पाठकों के पत्र
नया साल, नए संकल्प
एक जनवरी के दैनिक ट्रिब्यून में सम्पादकीय लेख में ‘संकल्पों का नया साल में ऐसा हो जीवन कि न रहे कोई मलाल’ तार्किक लगा। कोई साल अच्छा-बुरा नहीं होता, उसके दौरान उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां उसकी दशा-दिशा तय करती हैं। नया साल हमें आत्ममंथन का एक अवसर भी देता है। पिछले वर्ष के घटनाक्रम व उपलब्धियों का मूल्यांकन करने और असफलताओं से सबक सीखकर आने वाले वर्ष के लिए नीतियां बनाने के लिए। अधिकतर हम अपने संकल्पों की कसौटियों पर खरे नहीं उतरते हैं। परन्तु प्रयास किया जाना भी महत्वपूर्ण है। वास्तव में हमें नये साल में अपने व परिवार की खुशियों के साथ देश व समाज की खुशियों के लिए भी संकल्प लेना चाहिए।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़
खिलाड़ियों को प्रोत्साहन
सरकार ने देश के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को पुरस्कार देकर उनका उत्साहवर्धन किया है। मनु भाकर और डी गुकेश को खेल रत्न और 32 अन्य खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार मिला है। जब भी कोई प्रतिभा किसी क्षेत्र में सफलता हासिल करती है, उसकी सराहना जरूरी है। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने से अन्य युवाओं में खेलों के प्रति रुचि बढ़ेगी। यदि राज्य और केंद्र सरकार विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों पर ध्यान दें और चयन प्रक्रिया को मजबूत करें, तो आगामी ओलंपिक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमारे देश का प्रदर्शन और भी बेहतर हो सकता है।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
अपनों की बेदर्दी
दो जनवरी के दैनिक ट्रिब्यून में बलदेव राज भारतीय का संवेदनशील लेख ‘परवरिश के मानदंडों पर सोचने का वक्त’ ने श्रीनाथ खंडेलवाल की पीड़ा का वर्णन किया, जिन्होंने 400 किताबें लिखीं और 80 करोड़ की संपत्ति बनाई, लेकिन वृद्धावस्था में अपने बच्चों से तिरस्कृत होकर वृद्धाश्रम में फेंक दिए गए। उनके बच्चों ने उनकी मृत्यु के बाद भी उनका अंतिम संस्कार नहीं किया। लेख में यह सवाल उठाया गया कि अगर माता-पिता को बुढ़ापे में ऐसा ही व्यवहार सहना है, तो उन्हें बच्चों के लिए कम और अपनी ख़ुशियों के लिए ज्यादा जीना चाहिए।
शामलाल कौशल, रोहतक