कालाबाजारी
विभूतिभूषण बंदोपाध्याय
पत्र पाकर मुझे बड़ा क्रोध आया। सुबह की चाय पीकर अभी घर के चैंबर में बैठा ही था कि उसी समय वहां डाकिया आ पहुंचा। घड़ी पर एक निगाह डाली तो देखा अभी आठ ही बजे हैं।
मैंने पूछा, ‘आज इतनी सुबह?’ कहने लगा, ‘अब सुबह कहां रही बाबू। आपके दो मनीआर्डर आए थे। सोचा, पहले आपको दे दूं, फिर कहीं और जाऊं। थोड़ी ही देर में मुवक्किलों की भीड़ होने लगेगी और फिर आपको शायद फुर्सत न मिल पाए। लीजिए, दो हस्ताक्षर कर दीजिए। एक पचास रुपये और दूसरा आठ सौ रुपये व ग्यारह आने का है।’
मुवक्किलों ने ये पैसे कचहरी के खर्च के लिए भेजे थे। विजन मुहर्रिर को बुलाकर कहा, ‘देखो जरा, वादी इस्माइल बदीर और विवादी फजलूल गाजी के केस की तारीख क्या है?’
विजन हमारे यहां वर्षों से मुहर्रिर है- मेरा और मेरे बड़े भाई का। मेरे पूज्य पिताजी के समय से ये यहां हैं। विजन के पिता रामलाल चक्रवर्ती मेरे स्वर्गीय पिता के मुहर्रिर थे। मुझे और मेरे बड़े भाई को इन्होंने अपनी गोद में खिलाकर बड़ा किया है। हमने विजन के साथ बचपन के कई खेल खेले हैं। अब उसे हमारे यहां मुहर्रिरी करते हुए बाइस वर्ष हो चुके हैं। बहुत योग्य और समझदार है।
विजन ने खाता देखकर कहा, ’22 अगस्त। फिर पूछा, ‘इस्माइल ने कितने रुपये भेजे हैं?’
‘आठ सौ रुपये और ग्यारह आने।’
‘मनीआर्डर लौटा दीजिए। हस्ताक्षर हर्गिज न करें बाबू।’
‘क्यों?’
‘आपके चार और कोर्ट फीस के दो रुपये उधार हैं उस पर। वह इसमें नहीं जोड़ा है उसने।’
‘अच्छा ऐसा है क्या?’
‘हां बाबू, यह खाता देखिए।’
मैंने लिख दिया – ‘रिफ्यूज्ड’। दूसरे पर हस्ताक्षर कर दिया और रुपया मुहर्रिर को थमाते हुए कहा, ‘देख लेना।’
तभी वहां भजु नौकर आया और कहने लगा, ‘बाबू! बाजार के लिए पैसे चाहिए थे?’
मैंने कहा, ‘जाओ, बड़े भइया से ले लो।’
‘वे घर पर नहीं हैं। अभी सैर से नहीं लौटे। बहूरानी ने कहा है कि एक-एक सेर मछली और मांस चाहिए आज।’
‘आज फिर से मांस क्यों? खामख्वाह के खर्च। रोज-रोज मांस। ले जाओ पैसे।’ कहकर मैंने विजन को उसे दस रुपये पकड़ाने को कहा और भजु को हिदायत दी कि वह दूध के तीन रुपये भी देता आए।
डाकिए ने हंसकर कहा, ‘आप बड़े लोग हर रोज मांस नहीं खाएंगे तो क्या हमलोग खाएंगे? परमात्मा ने आप ही लोगों को खाने के लिए दिया है। मछली ढाई रुपये सेर हो या तीन रुपये, आपलोग खा सकते हैं। हमें एक रुपया सेर भी मिल जाये तो हालत पतली हो जाती है।’
डाकिया और नौकर चले गए। जाते समय मेरे इशारे पर विजन ने डाकिए को एक सिक्का दिया। तभी दो किसान कक्ष में आते हुए बोले, ‘बाबू सलाम। शरत बाबू वकील का घर यही है?’
‘हां, क्यों?’
‘एक मुकदमा करना है बाबू। अर्जी देनी होगी।’
‘केस क्या है? कहां से आए हैं आप लोग?’
‘बाबू, मेरा घर रायपुर में है और साथ में मेरा यह खाला भाई है। इसका घर नौहाटा में है। हमारा एक आम का बगीचा था। उसे हमारे चाचा हबिबुर शेख ने…।’
तफ्सील से सारा मामला जब वे सुनाने को हुए तो मुवक्किल समझ मैंने उन्हें बीच में ही रोका और मुहर्रिर से कहा, ‘इनका केस सुन लो। तब तक मैं डाक में आए पत्रों को देख लेता हूं और एक सरसरी निगाह अखबार पर भी डाल लेता हूं।’ फिर उनके मुखातिब हुआ, ‘जाओ, तुमलोग उसके पास जाओ और पूरा मामला बतला दो। रुपये साथ लाए हो न?’
