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घटिया बयानबाजी का मुखर विरोध जरूरी

04:00 AM Jan 09, 2025 IST
घटिया बयानबाजी का मुखर विरोध जरूरी
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किसी भी राजनेता को कुछ भी कहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसी स्थितियां बनानी होंगी कि राजनेता कुछ भी कह देने से पहले दस बार सोचें। उन्हें लगना चाहिए कि उनके गलत को स्वीकार नहीं किया जायेगा। ऐसा तभी संभव है जब हम जागरूक होंगे– अनुचित को अस्वीकार करने के लिए सन्नद्ध होंगे।

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विश्वनाथ सचदेव

आप क्या कह रहे हैं, से कम महत्वपूर्ण नहीं होता यह कि कोई बात आप कैसे कह रहे हैं। सड़कों को साफ-सुथरा और समतल बनाने का वादा करने वाला कोई राजनेता यदि यह कहे कि वह ‘सड़कों को प्रियंका गांधी के गालों जैसा चिकना बनवा देगा’ तो इसे सिर्फ एक घटिया अभिव्यक्ति मात्र कहकर या समझकर दर-किनार कर देना सही नहीं होगा। दिल्ली के कालकाजी चुनाव-क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार रमेश बिधूड़ी ने अपने चुनाव-प्रचार में जिस तरह कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी का नाम लेकर यह बात कही है, उसकी सिर्फ भर्त्सना ही हो सकती है– और अच्छी बात है कि हो भी रही है। राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित लगाने के बाद इस नेता ने भले ही अपने कहे पर खेद व्यक्त कर दिया हो, पर बात यहीं खत्म नहीं होती है। पहली बात तो यह कि हमारे राजनेता अक्सर इस तरह का खेद भले ही व्यक्त कर देते हों, पर अक्सर यह खेद ऊपरी दिखावा मात्र होता है। अब बिधूड़ी का उदाहरण ही लें– सवेरे वे महिलाओं को अपमानित करने वाली बात कहकर खेद व्यक्त करते हैं और उसी शाम दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि राजनीतिक लाभ उठाने के लिए आतिशी ने अपना पिता तक बदल लिया! हां, यही मतलब है उस बात का जो बिधूड़ी ने कही थी– ‘मारलेना ने अपना पिता ही बदल लिया है। पहले उनका ‘सरनेम’ मारलेना था और अब वह सिंह बन गयी हैं।’ और इस वाक्य के बाद उन्होंने जो कहा वह तो और भी आपत्तिजनक हैं। बिधूड़ी ने कहा, ‘यह है उनकी संस्कृति!’
यह पहली बार नहीं है जब बिधूड़ी ने इस तरह की बात कही है। सात साल पहले भी एक चुनाव-प्रचार के दौरान ही उन्होंने सोनिया गांधी के संदर्भ में संस्कारों की बात कही थी।
हमारे नेता अक्सर खेद व्यक्त करते सुने-देखे जाते हैं, पर कभी किसी को सचमुच में खेद होता हो, ऐसा लगता नहीं। गालों जैसी चिकनी सड़कों वाली इसी बात में देखें तो जब बिधूड़ी से अपनी गलती (अपराध पढ़िए) के लिए क्षमा मांगने के लिए कहा गया तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘लालू यादव ने भी हेमा मालिनी के गालों जैसी सड़कों की बात की थी, पहले कांग्रेस उसके लिए क्षमा मांगे, क्योंकि तब लालू यादव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे!’
यह कैसा बचाव है? दुर्भाग्य से बचाव का यह तरीका हर रंग के राजनेता अपनाते हैं। ‘फलां ने तब ऐसा कहा या किया था, तब माफी क्यों नहीं मांगी गयी?’
फिर, क्षमा मांगने या खेद व्यक्त करने की मांग पर एक बात और कहते हैं हमारे राजनेता। ‘यदि किसी को मेरी बात से चोट लगी है तो मैं खेद व्यक्त करता हूं।’ इन राजनेताओं से पूछा जाना चाहिए कि इस ‘यदि’ का क्या मतलब है। किसी के गालों वाली बात कहकर निश्चित रूप से नारी-जाति के प्रति अपनी घटिया सोच का उदाहरण प्रस्तुत किया है बिधूड़ी ने और उन्हें समझ आना चाहिए कि उनसे गलती नहीं, अपराध हुआ है। इस अपराध के लिए उन्हें बिना किसी शर्त के क्षमा मांगनी चाहिए। ‘यदि’ वाली बात उनके ‘खेद’ को झूठा साबित करती है।
क्षमा मांगना आसान नहीं होता। जब हम क्षमा मांगते हैं तो वास्तव में हम अपने गलत किये का पश्चाताप कर रहे होते हैं। ऐसा कोई पश्चाताप का भाव हमारे राजनेताओं के खेद में कहीं भी दिखाई नहीं देता। एक रस्म अदायगी कर देते हैं वे–और मान लेते हैं कि उनके पाप धुल गये।
पाप धुलते नहीं हैं, बार-बार उजागर होते हैं। बिधूड़ी का सोनिया गांधी के संदर्भ वाला बयान सन‍् 2017 का है। यानी आज से सात-आठ साल पहले का। तब उन्होंने इटली की घटिया संंस्कृति की बात कहकर सोनिया गांधी को कोसा था। वैसी ही महिलाओं के प्रति अपमानजनक सोच वाली बात उन्होंने अब कही है। स्पष्ट है उन्हें किसी प्रकार का पश्चाताप न तब था और न ही अब है। वस्तुतः यह उदाहरण घटिया राजनीति का ही नहीं, घटिया मानसिकता का भी है। और, दुर्भाग्य से, यह मानसिकता हमारी राजनीति में बार-बार उजागर होती रहती है।
अंग्रेजी का शब्द है पॉलीटिशियन। इसके लिए हम राजनेता शब्द काम में लेते हैं। घटिया भाषा और घटिया सोच वाले पॉलीटिशियनों के लिए नेता शब्द उचारते हुए भी मुझे झिझक महसूस हो रही है। घटिया सोच वाला कोई व्यक्ति हमारा नेता कैसे हो सकता है, और क्यों होना चाहिए? क्यों न हम ऐसे नेताओं के खिलाफ अभियान छेड़ें? उनका बहिष्कार क्यों न हो? संसद में आपत्तिजनक बात कहने, भाषा बोलने के लिए जब रमेश बिधूड़ी की भर्त्सना हुई तो भाजपा ने लोकसभा के लिए उन्हें उम्मीदवार न बनाकर यह संकेत दिया कि वह इस तरह के आपत्तिजनक आचरण को स्वीकार नहीं करेगी। अच्छा लगा था यह देखकर। पर अब उसी व्यक्ति को विधानसभा का टिकट देकर भाजपा ने एक तरह से स्वीकार कर लिया है कि लोकसभा के लिए उन्हें टिकट न देना और अब विधानसभा का टिकट देना, दोनों, राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित का परिणाम है। इसका नैतिकता से कोई रिश्ता नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
राजनीति में नैतिकता का न होना, भले ही कैसी भी विवशता क्यों न हो, स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। इसी तरह शालीनता भी राजनीति को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है। नेता वह होता है जो बेहतर आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करे। जिसकी कथनी-करनी पर भरोसा किया जा सके। पिछली संसद में रमेश बिधूड़ी ने एक साथी सांसद के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया था, उसे एक बीमार सोच का परिणाम ही कहा जा सकता है। तब भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने भी इस सोच का विरोध किया था। अब बिधूड़ी ने जिस भाषा में बात की है उसे भी पार्टी के कुछ नेताओं ने गलत बताया है। यह अच्छी बात है। पर यह दिखावा मात्र बनकर अथवा घड़ियाल के आंसू बनकर नहीं रहनी चाहिए। होना तो यह चाहिए की बिधूड़ी जैसे गलत भाषा इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को दिया गया टिकट बीजेपी वापस ले ले। पर ऐसा होगा नहीं। होगा वही जो चुनाव का गणित कहता है। अब तक ऐसा ही होता आया है। बात सिर्फ बिधूड़ी की नहीं है अन्य दलों में भी ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। ये उदाहरण घटिया राजनीति के ही नहीं, घटिया मानसिकता के भी हैं। राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व को भी इस दिशा में सक्रिय होकर राजनीति में शुचिता के लिए स्थान बनाने का ईमानदार प्रयास करना होगा। पर राजनीति और ईमानदारी कहां साथ चल पाते हैं?
पिछले चुनाव में एक साध्वी राजनेता ने महात्मा गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताया तो सारे देश में एक विवाद खड़ा हो गया था। तब प्रधानमंत्री ने कहा कि वह साध्वी प्रज्ञा को कभी दिल से माफ नहीं कर पाएंगे। लेकिन कुछ ही अर्सा बाद भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा को लोकसभा के लिए अपना उम्मीदवार बना दिया! इस उम्मीदवारी को लेकर उन्होंने कुछ नहीं कहा था। नेतृत्व का यह मौन टूटना चाहिए। मुखर होना चाहिए यह मौन।
मौन मतदाता को भी तोड़ना होगा। हर जागरूक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह उस सब का विरोध करे जो राजनीति में गलत कहा या किया जा रहा है। बिधूड़ी जैसे नेता जो कह-कर रहे हैं वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। यह घटिया राजनीति का बड़ा उदाहरण है। इस घटियापन का हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। किसी भी राजनेता को कुछ भी कहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसी स्थितियां बनानी होंगी कि राजनेता कुछ भी कह देने से पहले दस बार सोचें। उन्हें लगना चाहिए कि उनके गलत को स्वीकार नहीं किया जायेगा। ऐसा तभी संभव है जब हम जागरूक होंगे– अनुचित को अस्वीकार करने के लिए सन्नद्ध होंगे। अपने नेताओं से कहेंगे कि चोट पहुंचने वाली बात से बात नहीं बनेगी– बेईमानी वाला खेद कोई मायने नहीं रखता।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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