मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

दान की प्रतिष्ठा

04:00 AM Dec 23, 2024 IST

मालवा के परमार वंशी राजा भोज के राजकवि ने भोजपुर के मार्ग में एक फटेहाल व्यक्ति को पैदल जाते हुए देखा। जेठ की गर्मी थी। लू के दिनों की तपी हुई हवा चमड़ी को झुलसा रही थी और उस आदमी के पांवों में जूते नहीं थे। कोमल हृदय कवि ने अपने पैरों के जूते निकाल कर उस दुर्दशाग्रस्त को दे दिये। कवि नंगे पांवों जलती हुई दुपहरी में आनन्दपूर्वक चलने लगे। थोड़ी दूर चलने पर एक महावत ने राजकवि को हाथी पर बिठा लिया। संयोग से रास्ते में उन्हें रथ में बैठे हुए राजा भोज मिल गए। भोजराज ने पूछा, 'कविराज, यह हाथी कहां से मिला?' कवि बोले, ‘हे राजन! मैंने अपना जूता दान कर दिया, उस पुण्य से हाथी पर बैठा हूं। जो धन दिया नहीं जाता वह तो व्यर्थ ही है। दान के तुल्य कोई निधि नहीं है। बड़ों से सुना है कि धन की तीन गति होती हैं- दान, भोग और नाश; जो न दान देता है, न खाता है उसकी तीसरी गति होती है।’

Advertisement

प्रस्तुति : राजकिशन नैन

Advertisement
Advertisement