बटेर : कुदरत की अनूठी रचना
'बटेर’ नाम से लगभग हम सभी भली-भांति परिचित हैं। ‘आधा तीतर आधा बटेर’ एवं ‘अंधे के हाथ बटेर’ जैसे मुहावरों का हम अक्सर इस्तेमाल करते हैं। परन्तु क्या आप को इस अद्भुत पक्षी के बारे में कोई जानकारी है? शायद नहीं। न कभी पढ़ा, न कभी सुना और न ही कभी देखा होगा। आम आदमी को तो छोड़िए, अच्छे-अच्छे पक्षी-प्रेमियों को भी इस अनूठे पक्षी के दर्शन सालों नहीं हो पाते हैं। आइए, आज हम आपको बटेरों की विलक्षण दुनिया में ले चलते हैं। मेजर जन. अरविंद यादव, इनके बारे में कुछ अत्यंत दिलचस्प बातें बता रहे हैं।
‘बटेर, जिन्हें हम अक्सर और पक्षियों के मुकाबले नज़रअंदाज़ कर देते हैं, वास्तव में अद्वितीय विशेषताओं और आचरण वाले आकर्षक छोटे जीव हैं। इन्हें हिन्दी और संस्कृत में कई नामों से जाना जाता है जैसे कि घाघस, बटई, लावक, वर्तक, वर्तका, वर्तकी और वर्तिर। ये दरअसल मोर, मुर्गे और तीतरों के परिवार के सबसे छोटे सदस्य हैं। ये सभी ‘आखेट पक्षी’ कहलाते हैं क्योंकि मनुष्य सदियों से भोजन, पंखों और आखेट के लिए इनका शिकार करता आ रहा है। प्राचीन मिस्र और चीन में लगभग चार हजार सालों से मुर्गों के साथ-साथ बटेरों का पालन भी बड़े स्तर पर किया जा रहा है।
छोटे तीतर की तरह दिखने वाली बटेर मुख्यतः थलचर पक्षी हैं जो ध्रुवीय इलाकों को छोड़कर धरती के हर कोने में पाई जाती हैं। अपने सुदृढ़ क्रम विकास से बटेरों ने स्वयं को हर तरह के वातावरण के अनुकूल ढाल लिया है जैसे कि पहाड़, जंगल, रेगिस्तान, खेत, मैदान, गांव और शहर। छोटा सुगठित शरीर, भूरे रंग का धारीदार आवरण, झुककर तेजी से दौड़ने की निपुणता और दम साध कर स्थिर होने का कौशल इस गोल-मटोल बटेर को अपने वातावरण में लगभग अदृश्य कर देते हैं। ये जमीन के साथ चिपककर खाना ढूंढ़ते हैं और सदैव चौकन्ने रहते हैं। खतरा महसूस होने पर उड़ने की बजाय घास और मिट्टी के ढेलों के बीच दुबक जाते हैं। अत्यंत नजदीक जाने पर फर्राटे से उड़ कर छोटी फर्लांग लेती हैं और जमीन पर उतरते ही दौड़कर छिप जाते हैं। इनके छोटे गोल पंख लम्बी उड़ान की बजाय तेज और छोटे फर्राटे के लिए ही विकसित हुए हैं। बटेर क्षुरण पक्षी हैं अर्थात जमीन खुरच कर भोजन ढूंढ़ने वाले। अतः इनके मजबूत पैरों पर नुकीले नाखून होते हैं। पंजों की पिछली उंगली थोड़ी ऊपर है ताकि दौड़ने में जमीन पर न लगे। चोंच छोटी और थोड़ी घुमावदार होती है, जो इसे बीज, कीड़े और छोटे फलों को खाने में मदद करती है। छोटी चोंच अधिकांश बीजों को खोल नहीं पाती, इसलिए इन्हें निगल लिया जाता है। पतझड़ और सर्दियों में आहार की कमी हरी वनस्पति से पूरी की जाती है।
