेरी जिन्दगी का आदर्श है।’ अभि ने कहते हुए अपने दोनों पैर सीधे करने चाहे मगर वे मुड़े जा रहे थे। जांघ से घुटनों के बीच टेढ़ापन गहरा नजर आ रहा था। मां ने आगे बढ़कर उस पर कम्बल ओढ़ा दिया ताकि पैरों को गर्माहट मिले।
अगले एक-दो सप्ताह ठीक-ठीक गुजरे। बढ़ती हुई ठंड का प्रकोप भी अभि के पैरों के लिये मुश्किलें खड़ा कर रहा था। वह कभी उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो पाता तो कभी अपाहिज-सा बिस्तर में पड़ा रहता। फैमिली डॉक्टर ने चेताया कि अभि को ‘एनिमिक डिसआर्डर’ (खून की कमी) हो रही है। खून की जांच के बाद हिमोग्लोबिन 6-7 आया था। तत्काल शहर के बड़े अस्पताल की इमरजेन्सी में दाखिल कर निर्णय लिया तो अभि रुआंसा हो गया, ‘मां, मकर संक्रांति नजदीक है। मुझे बहुत सारी पतंगें लूटनी हैं। उन्हें उड़ाना भी है। तब तक मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल जायेगी न?’
‘बिल्कुल मिलेगी। एक-दो दिन में इलाज करवाकर घर लौट आयेंगे। चिंता मत करो तुम। संक्रांति में अभी 25 दिन बाकी हैं। तुम्हारी लूटी हुई पतंगें कमरे में सजी हुई हैं। उन्हें कोई छेड़ेगा तक नहीं। जल्दी से अस्पताल चलो।’ मां तैयार खड़ी थी। पिताजी बिस्तर पर अधलेटे होकर मां को रुपयों की गड्डी थमा रहे थे। मैं दौड़ कर ऑटोरिक्शा ले आया था। मां ने मुझे भी साथ चलने को कहा। तभी अभि ने एक लिफाफा निकालकर मां को दिया, ‘इसे मकर संक्रांति वाले दिन खोलना। जो इसमें लिखा है उसे पूरा करना। वादा करो मां। और नंदन भैया अगर मां भूल जाये तो आप याद दिला देना। मां आपको मेरी कसम, पहले मत खोलना।’
देर रात को ही अभि को आई.सी.यू. में शिफ्ट कर लिया गया। मुंह में ऑक्सीजन की नली, ई.सी.जी. मॉनिटर के तार उसके शरीर से चिपके थे।
अभि ने हमारे से मुझको अपने पास बुलाया, फुसफुसाकर पूछना चाहा कि उसे और क्या रोग हो गया है। नंदन अभि को कैसे कहता कि उसे किडनी फेलियर हुआ है। उसे रात में डायलेसिस पर रखा गया था। अब हालत जरा नियंत्रण में है। मैंने बढ़कर नंदन से आंखें मिलाईं। कान में पास जाकर कहा, ‘चिंता नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओगे।’
शाम होते-होते अभि की हालत सुधरने लगी। उसे अस्पताल से छुट्टी भी जल्दी मिल जायेगी। ये सुनते ही मां और कम्मो मौसी की आंखों से खुशी के आंसू झलक आये।
मध्य रात्रि अभि की सांस फिर तेजी से चलने लगी। हाथ पैर पटकते और छटपटाते अभि बेहोश हो गया। ई.सी.जी. मॉनिटर, डायलीसिस मशीन, वेंटिलेटर सब एक-एक कर सक्रिय होने लगे। वह बोल नहीं रहा था। आंखों की पुतली स्थिर थीं। वह स्वयं से हाथ पैर भी नहीं चला पा रहा था। दोपहर होते-होते खून की जांच रिपोर्ट भी आ गयी।
‘सीरम में ‘क्रेटनाईन’ लेवल नॉर्मल से कई गुना तथा सीरम यूरिया भी बेतहाशा बढ़ गया था। किडनी सिकुड़ गई। शायद माइल्ड ब्रेन हैमरेज हो चुका है। इन सबसे रिकवर होने में एक-दो हफ्ते लग सकते हैं।’ डॉक्टरों ने मुझे स्पष्ट कहा जिसे मां और मौसी ने भी चुपके से सुन लिया।
लगभग दो हफ्ते बाद एक सुबह ऐसी आई कि अभि ने आंखंे खोलीं। मैंने उसका ऑक्सीजन मास्क टेढ़ा किया तो उसने मां-मां कहा, पिताजी बोलना चाहा। मां को पहचानने की कोशिश की। सभी डॉक्टर्स नर्सिंग स्टाफ दौड़कर आये। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि अभि को होश आ रहा है। अभि ने हाथ के इशारे से कुछ पूछना चाहा। किसी की समझ में नहीं आया, मगर मां ने सावधानी से रखे लिफाफे को निकालकर उसे दिखाया तो उसके होंठों पर मुस्कुराहट कंपकपा गयी। उसने हाथ हिला कर ऐसे कहा कि इसे मकर संक्रांति पर खोलना जरूर। हम सब उसके सिरहाने पर और अधिक सरक आए। दो-तीन दिन इन्ही हालात में कटे।
मकर संक्रांति की पूर्व संध्या थी। उसके गले में थूक अटक गया था जो ‘फैरिंक्स’ में पहुंच कर जम गया। उसकी सांस उखड़-उखड़ रही थी। आई.सी.यू. फिर हरकत में आया। शरीर तपने लगा। आंखों की पुतली फिर स्थिर हो गयीं। हाथ-पैर निष्क्रिय हो चले थे। दिल की मसाज भी की गयी। धीरे-धीरे मशीनें सामान्य रफ्तार पर आ गयी। रात के दो बजे वेंटिलेटर हटा लिया गया।
घर पहुंचते-पहुंचते मकर संक्रांति का सूर्य निकल आया था। मां ने अभि का पत्र खोलकर मुझे दिया। मैंने पढ़ा : ‘मेरी याद में मेरी सारी पतंगें, मांझा, चर्खियां नंदन को दे देना। उससे कहना मेरे कमरे में वह रहे और पिता जी का पूरा खयाल करे। हो सके तो पतंग लूटना न छोड़े।’ पढ़कर मेरी रुलाई फूट पड़ी।
मां, मौसी, पिताजी और अन्य रिश्तेदार फूट-फूट कर बिलख रहे थे। अभि की चिता को मुखाग्नि देते हुए मुझे लगा कि मैं चरखी पकड़े खड़ा हूं। वह पतंग की तरह उड़ा जा रहा है-नीले आकाश में। बादल घिर आए हैं। ठंडी तेज हवाएं चल पड़ी हैं। पक्षियों का दल मांझे के कटने के डर से पतंग से बचकर बिखरे और आगे बढ़कर फिर एक हो गये। तभी एक पतंग कहीं से कटकर, लहराती हुई आई और अभि की जलती चिता के पास गिरी। हम शोक संतृप्त परिवारजन कुछ सोचते, बस्ती का एक बच्चा दीवार फांद कर आया और उठाकर भाग गया।

Advertisement
Advertisement
Advertisement