नींद
सुभाष रस्तोगी
नींद भी क्या शै है
गड़रिए की तरह हांक कर
ले जाकर/खड़ा कर देती है
जिन्हें जीवन में हमने
कभी देखा ही नहीं होता
नींद भी क्या शै है
गड़रिए की तरह हांक कर
कभी-कभी उस चौरस्ते
पर भी ले जाती है
जहां से एक दिन/तथागत गुजरे थे
इसी चौरस्ते पर एक तरफ
आम्रपाली की पनाहगाह भी
दिखाई देती है
और तभी—
बौद्ध भिक्षुओं का एक दल
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
धम्मं शरणम् गच्छामि
का मंत्रोच्चार करते हुए
इस ही चौरस्ते से गुजरता है।
नींद महाठगिनी—
पता नहीं कैसा मायालोक रचती है
चींटियों के उस
विवर तक ले जाती है
जहां से कभी
आदिम सभ्यता का जन्म हुआ था।
नींद—
तुम जो जादूगरनी
बांसुरी के रंध्र में
ऐसी फूंक मारो कभी
सपने में ही सही/जहां
मेमने भी अपनी मर्जी से जी सकें
और हर पल
कसाई के तेजधार चाकू के वार से
खटाक से गर्दन
जमीन पर गिरने की आशंका से
बार-बार
नींद में न चौंकें
नींद—
मुमकिन हो तो
दुनिया भर के तमाम मेमनों को
एक मुकम्मल बेफिक्र नींद दो।
दुनिया भर के तमाम भेड़ शावकों को
खाल उतारे जाने की चिंता से मुक्ति दो।