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नदियों में स्नान समृद्ध परंपरा का मान

04:00 AM Jan 16, 2025 IST
नदियों में स्नान समृद्ध परंपरा का मान
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शमीम शर्मा

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एक व्यक्ति नदी किनारे से घड़े भर-भर खेतों की तरफ पानी फेंकने लगा तो किसी राहगीर ने पूछा ये क्या कर रहे हो? उस व्यक्ति का जवाब था कि वह अपने उन खेतों को पानी दे रहा है जो यहां से चार मील दूर हैं। राहगीर ने पूछा, अरे पगले! इतनी दूर पानी जायेगा कैसे? सज्जन बोला, जब भक्त लोग सूर्य को पानी देते हैं तो वह करोड़ों मील दूर सूर्य तक पहंुच जाता है जबकि मेरे खेत तो सिर्फ चार मील दूर हैं। बेचारा राहगीर चुपचाप आगे बढ़ चला।
अब कैसे समझाया जाये कि अर्घ्य दिया हुआ जल सूरज तक पहुंचाना आस्था और भक्ति-भाव का प्रश्न है। कुछ कर्म प्रतीक स्वरूप किये जाते हैं। नदियों-तालाबों के प्रति हमारी आस्था उतनी ही पुरानी है जितनी मानव सभ्यता। हमने नदियों को मां तुल्य स्वीकारा है और उसे पूजा है। उसके जल में ताम्बे के सिक्के चढ़ाये जाने की भी परम्परा है। नदियों और कुओं में सिक्के चढ़ाने के पीछे का विज्ञान आज के बुद्धिजीवियों के लिये समझ से परे हो गया है। पर उन्हें कौन बताये कि ताम्बे के सिक्के से पानी की शुद्धता में वृद्धि होती थी। पहले सब लोग नदियों और कुओं का ही पानी पीते थे।
जीवन का प्रमुख तत्व होने के नाते आज इसी जल की तलाश कभी चांद पर हो रही है कभी मंगल पर। अधिकांश भारतीय जब सूर्यदेवता को जल चढ़ा रहे होते हैं तो उसका भाव यही है कि वे सूर्य और जल के प्रति कृतज्ञ अनुभव कर रहे हैं। वैसे एक मान्यता यह भी है कि सूर्य को अर्घ्य देते जल से किरणों को निहारना नेत्रों के लिये गुणकारी है। जिस सूर्य के आगमन से ही चारों दिशाएं स्वर्णिम हो जाती हैं तो उसे क्यों न पूजा जाये?
अब रही बात कुंभ स्नान या अन्य अवसरों पर नदियों में स्नान करने से पाप धुल जाने की, तो यह तय है कि हमारे पापों को धोने की क्षमता किसी जल में नहीं हो सकती। पर नदियों पर न जाना, न नहाना, उन्हें न पूजना वृहद पाप है। हां, इस महापाप से छुटकारा तभी मिल सकता है जब हम नदियों के तटों-घाटों पर जाकर उनके साथ आत्मसात होंगे। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने यह रिवाज बनाया होगा कि नदियों में पवित्र स्नान कर जल, सूर्य और प्रकृति के प्रति नतमस्तक हो जायें। कुछ जल अपने पात्रों में भरकर घर ले जायें ताकि जो जन किसी कारण नहीं आ सके, वे भी उस पवित्र जल से लाभान्वित हों।
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एक बर की बात है अक सुरजे मास्टर नैं नत्थू तै बूज्झी- हम पानी क्यां खात्तर पीवां हां तो नत्थू बोल्या- क्यूंकि हम पानी खा नीं सकते।

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