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चालीस साल बाद भी हरे हैं हादसे के जख्म

04:00 AM Dec 03, 2024 IST
चालीस साल बाद भी हरे हैं हादसे के जख्म
भोपाल गैस त्रासदी
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योगेश कुमार गोयल

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दो-तीन दिसम्बर, 1984 की रात भोपाल में हुई गैस त्रासदी एक भीषण औद्योगिक दुर्घटना थी, जिसमें यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) से निकली ज़हरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली। यह घटना दुनिया की सबसे बड़ी और हृदयविदारक औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक मानी जाती है, जिसके घाव आज भी लोगों के दिलों में हैं। भोपाल गैस त्रासदी से लाखों लोग प्रभावित हुए और दुर्घटना के कुछ ही घंटों में हजारों की मौत हो गई। यह दिल दहलाने वाला सिलसिला केवल उस रात तक सीमित नहीं रहा, बल्कि कई वर्षों तक जारी रहा, जिससे अनगिनत लोग शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित हुए।
भोपाल गैस कांड को 40 साल बीत जाने के बाद भी इसके प्रभाव पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाए हैं। पीड़ित परिवारों को अतिरिक्त मुआवजा देने का मामला अभी भी लटका हुआ है। गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले चार संगठनों ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर की, जिसमें प्रत्येक पीड़ित को 5 लाख रुपये मुआवजा देने की मांग की गई है।
भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन के अनुसार, याचिका में गैस पीड़ितों को कैंसर और किडनी जैसी गंभीर बीमारियों के लिए अतिरिक्त मुआवजा देने की मांग की गई है, जिसमें वे लोग भी शामिल हैं, जो अभी भी गैस के प्रभाव से शारीरिक क्षति झेल रहे हैं। 12 जनवरी, 2023 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने केन्द्र सरकार से कहा था कि मुआवजा देने के लिए अन्य किसी पर निर्भर रहने के बजाय अपनी जिम्मेदारी निभाए और अपने संसाधनों से मदद करे। अदालत ने यह भी सवाल उठाया कि केन्द्र सरकार यूनियन कार्बाइड कम्पनी का इंतजार क्यों कर रही है।
भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए हजारों लोगों व जानवरों के अलावा आसपास के पेड़ भी बंजर हो गए। शोध से यह तथ्य सामने आया कि गैस पीड़ितों की बस्ती में रहने वालों में किडनी, गले और फेफड़ों का कैंसर 10 गुना अधिक पाया गया। साथ ही इस बस्ती में टीबी और पक्षाघात के मरीजों की संख्या भी काफी ज्यादा है। इस त्रासदी से जो लोग जिंदा बचे, वे विभिन्न गंभीर बीमारियों के शिकार होकर जीवित रहते हुए भी पल-पल मरने को विवश हैं। विषैली गैस के सम्पर्क में आने वाले लोगों के परिवारों में इतने वर्षों बाद भी शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे जन्म ले रहे हैं।
भोपाल में यूसीआईएल के कारखाने का निर्माण वर्ष 1969 में हुआ था, जहां ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ (मिक) नामक पदार्थ से कीटनाशक बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। वर्ष 1979 में मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) के उत्पादन के लिए एक नया कारखाना खोला गया, लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के समय तक उस कारखाने में सुरक्षा उपकरण खराब थे और सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जा रहा था। टैंक संख्या 610 में निर्धारित मात्रा से ज्यादा गैस भरी हुई थी, और उसका तापमान 4.5 डिग्री के बजाय 20 डिग्री था। पाइप की सफाई करने वाले वेंट भी बंद थे, और बिजली बचाने के लिए कूलिंग के लिए बनाए गए फ्रीजिंग प्लांट को बंद कर दिया गया था।
तीन दिसम्बर, 1984 को इस कार्बाइड फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ, जिसका एक प्रमुख कारण यह था कि टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के साथ पानी मिल जाने से रासायनिक प्रतिक्रिया हुई, जिसके परिणामस्वरूप टैंक में दबाव बना और उसका तापमान 200 डिग्री से ऊपर पहुंच गया। इससे धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व उड़ गया, और जहरीली गैस तेजी से पूरे वायुमंडल में फैल गई। अचानक हुए इस गैस रिसाव से बने गैस के बादल हवा के झोंकों के साथ फैल गए, और जो लोग उसकी चपेट में आए, वे मौत की नींद सोते चले गए।
जिन लोगों के फेफड़ों में गैस की अधिक मात्रा सांस के माध्यम से पहुंची, वे सुबह तक जीवित नहीं रहे। बहुत सारे लोग ऐसे थे जिन्होंने नींद में ही अपनी आखिरी सांस ली। दुर्घटना के चार दिन बाद, 7 दिसम्बर 1984 को यूसीआईएल के अध्यक्ष और सीईओ वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी हुई, लेकिन विडंबना यह थी कि इतने भयानक हादसे के मुख्य आरोपी को महज छह घंटे बाद, 2100 डॉलर के मामूली जुर्माने पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद, वह भारत छोड़कर अपने देश अमेरिका भाग गया। भारत में उसे सजा दिलवाने के लिए लगातार मांग उठती रही, लेकिन भारत सरकार अमेरिका से उसका प्रत्यर्पण कराने में विफल रही।
29 सितंबर, 2014 को वारेन एंडरसन की मौत हो गई। इस हादसे से पर्यावरण को ऐसी क्षति पहुंची, जिसकी भरपाई सरकारें आज तक नहीं कर पाई हैं। सरकारों का रुख इस पूरे मामले में संवेदनहीन ही रहा है। रिपोर्टों में इस क्षेत्र में भूजल प्रदूषण की पुष्टि होने के बाद भी सरकार द्वारा जमीन में दफन जहरीले कचरे के निष्पादन की कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई है।
इस भयावह भोपाल गैस त्रासदी के बाद हजारों टन खतरनाक अपशिष्ट जमीन में दबाया गया था। सरकारों ने भी यह स्वीकार किया है कि यह क्षेत्र अब भी दूषित है। गैस रिसाव के लगभग आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त मान लिया गया था, लेकिन सच्चाई यह है कि 40 वर्षों बाद भी भोपाल उस भयावह हादसे से पूरी तरह उबर नहीं पाया है।

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