अलग-अलग उपप्रजातियां प्रजनन की विभिन्न शैलियां अपनाते हैं और भौगोलिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग ऋतुओं में जमीन पर घोसला बनाकर वंशवृद्धि करते हैं। सांप, नेवले, गोह, कुत्ते, लोमड़ी, गीदड़, शिकारी पक्षी एवं मनुष्य सभी की खाद्य शृंखला में होने के कारण इन्हें ऊंची प्रजनन दर कायम रखनी पड़ती है। अतः मादा एक बार में 12-16 अंडे देती है। महीने भर में चूजे निकल आते हैं और पैदा होते ही अपने पैरों पर खड़े हो भोजन ढूंढ़ने लगते हैं। कुछ दिन माता-पिता की सुरक्षा के बाद अलग होकर दो महीने में प्रजनन आरम्भ कर देते हैं। विश्व में बटेरों की 135 प्रजातियां हैं, जिनमें से नौ प्रजाति भारत में पाई जाती हैं। इन में भी पांच बटेर और चार झाड़-बटेर हैं। दो बटेर शरद ऋतु के प्रवासी हैं और चारों झाड़ बटेर स्थानीय।
चिना बटेर, वर्तीर, शकुन्तक
यह एक छोटा, चपल, गोल-मटोल, काला-भूरा धारीदार स्थानीय पक्षी है जो वर्षा ऋतु में प्रजनन के दौरान अपनी अनूठी ‘चिक चिक’ की ऊंची आवाज के लिए जाना जाता है। नर के चेहरे पर काली सफेद पट्टियां और छाती पर तिकोना काला धब्बा इसे एक विशिष्ट पहचान देता है। घास के मैदानों और छोटी फसलों के बीच छिप कर रहती है और खतरा भांपने पर दुबक जाती है। अधिक पास जाने पर छोटी फर्राटेदार उड़ान भरती है।
कपिंजली, नीलकुच बटेर, राज वर्तक
यह सबसे छोटी, रंग-बिरंगी और सबसे सुन्दर बटेर है जो दक्षिणी चीन से लेकर एशिया और आस्ट्रेलिया तक नौ उप-प्रजातियों में पाई जाती है। भारत के दक्षिण और पूर्वी इलाकों का स्थानीय निवासी है।
नर पक्षी को कुदरत ने शानदार अलंकरण किया है। नीला सिर, नीला सीशा, लाल भूरा उदर, काली सफेद गले की पट्टियां और चटक नारंगी पैर देखते ही बनते हैं। मादा सीधी-सादी भूरे रंग की होती है। बाकी आचरण दूसरी बटेरों जैसा ही है।
सामान्य बटेर, घग्गस बटेर, वर्तक, वर्तिका
यह भूरे धारीदार शरीर और सफेद भौंह वाला एक सुन्दर पक्षी है। सफेद ठुड्ढी और गले पर काली पट्टी नर बटेर को और आकर्षक बनाती है। पश्चिमी यूरोप और पूर्वी मध्य एशिया के घास के मैदानों में प्रजनन के पश्चात शरद ऋतु में अफ्रीका और दक्षिण एशिया में प्रवास करते हैं। प्रवासी प्रकृति के अनुरूप ये पक्षी आकार में थोड़े बड़े और लम्बे पंखों वाले होते हैं। नर पक्षी पहले प्रवास करते हैं और मादाएं चूजों के साथ बाद में आती हैं। ऊंची घास और फसलों के बीच इन्हें देखना लगभग नामुमकिन है। अधिकतर आवाज ही सुनी जाती है। खतरा महसूस होने पर बमुश्किल ही उड़ते हैं और थोड़ी दूर पर फिर छिप जाते हैं। शरद ऋतु की समाप्ति पर ये प्रवासी पक्षी अपने प्रजनन क्षेत्रों में वापस चले जाते हैं।
झाड़-बटेर, वर्तीर, वर्तिरिक
झाड़-बटेर दिखते हैं बिल्कुल बटेर जैसे गोल-मटोल परन्तु वास्तव में हैं तीतर-वंशी। आकार में तो छोटे होने के बावजूद ये स्वभाव में बहुत लड़ाकू होती हैं। तीतर की तरह इनके पैरों पर एड़ी के पीछे एक मजबूत कंटक होता है जो हथियार की तरह उपयोग किया जाता है। ये छोटे पक्षी दरअसल तीतर से भी अधिक उग्र, आक्रामक और निडर होते हैं। इनका आवास, आहार, आचरण एवं प्रजनन प्रक्रिया एकदम बटेरों से मिलते-जुलते हैं।
मणिपुर लाव
पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में पाई जाने वाली यह बटेर नम और दलदली लम्बी घास में रहने वाली एक दुर्लभ प्रजाति है। छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे सिकुड़ते आवास स्थान और तेजी से फैलती कृषि भूमि के दबाव के फलस्वरूप यह सुंदर पक्षी लुप्तप्राय हो चुका है। आईयूसीएन संस्था ने कम होती संख्या के कारण इसे ‘संकटग्रस्त’ श्रेणी में रखा है।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक यह पक्षी आमतौर पर देखा जाता था। स्थानीय लोगों द्वारा बड़े स्तर पर शिकार इन पक्षियों के लिए जानलेवा साबित हुआ। साल 1932 से 2006 तक इस बटेर को कभी नहीं देखा गया था। वास्तव में यह पक्षी साक्षात मृत्युलोक से अवतरित हुआ जब जून, 2006 में अनवरुद्दीन चौधरी ने 74 वर्ष बाद आसाम से इसे देखे जाने की पुष्टि की।
गहरे सलेटी ऊपरी शरीर और पीले-भूरे पेट पर काले धब्बे, लाल चेहरा और छोटी पीली भौंह इस की खास पहचान है। मादा का शरीर धूसर और चेहरा सलेटी होता है। अन्य आचरण और प्रजनन आदि के बारे में अधिक जानकारी नहीं है।
गुल्लू, गुंदरा
यह आम तौर पर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में 2500 मीटर की ऊंचाई तक पाई जाने वाली बटेर है। घने जंगलों और रेगिस्तान को छोड़कर इसकी 16 उप-प्रजातियों ने बाकी सभी आवासों में रहने के लिए अपने आप को ढाल लिया है।
ऊपरी शरीर स्लेटी भूरा और नीचे का लाल भूरा है। गले, ठुड्ढी और छाती पर बारीक काली धारियां हैं। पीली सफेद आकर्षक आंखें एवं नीलापन लिए हुए पैर और चोंच अनूठी विशिष्टता प्रदान करते हैं। काले गले और वक्ष वाली मादा नर से बड़ी और अधिक चटकीली होती है।
खेतों और झाड़ियों वाले मैदानों में सुबह-शाम रास्तों में मिट्टी में चरते और रेत स्नान करते देखी जा सकती है। इसकी मोटरसाइकिल जैसी आवाज गहरी और धीमी होती है।
शर्मीले जापानी बटेर की अनूठी दुनिया
यह एक छोटा, सुगठित और शर्मीला पक्षी है। भूरा धारीदार शरीर, हल्का भूरा चेहरा और सफेद लम्बी भौंह एक अच्छा छद्मावरण प्रदान करते हैं। नर पक्षी के वक्ष और गाल गहरे लाल भूरे होते है जबकि मादा के हल्के भूरे वक्ष पर गहरे धब्बे होते हैं।
पूर्वी एशिया के मंगोलिया, बाइकाल, पूर्वी रूस, जापान, कोरिया और पूर्वी चीन इलाकों में प्रजनन करती है और शरद ऋतु में दक्षिण की ओर थाइलैंड, म्यानमार एवं पूर्वी भारत में प्रवास करती है। बाकी आचरण दूसरी बटेरों जैसा ही है। विश्व में सबसे अधिक पालन जापानी बटेर का ही होता है। प्रोटीन भरे मांस के लिए दुनिया भर में इन्हें बड़े स्तर पर पाला जाता है।
दुर्लभ हिमालय बटेर, पहाड़ी वर्तक
भारत में बटेर की एकमात्र पहाड़ी प्रजाति अब शायद विलुप्त हो चुकी है। आखिरी पक्षी मसूरी के आसपास 1876 में देखा गया था। वैसे भी इस पक्षी की जानकारी पश्चिम हिमालय के उत्तराखंड की दो जगहों से ही उपलब्ध है। गहरे रंग के शरीर पर लाल चोंच, आंखों के दोनों ओर सफेद धब्बे, सफेद माथा, लाल पैर, सफेद भौंह और 10 पंखों वाली लम्बी पूंछ इसे अनूठी बनाते हैं।
