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तोल-मोल बिन बोल से ‘सेल्फ गोल’

04:00 AM Jan 23, 2025 IST

‘सेल्फ-गोल’ से जुड़ी हुई एक बात यह भी है कि हमारे नेता यह भी नहीं समझना चाहते कि उनकी इस तरह की बातें हमारी राजनीति को और अधिक उथला बनाती हैं। चुनावी मौसम में तो यह सच कहीं और अधिक उजागर होकर सामने आता है। क्या-क्या नहीं कहते या क्या-क्या नहीं करते हमारे नेता चुनाव जीतने के लिए!

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विश्वनाथ सचदेव

अंग्रेजी का शब्द है ‘सेल्फ गोल’ यानी अपने हाथों अपनी हार। आजकल यह शब्द कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी के साथ जुड़ा हुआ है। कुछ ही दिन पहले अपनी ही पार्टी के एक कार्यक्रम में बोलते हुए लोकसभा में नेता विपक्ष ने कहा था, हमारी लड़ाई भाजपा से, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। यहां तक तो बात ठीक थी, पर राहुल गांधी यहीं नहीं रुके- पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने आगे कहा, हमारी लड़ाई ‘इंडियन स्टेट’ से है। सत्तारूढ़ दल भाजपा की जैसे कोई मनचाही मुराद पूरी हो गयी। उसने राहुल गांधी की इस ‘तीसरी लड़ाई’ को मुद्दा बना लिया। भाजपा के नेता-प्रवक्ता तो जैसे राहुल गांधी और कांग्रेस के पीछे ही पड़ गये। इंडियन स्टेट से लड़ाई को उन्होंने राष्ट्र के साथ खिलवाड़ निरूपित कर दिया और घोषणा कर दी कि राहुल भारत विरोधी ताकतों के इशारों पर नाच रहे हैं।
क्या सचमुच ऐसी बात है? क्या सचमुच स्टेट का मतलब राष्ट्र होता है? राहुल गांधी जब इंडियन स्टेट से लड़ाई की बात कह रहे थे तो क्या सचमुच उनके दिमाग में भारत राष्ट्र से लड़ाई की बात थी?
राहुल गांधी की इस बात को, आइए पूरे संदर्भ में समझने की कोशिश करें। भाजपा, आरएसएस से लड़ाई लड़ने की बात करते हुए जब उन्होंने इंडियन स्टेट को भी जोड़ा तो स्पष्ट था कि वे शासन के विभिन्न संस्थानों पर भाजपा और संघ के वर्चस्व के संदर्भ में बात कह रहे थे। ‘स्टेट’ से उनका मतलब चुनाव आयोग, सीबीआई जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं जिन पर भाजपा के कब्जे की बात राहुल गांधी ने कही है। यह मामला बयानबाजी तक ही सीमित नहीं है। इसे लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में राहुल गांधी के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई हैं जिनमें कहा गया है कि राहुल गांधी ने भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने का काम किया है। राहुल के इस बयान को संज्ञेय और गैर-जमानती काम भी बताया गया है।
राहुल गांधी तो इस मामले में लगभग चुप हैं, पर कांग्रेस पार्टी भाजपा और आरएसएस के इरादों पर ज़ोर-शोर से हमले कर रही है। कांग्रेस समेत राहुल गांधी का बचाव करने वालों का कहना है कि स्टेट का मतलब राष्ट्र नहीं होता। जब राहुल स्टेट के खिलाफ लड़ाई की बात कहते हैं तो उनका मतलब उन संस्थाओं के खिलाफ लड़ना है जो भारतीय जनता पार्टी के इशारों पर काम करती हैं। कांग्रेस इसे तार्किक मानती है। यदि स्टेट के खिलाफ लड़ने का मतलब राष्ट्र के खिलाफ लड़ाई है तो वे सब राष्ट्र-द्रोही कहलायेंगे जो न्यायालयों में सरकारी आदेशों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। सारे मामले अभियुक्त बनाम स्टेट ही होते हैं। यहां स्टेट का मतलब शासन-तंत्र है, राष्ट्र नहीं।
हां, यह अवश्य हकीकत है कि सामान्य काम-काज, बातचीत में जब हम स्टेट कहते हैं तो इसका अर्थ सरकार ही समझा जाता है। पर इस बात को नजरंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि सरकार का अर्थ राष्ट्र नहीं होता है। भारत राष्ट्र-राज्य और भारत सरकार के बीच के अंतर को समझना ज़रूरी है-- और अक्सर इस अंतर को समझा नहीं जाता।