‘हां बाबू।’
‘कितने हैं? अर्जी करने की फीस अब छह रुपये लगेंगे। महंगाई बहुत बढ़ चुकी है। चार रुपये में नहीं हो पाएगा।’
‘जो लगेगा, दे देंगे बाबू।’ आगंतुक ने कहा।
मैंने कहा, ‘ठीक है मुहर्रिर के पास उधर चले जाओ।’
उनके वहां से जाने पर मैं डाक में आए पत्रों को देखने लगा। उन्हीं में एक पत्र ऐसा हाथ लगा जिसे पढ़कर मन खिन्न हो उठा। लिखा था – माननीय! हमारा शुभाशीर्वाद बना रहे। यहां सब कुशल-मंगल है। आशा है आपलोग भी कुशलता से होंगे। कई दिनों से आपलोगों का कोई समाचार नहीं मिला। गृह देवता शालिग्राम की पूजा के लिए आप लोग हर महीने जो दो रुपये ग्यारह आने देते आ रहे हैं, सब वस्तुओं की कीमत बढ़ जाने के कारण उसमें थोड़ी मुश्किल आ रही है। एक सेर चावल ही आठ से दस आने में मिल रहा है और हाट में एक पका केला ही लेने जाओ तो एक पैसा देना पड़ रहा है। ऐसी दशा में हर महीने छह रुपये न मिल पाए तो पूजा में व्यवधान उत्पन्न होने की संभावना है। अतः कृपया अगले महीने से छह रुपया भेजा करें। आपके चाचा रामधन चक्रवर्ती जी के पांव में हाल ही में चोट लगी है। थोड़े कष्ट में हैं। वधूमाताओं को हमारा आशीर्वाद देना। आपका नित्याशीर्वादक- हरिसाधन देवशर्मा, वाहिरगाछी, जिला वर्दवान।
थोड़ी देर बाद बड़े भइया सैर से लौटे। उनकी पदचाप सुनाई दी। मैंने विजन से कहा, ‘एक बार बड़े बाबू को यहां बुलाना। शायद अपने कक्ष में चले गए हैं।’
बड़े भइया ने आकर पूछा, ‘क्या बात है?’
मैंने पत्र उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘ये देखिए, हरि भट्टाचार्य ने गांव से पत्र भेजा है और लिखा कि अब हर महीने छः रुपये न भेजने पर वह पूजा नहीं कर पाएगा।’
बड़े भाई ने पत्र पढ़कर भौं चढ़ाते हुए कहा, ‘ओ… तो अब भगवान की पूजा में भी ब्लैक मार्केटिंग होने लगी है। हम दया करके अब तक पैसे भेजते आ रहे थे। पैतृक गांव अब हमारे लिए नाम का है, कभी वहां गए नहीं। अपने सब यहां हैं। यह रुपया बतौर स्टाइपेंड हम दे रहे थे। ठीक है, पूजा नहीं करनी है तो न करे। अगले महीने से एक पैसा भी मत भेजना। जब गृह नहीं तो कैसे गृह देवता?’
ऐसा ही हुआ। दो महीने तक एक पैसा भी नहीं भेजा गया। इस दौरान हमारा कोई पत्र-व्यवहार भी नहीं हुआ। फिर तकरीबन दो माह बाद गांव से अगला पत्र आया – ‘मान्यवर, आप लोगों की कुशलता की कामना करता हूं। आप लोग जो दो रुपये ग्यारह आने पूजा के लिए भेजा करते थे, दो महीनों से उसे न भेजने का कारण समझ में नहीं आया। हम आपके कुलपुरोहित हैं। हमारी दशा दरिद्रों जैसी हो गई है। जो पैसे आप भेजा करते थे, उसके न आने पर पूजा बंद हो चुकी है और हमारा भी गुजारा नहीं हो पा रहा है। चाचा जी अब स्वस्थ हैं। कृपया पैसे भेजें। वधूमाताओं को हमारा आशीर्वाद।’
बड़े भाई को पत्र दिया। वे बोले, ‘भेज दो। अक्ल ठिकाने आ गई है। सारी चालाकियां धरी रह गईं। पूजा में भी कालाबाजारी करने चला था।’
उसी दिन भइया का बड़ा बेटा शुभेन्दु कलकत्ते से लौटा। उसने महंगा धोती-कुरता पहन रखा था। मैंने पूछा, ‘कहां मिली यह पोशाक और कितने में?’
शुभेन्दु प्रेसिडेंसी कालेज का छात्र है। भइया का बड़ा बेटा। बहुत शौकिन मिजाज का है। उसने हंसकर कहा, ‘चाचा जी, बताइए तो जरा कितने की होगी?’
‘क्या कहूं भाई, हम अब बूढ़े हो गए हैं। पहले ये पांच-छह रुपये में मिल जाया करते थे।’
वह बोला, ‘तीस रुपये का है एक। वह भी छुपकर शाम को एक दुकान से खरीदा मैंने। आसानी से नहीं मिलता। अच्छा है न? जरी की कारीगरी देखिए।’
उसी समय बड़े भाई भी वहां आ गए। हमदोनों ने उसके पहरावे को सराहा और शुभेन्दु की इस खरीददारी की निपुणता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’