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ध्यान की दिव्यता से सच्चा सुख और स्वतंत्रता

04:00 AM Dec 30, 2024 IST

परमहंस योगानंद जी ध्यान को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अभ्यास मानते थे। वह कहते- ध्यान वह दिव्य साधन है, जो हमें भौतिक संसार के भ्रमों से परे ले जाकर सच्ची शांति और आनंद प्रदान करता है।

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डॉ. मधुसूदन शर्मा
गोरखपुर, भारत की वह पावन भूमि, जहां की मिट्टी में योग, ध्यान और तपस्या की सुवास बसी हुई है। महान योगी बाबा गोरखनाथ ने इसी भूमि को अपनी तपस्थली बनाया। साधना के इस दिव्य वातावरण गोरखपुर में, 5 जनवरी, 1893 को भगवती चरण घोष और श्रीमती ज्ञान प्रभा घोष के घर एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। माता-पिता ने उनका नाम भगवान विष्णु के पर्याय रूप में ‘मुकुंद’ रखा। इस असाधारण बालक की आंखों में अद्भुत शांति थी। वह शांत और एकांत स्थानों की ओर आकर्षित होता था। इस उम्र में जहां अन्य बच्चे खेलों और शरारतों में मग्न रहते, वहीं यह बालक योग की मुद्रा में बैठकर ध्यान में लीन हो जाता। मानो उसका मन, जीवन और अस्तित्व का हर स्पंदन ईश्वर के प्रेम और उनकी खोज के लिये ही समर्पित था।
आगे चलकर यही बालक ‘परमहंस योगानंद’ के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने न केवल भारत में, बल्कि संपूर्ण विश्व में क्रियायोग के माध्यम से लोगों को ईश्वर की अनुभूति का विज्ञान सिखाया। उनका मूल मंत्र था-यदि हम ईश्वर को पहला स्थान दें, तो जीवन आनंद, शांति और दिव्यता से भर जाता है।
लाहिड़ी महाशय का आशीर्वाद
परमहंस योगानंद जी के जन्म के कुछ समय पश्चात, जब वह शिशु मुकुंद ही थे, उनकी माताजी उन्हें अपने गुरु, महान योगी श्री लाहिड़ी महाशय के आशीर्वाद के लिए वाराणसी ले गईं। लाहिड़ी महाशय, जिन्हें मृत्युंजय महावतार बाबाजी ने आधुनिक भारत में क्रियायोग के पुनरुत्थान के लिए चुना था, ने नन्हे मुकुंद को अपनी गोद में लिया और उनकी माताश्री से कहा : ‘छोटी मां, तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन बनकर वह अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।’
गुरु की खोज
बाल्यकाल से ही ईश्वर प्राप्ति की तीव्र इच्छा ने युवा मुकुंद को अनेक साधु-संतों और महात्माओं के पास पहुंचाया। वह ऐसे संत की खोज में थे जो उन्हें दिव्य सत्य की अनुभूति करा सके। उनकी यह आध्यात्मिक यात्रा अन्ततः सन‍् 1910 में समाप्त हुई, जब 17 वर्ष की आयु में उनकी भेंट श्री लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी युक्तेश्वर गिरी से हुई। पहली भेंट में ही मुकुंद को यह अनुभव हुआ कि उन्हें वह गुरु मिल गए, जो उन्हें परमसत्य के मार्ग पर ले चलेंगे। श्री युक्तेश्वर के सान्निध्य में उन्होंने अगले दस वर्ष बिताये, जहां उन्हें कठोर किंतु प्रेमपूर्ण आत्मिक प्रशिक्षण मिला। प्रशिक्षण के दौरान ही स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने योगानन्द जी को एक विशेष दायित्व के लिए चुने जाने की बात कही- ‘तुम्हें प्राचीन क्रिया योग के विज्ञान को अमेरिका और सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित करने के लिए चुना गया है।’ सन‍् 1915 में मुकुंद ने कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। फिर उनके गुरु ने उन्हें संन्यास की दीक्षा प्रदान की और उन्हें नया नाम मिला - योगानंद!!
रांची विद्यालय की स्थापना