सुबह या शाम उड़ते हुए एक झलक मिल जाए तो किस्मत है वरना इन का दिखना नामुमकिन था। नरम मुलायम पंखों का आवरण बताता है कि ये पक्षी ठंडे मौसम के अनुरूप विकसित हुए थे। छोटे पंख प्रवास के अनुकूल नहीं हैं परंतु ग्रीष्म ऋतु में ऊंचाई पर छोटी दूरी का प्रवास मुमकिन था।
गैरिक लाव, जंगली लाव
यह छोटा गोल-मटोल बटेर भारतीय उपमहाद्वीप का स्थानिक पक्षी है जो आमतौर पर शुष्क झाड़ीदार इलाकों में पाया जाता है। गेहुंआ भूरा ऊपरी शरीर, काली धारियों भरी सफेद छाती, लाल भूरा सिर, गला और भौंह, लाल पैर और काली भूरी चोंच आवासीय इलाकों में इसे एकदम सही छद्मावरण देते हैं। मादाओं का आवरण कम रंगीन होता है।
ये बटेर 5-25 तक के झुंड में जंगल के रास्तों और घास की लकीरों के बीच बीज, दाने और कीड़े-मकोड़े खाते तथा रेत में अठखेलियां करते देखे जा सकते हैं। खतरे के समय बाकी बटेरों की तरह दुबक जाते हैं और एकदम फर्राटे से उड़ जाते हैं।
प्रजनन काल मानसून के बाद अगस्त से आरम्भ हो कर शरद ऋतु के अंत तक चलता है। नर-मादा हर काल में नया जोड़ा बनाते हैं।
लघु बटेर, पौंड्रक लाव, लोपा, कूणी, कुमारक
बटेरों से मिलती-जुलती एक और प्रजाति है लघु बटेर या लाव। दरअसल, ये केवल दिखने में और हाव-भाव में बटेर तुल्य है वरना इनका कुल एकदम अलग है। लघु बटेर छिछले पानी के पक्षियों के परिवार से हैं। इनके पैरों में अंगूठा और पेट में अन्नपुट थैली नहीं होती। इन पंछियों में मादाएं आकार में बड़ी होती हैं और उनके वक्ष हल्के लाल, सफेद या काले होते हैं। विश्व में इनकी कुल 17 प्रजातियां हैं जिनमें से भारत में तीन पाई जाती हैं। उड़ान की सीमित क्षमता के कारण सभी प्रजातियां स्थानीय हैं। हां, भोजन और आवास के लिए छोटी दूरी की हरकत अवश्य करती हैं।
अधिकतर प्रजनन गर्मियों में होता है पर कुछ प्रजातियां वर्षा ऋतु में सक्रिय होती हैं। प्रजनन से पहले एक विस्तृत प्रेमालाप होता है। मादाएं शरीर को फुलाकर तेज आवाज में पुकारती हैं, पैर पटकती हैं और जमीन खुजाती हैं। नर और मादा एक साथ घूमते हैं, धूल स्नान करते हैं, और एक-दूसरे के पंखों को संवारते हैं। मादा नर को भोजन भी देती है। दोनों कभी कभी घोसला बनाने का नाटक भी करते हैं।
लघु बटेर की अधिकतर प्रजातियों में ‘बहुपतित्व’ प्रजनन प्रणाली का अनुकरण होता है जिसमें एक मादा एक के बाद एक कई नरों से संसर्ग करने के बाद सभी को अलग-अलग अंडों भरा घोसला सौंप देती है। मादाएं बड़ी और चित्रित इसलिए होती हैं ताकि एक से अधिक नरों को रिझा कर प्रजनन की क्रिया कई बार दोहरा सकें। दो सप्ताह में विकसित चूजे अंडों से निकल आते हैं और महीने भर पिता के साये में बड़े होकर स्वतंत्र हो जाते हैं।
पीला गुल्लू, पीत लव्वा
गौरैया से जरा-सी बड़ा यह गोल-मटोल पक्षी केवल भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में पाया जाता है। यह स्थानिक पक्षी आमतौर पर अपने आवासीय इलाकों में ही रहता है परन्तु वर्षा ऋतु में सूखे क्षेत्रों की तरफ चला जाता है।
मादा नर से आकार में थोड़ी-सी बड़ी होती है। नारंगी वक्ष और गर्दन, पीला पेट, सफेद गला और धब्बेदार धूसर ऊपरी शरीर नर के मुकाबले इसे अधिक चटकीला बनाते हैं। रंगों का यह विशेष संयोजन खेत खलिहानों में इसे अदृश्य कर देता है। आकार के विपरीत मादाएं प्रजनन काल में गहरी और ऊंची आवाज निकालती हैं। शेष आचरण दूसरे बटेरों जैसा ही है। शायद इसीलिए इस पक्षी के दर्शन सबसे दुर्लभ हैं। पिछले महीने दिल्ली के द्वारिका के शहरी इलाके में इसका दिखाई देना कोई हर्ष का विषय नहीं अपितु इनसानों द्वारा पशु-पक्षियों के कुदरती आवास पर कब्जा करके उन्हें विस्थापित करने का ज्वलंत उदाहरण है।
पांसुल लाव, पत्थर लाव
लगभग जंगल लाव से मिलता-जुलता छोटा और नाटा स्थानीय पक्षी है जो पश्चिमी भारत के शुष्क कांटेदार झाड़ियों वाले इलाके में पाया जाता है। तीन अलग-अलग उप-प्रजातियां उत्तर पश्चिमी भारत, मध्य भारत और दक्षिण भारत में वितरित हैं। दक्षिण भारत की प्रजाति का नाम जाने-माने पक्षीविज्ञानी डॉ. सालिम अली के नाम पर रखा गया है।
भूरा चित्तीदार आवरण, सफेद छाती व पेट पर काली धारियां, लाल भूरा चेहरा, सफेद भौं, स्लेटी चोंच और नारंगी पैर इस की खास पहचान है। आचरण, प्रजनन और अन्य क्रियाकलापों में ये बाकी लाव पक्षियों के समान हैं।
चित्रित लाव, रंगित लाव
यह बटेरों की सबसे सुन्दर और रंग-बिरंगी प्रजाति है। गहरा चमकीला आवरण, सुर्ख चोंच और पैर, गेरुआ उदर, काला चेहरा, गले पर सफेद पट्टी और सफेद भौंह इसे अनूठा बनाते हैं। दक्षिण मध्य भारत के प्रायद्वीप के पठारों की ऊंचाई पर स्थित घास के मैदानों, चाय बागानों और छोटे जंगलों में पाई जाती हैं। एक उप प्रजाति सतपुड़ा से पूर्वी घाट तक और दूसरी पश्चिमी घाट से सुदूर दक्षिण तक।
प्रायः सुबह और शाम जंगल की पगडंडियों और गाड़ी की लीकों के बीच 6-10 के झुंड में बटेरें भोजन ढूंढ़ती या रेत स्नान करती हुई देखी जाती हैं। खतरा महसूस होने पर अलग-अलग दिशाओं में फर्राटे से उड़ जाती हैं और थोड़ी देर बाद नर हल्की सीटी जैसी आवाज निकाल कर दोबारा से सब को इकट्ठा कर लेता है।
नर पूरी उम्र के लिए जोड़ा बनाते हैं और प्रजनन दिसम्बर से मार्च के बीच होता है। एक बार में दिए गये 6-10 अंडों से दो सप्ताह में चूजे बाहर निकलते हैं और बहुत जल्द उड़ने के लायक हो जाते हैं।
छोटा गुल्लू, गिन्वा लव्वा का जलवा
यह मोरक्को, अफ्रीका, भारत और उष्णकटिबंधीय एशिया से होते हुए इंडोनेशिया तक की स्थानीय निवासी है। यह घास के मैदानों और झाड़ियों वाले जंगलों का एक छोटा और छद्मवेशी पक्षी है जो कीड़े-मकोड़े और बीजों को खाता है। ऊपर से धारीदार रेतीला भूरा , नीचे मटमैला, खाखी चेहरा और स्लेटी पंख पर काली धारियां इसे खेत और मैदानों में अदृश्य बना देते हैं। नर मादा एक जैसे होते हैं और उड़ने की बजाय दुबकना और दौड़ना पसंद करते हैं।
