जैसा कहो, वैसा करो
एक बार दादा माखनलाल चतुर्वेदी किसी कार्य से उज्जैन आये हुए थे। मुक्तिबोध उन दिनों उज्जैन में अध्यापकी करते थे। दोनों सज्जन बस स्टैंड पर खड़े बातचीत कर रहे थे। मुक्तिबोध ने अपने हेडमास्टर के सख्त स्वभाव और रूखे व्यवहार की शिकायत दादा से की। दादा चुपचाप सुन रहे थे तभी अचानक एक अधेड़ व्यक्ति वहां आया। मुक्तिबोध उनसे बड़ी विनम्रता से पेश आकर बतियाने लगे। जब ढलती उम्र का वह व्यक्ति जाने लगा तो वे उसे कुछ दूर तक छोड़ने भी गये। जब वापस लौटे तो दादा ने सहज ही पूछ लिया, ‘भाई, कौन थे ये सज्जन?’ ‘मेरे हेडमास्टर!’ मुक्तिबोध ने जवाब दिया। यह सुनकर दादा के चेहरे पर तनाव उभर आया और बोले, ‘देखो भाई! अभी-अभी तुम इसी आदमी की शिकायत कर रहे थे, किन्तु जब यह तुम्हारे सामने आया तो तुम इसी की आवभगत करने लगे। यह दोहरा रवैया कतई ठीक नहीं। जैसा कहो, वैसा करो और जैसे दिखो, वैसा लिखो।’ दादा की यह सीख मुक्तिबोध आजीवन नहीं भूले। प्रस्तुति : राजकिशन नैन