सन‍् 1917 में योगानंद जी ने लड़कों के लिए एक आदर्श जीवन विद्यालय की स्थापना की। यह शिक्षा क्षेत्र में एक क्रांतिकारी प्रयास था, जहां आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ योग और आध्यात्मिक आदर्शों का समन्वित प्रशिक्षण दिया जाता था। इस विद्यालय का उद्देश्य छात्रों को केवल ज्ञानवान बनाना नहीं था, बल्कि उन्हें आत्मानुशासित, चरित्रवान और ईश्वर प्रेमी व्यक्तित्व के रूप में तैयार करना था। इसी वर्ष परमहंस योगानंद जी ने भारत में क्रियायोग के पवित्र आध्यात्मिक विज्ञान को पुनः जीवंत करने और समूची मानवता के उत्थान के लिए ‘योगदा सत्संग सोसायटी’ की स्थापना की। यह संस्था भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा और ध्यान की विधियों को आधुनिक जीवन के साथ जोड़ने का एक सार्वभौमिक दृष्टिकोण प्रदान करती है।
पश्चिम की यात्रा का दिव्य संकेत
सन‍् 1920 योगानन्द जी की अमेरिका यात्रा के लिए निर्णायक वर्ष साबित हुआ। एक दिन रांची के विद्यालय में गहन ध्यान करते हुए उन्हें एक दिव्य अनुभव हुआ। इस अनुभव में उन्हें स्पष्ट संकेत मिला कि अब समय आ गया है कि वह पश्चिम में जाकर अपने जीवन के उद्देश्य-क्रिया योग के प्रसार एवं आध्यात्मिक जागरण को पूरा करे। इस दिव्य प्रेरणा के अगले ही दिन उन्हें एक अप्रत्याशित निमंत्रण प्राप्त हुआ। बोस्टन में उस वर्ष आयोजित होने वाले धार्मिक नेताओं के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। अपने गुरु से आशीर्वाद लेकर योगानन्द जी ने अपने दिव्य मिशन की शुरुआत की।
योगानंद जी ने अमेरिका के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में अनेक व्याख्यान दिए और भारत के योग विज्ञान तथा ध्यान की विधियों का प्रचार किया। उनके शब्दों में न केवल ज्ञान का प्रकाश था, बल्कि उनका व्यक्तित्व और उपदेश श्रोताओं के हृदयों में गहरी आध्यात्मिक छाप छोड़ते थे। उनके व्याख्यानों में विज्ञान और आध्यात्मिकता का ऐसा संगम था, जिसे सुनकर पश्चिमी समाज के लोग अत्यंत प्रभावित हुए। इस प्रकार, योगानंद जी के अथक परिश्रम और दिव्य प्रेरणा ने पश्चिम में एक आध्यात्मिक जागरण की नींव रखी।
एक कालातीत आध्यात्मिक कृति
सन‍् 1946 में पहली बार प्रकाशित ‘योगी कथामृत’ परमहंस योगानंद जी द्वारा लिखी गई एक ऐसी अद्वितीय आत्मकथा है, जिसे न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में एक आध्यात्मिक क्लासिक के रूप में सराहा गया है। कालांतर में इसका 15 प्रमुख भारतीय उपमहाद्वीपीय भाषाओं और विश्व में पचास से अधिक भाषओं में अनुवाद हो चुका है। इस पुस्तक को 1999 में सदी की 100 सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक पुस्तकों में से एक के रूप में सम्मानित किया गया था। इस पुस्तक में योगानंद जी के जीवन, उनके गुरु की खोज और क्रियायोग की गूढ़ शिक्षाओं का एक समृद्ध वर्णन है।
सच्चे सुख और स्वतंत्रता का स्रोत
परमहंस योगानंद जी ध्यान को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अभ्यास मानते थे। वह कहते-ध्यान वह दिव्य साधन है, जो हमें भौतिक संसार के भ्रमों से परे ले जाकर सच्ची शांति और आनंद प्रदान करता है। वह इस बात पर ज़ोर देते- संसार के अस्थिर और भंगुर स्वरूप में, जहां भय, दुःख और असुरक्षा हर कदम पर विद्यमान हैं, सच्चा सुख और स्थाई शांति केवल परमात्मा में ही निहित है। उन्हीं के शब्दों में- ‘सच्चा सुख, स्थाई सुख, केवल परमात्मा में निहित है, जिसे पाने से बड़ी और कोई भी उपलब्धि नहीं है। उनमें ही एकमात्र सुरक्षा, एकमात्र शरण, सभी प्रकार के भय से मुक्ति संभव है। एकमात्र सच्ची स्वतंत्रता परमात्मा में ही है।

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