जब भुलक्कड़ हूं तभी तो सेफ हूं
अंशुमाली रस्तोगी
भूलने लगा हूं। कुछ भी। कैसे भी। हालांकि, अभी यह बीमारी नहीं बनी है फिर भी आदत तो बन ही गई है। आदत मेरे लिए परेशानी का सबब कम दूसरों के लिए ज्यादा हो गई है। कोशिश तो करता हूं, भूली चीज को याद करने की मगर हो नहीं पाता।
एकाध दफा ऐसा भी हुआ है कि दफ्तर को निकलते वक्त उसका ठिकाना ही भूल गया। लोगों से सही पता पूछना पड़ा। फाइल्स रखकर भूल जाता हूं। बॉस के साथ मीटिंग का समय भूल जाता हूं। लंच किया या नहीं प्रायः यह तक भूल जाता हूं। दफ्तर से निकलकर घर जाना भी भूल जाता हूं। सब्जी मंडी में सब्जी वाले को रुपये देना या लेना भी भूल जाता हूं। पिछले हफ्ते तो सब्जी से भरा थैला ही कहीं रखकर भूल आया।
लेकिन अपनी भूल किसी पर भी जाहिर नहीं होने देता। सेकेंड्स में ही मामला संभाल लेता हूं।
भूलना इंसानी फितरत है। यह न हो तो डॉक्टर्स के कितने क्लीनिक बंद हो जाएं। इस पर दिया जाने वाला ज्ञान गर्त में चला जाए। सबको सब कुछ याद रहना भी ठीक नहीं। इसके अपने खतरे हैं। खतरे क्या हैं, इस पर आप सोचिए। बीवी को मेरे भूलने की आदत पता है, मगर इसको लेकर हमारे बीच कभी विवाद इसलिए नहीं होता क्योंकि भूलने में वो मुझसे कहीं अधिक परफेक्ट है। मियां-बीवी के बीच ऐसी समानता हालांकि बहुत कम सुनने में आती है पर हमारे बीच है। अच्छा ही है, नहीं तो इस मसले पर झगड़े तलाक तक पहुंच जाते।
भूलने का जिक्र जब छिड़ता है, उमर शरीफ याद हो आते हैं। साथ याद हो आता है, ‘बकरा किस्तों पे’ में उनका प्रोफेसर निजामी का किरदार। एक प्रोफेसर जिसे भूलने की बीमारी थी। जो अक्सर ही पड़ोसी के घर को अपना घर समझकर घुस जाया करता था। फिर वहां से भगाया, दुत्कार जाया करता था। भूलने की बीमारी पर प्रोफेसर की बीवी उससे झगड़ बैठती थी। वही भुलक्कड़ प्रोफेसर जब संजीदा होकर दुनिया-समाज को आईना दिखाता था, तब दिल भर आता था। उस भूलने का क्या कीजिएगा, जिसे हम जानकर भुलाने में लगे हैं। आपसी रिश्ते भुला दिए। मिलना-जुलना भुला दिया। अपने गांव, अपने शहर, अपने इलाके को भुला दिया। विदेश में बसकर मां-बाप तक को भुला दिया। अब तो लोग किताबें पढ़ना भी भुला चुके हैं। सोचता हूं, भूलने की आदत में थोड़ा सुधार करूं। चीजें याद रखा करूं। अभी उम्र ही क्या है। इस तरह भूलता रहा तो एक दिन कहीं खुद को ही न भूल जाऊं कि मैं क्या हूं, कौन हूं?
साथ, यह भी सोचता हूं, अगर मुझ जैसे भूलने वाले दुनिया-समाज में कम हो जाएंगे तो बेहतर याद्दाश्त वालों का क्या होगा? उनके दिमाग पर तो भयंकर संकट आन खड़ा होगा। सबको जब सब याद रहेगा तो समाज-परिवार में झगड़े-टंटे कितना होंगे; कभी विचार कीजिएगा इस पर। इसीलिए मेरा थोड़ा-बहुत भुलक्कड़ बना रहना ही ठीक है। भुलक्कड़ हूं तो सेफ हूं।