बहरहाल, हमारे राजनेताओं को यह बात समझनी होगी कि अपनी कथनी और करनी में उन्हें सावधानी बरतने की आवश्यकता है। राहुल गांधी जब स्टेट से लड़ाई की बात करते हैं तो इस बात की पूरी संभावना है कि आम नागरिक लड़ाई को देश के विरुद्ध ही समझे। भले ही यह समझ गलत हो, पर इसका हर्जाना तो भरना ही पड़ता है। राहुल गांधी पहले भी इस तरह के हर्जाने भर चुके हैं, इसलिए उन्हें और अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। राजनीति में, और अन्यत्र भी, विरोधी ऐसी भूलों का लाभ उठाने से नहीं चूकते। और अक्सर इन भूलों की वे भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह बात अभी लोग नहीं भूले होंगे कि कांग्रेस के एक नेता ने प्रधानमंत्री मोदी के संदर्भ में ‘नीची जाति’ की जगह ‘नीच जाति’ बोल दिया था, और तब कांग्रेस को चुनाव में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। सम्बधित नेता दक्षिण भारत के थे और हिंदी बोलने में उन्हें कठिनाई आनी स्वाभाविक थी। विरोधियों ने उनकी इस कमज़ोरी का पूरा लाभ उठाया था। राजनीति के मैदान में असावधानी और कमज़ोरी में कोई विशेष अंतर नहीं होता। इस तरह की भूलें ही ‘सेल्फ गोल’ की भूमिका निभाती हैं। ऐसा ही कारनामा नेता प्रतिपक्ष ने तब भी किया था जब उन्होंने भारत में प्रजातंत्र की मृत्यु की बात कही थी। जनतांत्रिक संस्थानों को कमज़ोर किये जाने को प्रजातंत्र की मृत्यु नहीं कहा जा सकता। अपने वोट से सरकार बदलने की ताकत रखने वाला नागरिक स्वयं को अपमानित ही महसूस करेगा यदि उसे यह कहा जायेगा कि वह अपने मताधिकार का सही उपयोग नहीं कर रहा।
ऐसा नहीं है कि ‘सेल्फ गोल’ सिर्फ नेता प्रतिपक्ष ही करता है। हमारे बड़बोले नेता अक्सर यह अपराध कर बैठते हैं, और इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनसे कभी ऐसा अपराध हो सकता है। यही नहीं, अक्सर हम देखते हैं कि हमारे नेता अपने बड़बोलेपन में ऐसा कोई अपराध करने के बाद बड़ी आसानी से यह कह देते हैं कि उन्हें गलत समझा गया अथवा उनका कहने का तात्पर्य यह नहीं था, अथवा उनकी बात को पूरे संदर्भ में नहीं समझा गया। पर हकीकत यही है कि हमारे नेता जाने-अनजाने ऐसे अपराध कर बैठते हैं और फिर क्षमा मांगने के नाम पर कह देते हैं कि यदि किसी को उनकी बात से चोट पहुंची है तो उन्हें इसका खेद है। माफी वे फिर भी नहीं मांगते, आधा-अधूरा खेद व्यक्त करना ही पर्याप्त समझते हैं।
‘सेल्फ-गोल’ से जुड़ी हुई एक बात यह भी है कि हमारे नेता यह भी नहीं समझना चाहते कि उनकी इस तरह की बातें हमारी राजनीति को और अधिक उथला बनाती हैं। चुनावी मौसम में तो यह सच कहीं और अधिक उजागर होकर सामने आता है। क्या-क्या नहीं कहते या क्या-क्या नहीं करते हमारे नेता चुनाव जीतने के लिए! इन दिनों दिल्ली विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार चल रहा है। हमारे नेता विपक्ष ने एक नया अभियान चलाया है- ‘सबके लिए न्याय और समान भविष्य’ के लिए सफेद टीशर्ट पहनने का अभियान। वे समझ रहे हैं महात्मा गांधी की खादी की तरह उनकी टीशर्ट भी संघर्ष की वर्दी बन जायेगी। इसका राजनीतिक लाभ क्या मिलेगा, पता नहीं, पर बचकानी लगती हैं इस तरह की कोशिशें। देश का नागरिक ठोस मुद्दों वाली राजनीति चाहता है, और दुर्भाग्य से, यही ठोस मुद्दे इसमें दिख नहीं रहे। यह बात हर राजनीतिक दल पर लागू होती है। और उन पर भी जो यह दावा करते हैं कि वे राजनीति में नहीं हैं, पर राजनीतिक दांव-पेचों में ही उलझे रहते हैं। उनकी यह हरकत भी किसी ‘सेल्फ गोल’ से कम नहीं है। आवश्यकता अपनी ही कथनी-करनी से हार जाने वाली राजनीति से उबरने की है। ठोस मुद्दों की राजनीति कब होगी हमारे देश में? कब हम इस बात को समझेंगे कि स्टेट से लड़ने का मतलब राष्ट्र-द्रोह नहीं होता है, पर मात्र सरकारी संस्थानों से लड़कर पूरी विजय नहीं मिलती। इसके लिए हर मोर्चे पर लड़ना होगा।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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