पाठकों के पत्र
न्याय व्यवस्था की साख
सत्ताईस मार्च के दैनिक ट्रिब्यून में प्रमोद जोशी का लेख ‘जरूरी है न्याय व्यवस्था की साख कायम रखना’ पढ़कर यह महसूस हुआ कि हाल के समय में न्यायपालिका को लेकर सवाल उठने लगे हैं। कई बार ऐसा लगता है कि न्यायिक फैसले सरकार के दबाव में दिए जाते हैं। न्यायपालिका को स्वतंत्र और बिना किसी दबाव के काम करना चाहिए। हाल ही में दिल्ली में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के घर मिली जलती नोटों की गड्डियां ने इन सवालों को और गहरा किया है। न्यायपालिका और विधायिका को मिलकर सुधारों की पहल करनी चाहिए।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़, रेवाड़ी
बुजुर्गों को हक
तमिलनाडु हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने बुजुर्गों को नया संबल दिया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि संतान या उत्तराधिकारी बुजुर्ग माता-पिता की सेवा और देखभाल में लापरवाही करें, तो बुजुर्गों को अपनी दी हुई संपत्ति वापस लेने का पूरा अधिकार होगा। एक बुजुर्ग महिला ने बेटे को गिफ्ट डीड द्वारा संपत्ति दी, लेकिन बेटे की मृत्यु के बाद बहू ने दुर्व्यवहार किया। अदालत ने महिला के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि सेवा और सम्मान के अभाव में गिफ्ट डीड रद्द की जा सकती है। यह फैसला बुजुर्गों के सम्मान और आत्मसम्मान की रक्षा में मील का पत्थर है।
आरके जैन, बड़वानी, म.प्र.
बोझ जनता पर
संपादकीय ‘माननीयों का मानदेय’ में उल्लेख है कि लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों तथा पूर्व सांसदों के वेतन में वृद्धि की गई है, साथ ही उन्हें कई मुफ्त सुविधाएं जैसे कार्यालय, सत्कार, यात्रा, ईंधन, इंटरनेट, बिजली, पानी, और विदेशों में इलाज की सुविधा मिलती है, जिसका बोझ जनता पर पड़ता है। यह ध्यान देने योग्य है कि ऐसी सुविधाएं आम जनता को नहीं मिलतीं, जबकि प्रजातंत्र में शासन जनता का है। सरकार से मुफ्त अनाज प्राप्त करना 80 करोड़ लोगों के लिए गर्व की बात नहीं, बल्कि शर्म की बात है।
बीएल शर्मा, तराना, उज्जैन