मादा एक गहरी ‘हूम-हूम-हूम’ की आवाज निकालती है और नर ‘केक्क-केक्क-केक्क’ से जवाब देता है। भूमध्यसागरीय क्षेत्र में यह पक्षी गंभीर रूप से संकटग्रस्त है। 2018 में स्पेन द्वारा आधिकारिक तौर पर इस के विलुप्त होने की घोषणा की। वर्तमान में ये केवल मोरक्को में मौजूद है। 2021 में, आईयूसीएन ने भी यूरोप से इसे विलुप्त घोषित कर दिया। 1852 में ‘ग्रेट औक’ के बाद यूरोप में विलुप्त होने वाली यह पहली पक्षी प्रजाति है।
शिकार के खिलाफ मुहिम चलाएं
आज के दौर में लगभग सभी बटेर प्रजातियां आवास स्थान के विनाश, निरंकुश कृषि विस्तार और बड़े स्तर पर अवैध शिकार के खतरों का सामना कर रही हैं। वहीं कुछ एक मानव-परिवर्तित परिदृश्यों को समझकर स्वयं को अनुकूलित करने की जद्दोजहद में हैं। संरक्षण प्रयास या तो हैं ही नहीं और जो थोड़े-बहुत हैं वे भी या तो अनुपयुक्त हैं अथवा मात्र दिखावे के लिए किए जा रहे हैं।
इनके बारे में जानकारी एवं प्रशिक्षण का अभाव तो है ही परन्तु सबसे बड़ी समस्या है वन्य प्राणियों एवं पक्षियों के संरक्षण की ओर उचित मानसिकता और सही नजरिए की जो दुर्भाग्य से हम आम जनता में कभी उत्पन्न नहीं कर पाए। संरक्षण विधियां पशु-पक्षियों पर केंद्रित करने की बजाय उनके उपयुक्त आवासों को संरक्षित करने और शिकार प्रथाओं पर अंकुश की ओर होनी चाहिए। वन्य प्राणियों एवं पक्षियों के संरक्षण की ओर जनता में जागृति लाने का कार्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए हमें प्राथमिक शिक्षा से लेकर पीएचडी तक के पाठ्यक्रम में वन्य प्राणियों एवं पक्षियों के संरक्षण को जोड़ना होगा। वन विभाग के कर्मचारियों के प्रशिक्षण को भी पूर्ण रूप से बदलने की आवश्यकता है।
आम जनता, खासकर ग्रामीण आबादी एवं जनजातियों को वन्य सरंक्षण का सांस्कृतिक महत्व समझाना भी जरूरी है ताकि शिकार के खिलाफ मुहिम चलाई जा सके। निष्कर्ष यह है कि जबरदस्ती की बजाय समावेशी रणनीति अपनाने की आवश्यकता है ताकि आम लोग इस क्रांति का हिस्सा बन सकें।
बटेर केवल छोटे पक्षी नहीं हैं बल्कि दुनिया भर के पारिस्थितिक तंत्र के अभिन्न अंग हैं। ये अनूठे पक्षी हैं जिन्होंने सदियों से मानव को आकर्षित किया है। अपने विविध अनुकूलन से लेकर पारिस्थितिक भूमिकाओं और सांस्कृतिक महत्व तक, बटेर वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक अध्ययन और संरक्षण प्रयासों का विषय बने हुए हैं। इन पक्षियों को समझना और उनका सरंक्षण करना जैव विविधता और प्राकृतिक दुनिया के बारे में और जानने के हमारे उद्देश्य की ओर एक सशक्त कदम होगा।प्रवास के दौरान भूमध्य सागर पार करते समय मिस्र और सिनाई में इन बटेरों का बंदूक और जाल से अन्धाधुंध शिकार किया जाता है। पिछले साल मिस्र में एक करोड़ से अधिक बटेरों को बेरहम इनसानों ने मार डाला था। भारत में गुजरात, मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, हरियाणा व हिमालयी तलहटी में देखा जा सकता है। इन्हें ढूंढ़ना अत्यंत कठिन है।