कार्टून की दुनिया में धाक थी काक की
एक समय काक का नुकीला, चुभता, गुदगुदाता कार्टून हिंदी के तमाम अख़बारों में नजर आता था। देश के अन्य समाचार पत्रों के साथ-साथ चंडीगढ़ में दैनिक ट्रिब्यून में काक के कार्टून उड़ान भर रहे थे। बात को अपने पात्र के ज़रिये बेहद सलीक़े से कहने वाले काक ने किसी नेता को नहीं बख्शा।
राजेन्द्र शर्मा
नये साल की पहली भोर ही मन को उदास कर गयी। सात जुलाई, 1967 से बिना नागा हर रोज एक कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट काक इस फानी दुनिया से अलविदा कह गये। उन्नाव के पुरा गांव के स्वतंत्रता सेनानी शोभ शुक्ल की पांचवीं संतान हरीश चन्द्र शुक्ला (दुनिया में काक नाम से पहचान) को सातवीं कक्षा में उनके पेंसिल से खौ-खौ करते बंदर के बनाये गये चित्र, जो चित्र कम कार्टून ज़्यादा था, को कला अध्यापक जगदम्बा सिंह द्वारा दिये गये ‘गुड’ ने उन्हें स्कैच बनाने को प्रेरित किया। फिर कापी पर पेंसिल से स्कैच करना उनके जीवन का परम सुख बन गया।
सातवीं कक्ष में बनाया गया वह ‘बंदर’ और उसकी शरारतें, कारस्तानियां हरीश के मस्तिष्क में इतने गहरे पैठ गयीं कि काक बनने पर भी वह बंदर स्मृति से विस्मृत नहीं हुआ बल्कि और ज़्यादा शिद्दत से उभरा। काक के कार्टूनों के प्रिय पात्र जो गली का फक्कड़ बुड्ढा रहा, जो देश-दुनिया की हर घटना पर आम आदमी के मन की बात होती है, उसे कहने में गुरेज़ नहीं करता। उसे ज़रा ग़ौर से देखियेगा, उसके पार्श्व में कहीं न कहीं वह बंदर दिखाई दे ही जाता है। पढ़ाई-लिखाई पूरी कर कानपुर के ही एक सरकारी प्रतिष्ठान में नौकरी मिलने और फिर दाम्पत्य जीवन में बंध जाने के बावजूद उनका कार्टून बनाने का शौक बदस्तूर जारी रहा। नित्य के दायित्वों को निभा जैसे ही फ़ुरसत पाते, बस पेंसिल उठाकर स्कैच करने बैठ जाते। इसी से थकान उतरती थी, यही था जीवन का परम सुख।
वर्ष 1965-66 में उ.प्र. में चंदरभानु गुप्त मुख्यमंत्री थे। उन्होंने उन पर कार्टून स्कैच किया और कानपुर से प्रकाशित अख़बार राम राज्य में भेज दिया। कार्टून छपा परंतु कोई विशेष रेस्पांस नहीं मिला।
पहला कार्टून छपने के डेढ़ साल बाद सीमांत गांधी खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान भारत आये। शुक्ला जी ने पेंसिल उठाई और कार्टून बनाया। जिसमें सीमांत गांधी की बड़ी छवि बनाते हुए उनका स्वागत करते नेताओं को बहुत छोटा-छोटा दिखाया गया था। यह कार्टून दैनिक जागरण के संपादक नरेंद्र मोहन को दे आये। कार्टून ग़ज़ब था और संपादक पारखी। उन्होंने कार्टून को 7 जुलाई, 1967 को पहले पन्ने पर प्रकाशित किया।
संयोग देखिये, उसी दिन हरीश चंद्र शुक्ला के पहले बेटे का जन्म हुआ। सारा घर-परिवार खुश कि घर में नन्हा शिशु आया है लेकिन उनके लिये यह यक्ष प्रश्न अपने आप से कि वह पुत्र आगमन से खुश हैं या अपना कार्टून छपने से। बहरहाल सात जुलाई 1967, कार्टूनों की दुनिया में ऐतिहासिक दिन बन गया, उसी दिन जाने माने कार्टूनिस्ट ‘काक’ का नामकरण हुआ। उस दिन हरीशचंद्र शुक्ला नेपथ्य में चले गये और सामने थे काक, जिन्हें सारा देश इसी नाम से पहचानता हैं। स्वयं काक साहब भी इसी नाम से पुकारे जाने के हामी थे। उन्होंने खुद से संकल्प किया कि जब तक जीवन है, वह हर रोज़ कार्टून बनायेंगे। इन 58 साल में एक भी दिन ऐसा नहीं जब काक साहब ने कार्टून न बनाया हो। काक की संकल्प शक्ति को क्या कहियेगा, कोरोना संकट में वे हर रोज़ कार्टून बनाते रहे।
