धर्म का मर्म
गौतम बुद्ध के एक शिष्य थे भिक्षुक विनायक। शास्त्र आदि पढ़कर वे अहंकार से भर गए थे। कहीं भी लोगों को एकत्र कर ज़ोर-ज़ोर से अपना ज्ञान उड़ेलते और नसीहतें देने लगते। महात्मा बुद्ध एक दिन उन्हें भ्रमण के लिए ले गए। एक स्थान पर उन्होंने गायों के एक झुंड की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘शिष्य, ज़रा गिनकर बताओ कि किस रंग की कितनी गायें हैं।’ विनायक ने ध्यानपूर्वक गिनकर ठीक-ठीक संख्या बता दी। बुद्ध ने मुस्कराते हुए पुनः पूछा, ‘तो क्या अब ये सभी गायें तुम्हारी हो गईं?’ भिक्षुक विनायक चकित होकर बोले, ‘मैं समझा नहीं तात, सिर्फ़ गिन लेने भर से ये गायें मेरी कैसे हो सकती हैं?’ महात्मा बुद्ध ने गंभीर स्वर में कहा, ‘हमारे कर्म भी इन गायों की तरह हैं और धर्म उनका रंग है। जिस प्रकार केवल गिन लेने से ये गायें तुम्हारी नहीं हुईं, उसी प्रकार केवल भाषण देने से सत्कर्म और धर्म के स्वामी नहीं बना जा सकता। धर्म तो तब सार्थक होता है जब हम उसमें संलग्न होकर जीव-प्राणी की सेवा व साधना करें। प्रेम जगाओ, लोगों को केवल सत्कर्म का पाठ मत पढ़ाओ, बल्कि अपने कर्तव्यों का पालन कर उन्हें व्यवहार में लाओ। तभी तुम्हें जीवन के सही अर्थ का बोध होगा।’
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे