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गरिमा की चाहत और मर्यादा आहत

04:00 AM Dec 25, 2024 IST
गरिमा की चाहत और मर्यादा आहत
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अशोक गौतम

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जागने की बहुत मशक्कत करता, सोया-सोया जागा ही था कि दरवाजे पर किसी के सिसकने की आवाज सुनी तो परमार्थ लिए भगवान की जगह बीवी का नाम रटता दरवाजा खोल बाहर आ गया। मोक्ष प्राप्त करने वालों का प्रत्यक्ष अनुभव कहता है कि कलियुग में भगवान का नाम लेने से मोक्ष प्राप्ति नहीं मिलती, बीवी का नाम रटने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। तभी तो कई संन्यासी चोरी छिपे बीवियां रखते हैं।
‘कौन?’
‘आह! मैं लुट गई। आह! मैं पिट गई।’
‘तो अबके तुम फिर कहां लुट गई? ऑफिस में?’
‘नहीं?’
‘कॉलेज में?’
‘नहीं!’ तो मैंने उसे सांत्वना देते गुस्साते पूछा, ‘तो अबके कहां लुटी?’
‘संसद में’। उसने अपने तार-तार कपड़ों में अपने बदन को छिपाते कहा कि ‘किसी किस्म के आदर्शवादियों पर अब मुझे कतई विश्वास नहीं रहा।’ कह वह मौन हो गई। वह ठंड से कांप रही थी सो पब्लिसिटी के नाते मैंने उसके लिये चाय बनाई। बातों ही बातों में चाय पीते मैंने उससे पूछा, ‘तो हे रूपसी तुम कौन?’
‘मैं मर्यादा!’ उसने सिमटते हुए कहा।
‘जब तुम्हें पता है कि तुम संस्कारी घरों तक में सेफ नहीं तो संसद क्यों गई थी?’
‘सांसदों का तमाशा देखने।’
‘क्या तुम्हें पता नहीं कि आज के वक्त में संसद, राज्यसभा, विधानसभा बोले तो मारधाड़, धक्का-मुक्की वाली जगहों पर जाना उचित नहीं? देखो तो, तुम्हारे चेहरे पर कितनी खरोंचें आ गई हैं? ठहरो! मैं अभी इन पर मरहम लगा देता हूं।’ कह मैं उसके खरोंच वाले चेहरे पर डर-डर कर मरहम लगाने लगा तो वह डरी। उसे डरता देख मैंने एक बार फिर कहा, ‘डरो मत! कहा न! मैं कोई माननीय वगैरह नहीं हूं। मेरे आदर्श पति होने के एग्जांपल देवलोक तक दिए जाते हैं।’ मैंने अनुनय के साथ कहा तो वह मेरी ओर से और बे-डर हुई। तब मैंने उसके चेहरे पर आई खरोंचों पर पूरी ईमानदारी से मरहम लगाते लगाते पूछा, ‘आखिर तुम पता होते हुए भी बार-बार घर से निकलती ही क्यों हो जब तुम्हें पता है कि तुम सड़क से लेकर संसद तक कहीं भी सुरक्षित नहीं?’
‘तो फिर कहां जाऊं? जहन्नुम में?’
‘सच कहूं तो तुम वहां भी सेफ नहीं रह पाओगी, रोज-रोज की जिल्लत से बचने का रास्ता बता रहा हूं। तुमने क्या सोचा था कि तुम प्रतिनिधि सभा में जब तार-तार होंगी तब कोई कृष्ण तुम्हारी रक्षा करने दौड़े-दौड़े आएंगे? यहां अब एक पक्ष में कौरव और दूसरे पक्ष में पांडव नहीं, हर पक्ष में केवल कौरव ही कौरव हैं। बस, सबके मुखौटे अलग-अलग हैं।’ मैंने कहा तो उसने आधी पी चाय वहीं छोड़ी और सिर झुकाए पता नहीं किस ओर चली गई?

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