इस तरह काक ने कार्टूनों की दुनिया में ऊंची उड़ान भर दी। एक से एक नुकीला, चुभता हुआ, गुदगुदाता हुआ कार्टून हिंदी के तमाम अख़बारों में दिखने लगा। कानपुर से दैनिक जागरण, आज, जयपुर में राजस्थान पत्रिका, चंडीगढ़ में हिंदी ट्रिब्यून में काक के कार्टून उड़ान भर रहे थे। बात को बेहद सलीक़े से अपने प्रिय पात्र बुड्ढे के ज़रिये कहने वाले काक ने कोई नेता नहीं छोड़ा जिसका कार्टून न बनाया हो। देश भर के नेता काक को जानने-समझने लगे थे।
‘दिनमान’ में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के बाद बतौर संपादक रघुवीर सहाय आये। रघुवीर सहाय की पहल पर काक ने दिनमान के लिये कार्टून बनाने शुरू किये। कई बार उनके कार्टून को ही रघुवीर सहाय ने कवर पेज बना दिया। यह काक की ‘काक’ दृष्टि का ही कमाल था कि रघुवीर सहाय के समय से दिनमान में छपने शुरू हुए कार्टून कन्हैया लाल नंदन, सतीश झा, घनश्याम पंकज के कार्यकाल में भी यथावत छपते रहे। पत्रिका के लिये काक के कार्टून अपरिहार्य हो गये थे।
उन्हीं दिनों कलकत्ता से रविवार का प्रकाशन शुरू हुआ। योगेन्द्र कुमार ‘लल्ला’, एसपी सिंह, उदयन शर्मा काक को कहां छोड़ने वाले थे। रविवार के लिये भी काक अपरिहार्य हो गये थे। अपने कार्टून की बदौलत काक राजनेताओं के पंसदीदा हो गये थे। अटल बिहारी वाजपेयी के विराट व्यक्तित्व से अवगत कराते हुए काक ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि जब बेहमई नरसंहार के बाद विभिन्न दलों के नेतागणों के दौरे हो रहे थे। इंदिरा गांधी के बाद अटल जी भी आये। उन दिनों जागरण के मुख पृष्ठ पर कार्टून छपा, शीर्षक था ‘बेहमई की हुतात्माओं की शांति के लिए थोड़ी और धूल’।
कार्टून में अटल जी बेहमई जा रहे थे, धूल उड़ रही थी। यह कार्टून कुछ ज्यादा ही तीखा हो गया था, पर वाह अटल जी, उसी दिन कानपुर की विशाल सभा में उन्होंने कार्टून का बाकायदा उल्लेख किया और उलाहना दिया कि कार्टूनिस्ट ने हमें कुछ ज्यादा ही मोटा दिखा दिया है, देख लो, मैं इतना मोटा नहीं हूं। काक दंग रह गये यह सुनकर। अपनी आलोचना को न केवल इतनी सहजता से लेना बल्कि इतना अप्रत्याशित महत्व देना, यह अटल जी की विशेषता थी।
1967 से 1983 तक कुल 15 बरस तक हर रोज़ कार्टून बनाने और हर रोज़ किसी न किसी पत्र पत्रिका में कार्टून प्रकाशित होने के फलस्वरूप कार्टूनिस्ट काक प्रतिष्ठित हो चुके थे। सभी संपादक काक को सलाह देते कि अब पूर्णकालिक रूप से अख़बार ज्वाइन करो। कालांतर हरीश चन्द्र शुक्ला को उसी सरकारी प्रतिष्ठान में छोड़ उन्होंने पूर्णकालिक रूप से काक बन कर जनसत्ता में ज्वाइन किया। डेढ़ साल बाद नवभारत टाइम्स में आए और 1999 में सेवानिवृत्त हुए। लेकिन कार्टून बनाना ही उनका जीवन रहा, उनकी सांसें रहीं।