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कश्ती पार लगाने को नये दौर की नूरा कुश्ती

04:00 AM Dec 20, 2024 IST
कश्ती पार लगाने को नये दौर की नूरा कुश्ती
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विनय कुमार पाठक

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एक जमाना था जब गांवों में मनोरंजन के लिए मुर्गों की लड़ाई करवाई जाती थी। चूंकि चारों ओर ग्रामीणों का घेरा होता था बेचारे मुर्गों के पास लड़ने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचता था। मुर्गा लड़ाई के अतिरिक्त भैंसों की लड़ाई और बकरों की लड़ाई और कभी-कभी अलग-अलग जानवरों की लड़ाई का आयोजन भी लोग करवाया करते थे। कुत्ते तो बिना किसी बात के लड़ाई लड़ लेते हैं, कभी इलाका को लेकर तो कभी भोज्य पदार्थ को लेकर। आज भी श्वान-स्वामी जिस व्यक्ति से नाराज होते हैं उस पर अपने श्वानों को ललकार देते हैं।
अब गांव सिकुड़ते जा रहे हैं और टीवी मोबाइल आदि फैलते जा रहे हैं। गांव अगर हैं भी तो टीवी मोबाइल के युग में ग्रामीणों के पास इतना वक्त नहीं है कि वे मुर्गों और बकरों की लड़ाई देखने में अपना बहुमूल्य फालतू का वक्त बर्बाद करें। रील्स और शॉर्ट्स कहां किसी को मौका देते हैं एक स्थान पर इकट्ठा होने का? ऐसे में मुर्गा लड़ाई या अन्य जानवरों की लड़ाई उतनी मनोरंजक नहीं रह गई है। तो फिर लोगों के मनोरंजन के लिए इसका कोई विकल्प तो होना चाहिए न? तो विकल्प हाजिर कर दिया है, सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले सैकड़ों टीवी चैनलों ने। किसी भी मुद्दे पर ये मुर्गों, माफ कीजिएगा, विभिन्न पार्टी के प्रवक्ताओं और समर्थकों को बुला लेते हैं। और फिर शुरू हो जाती है आधुनिक मुर्गों की लड़ाई या मुर्गों की आधुनिक लड़ाई। इस लड़ाई को पता नहीं क्यों कुछ लोग गुर्गों की लड़ाई भी कहते हैं।
मुर्गों की लड़ाई को ज्यादा आकर्षक और हिंसक बनाने के लिए कई बार आयोजक मुर्गों के पैर में चाकू भी बांध देते थे। इससे मुर्गे जब घायल होते थे तो दर्शक ताली पीटते थे। मुर्गों की लड़ाई के नए अवतार अर्थात‍् टीवी पर वाद-विवाद में शामिल मुर्गों अर्थात‍् प्रवक्ताओं और समर्थकों को चाकू थमाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। उनकी जुबान किसी चाकू-छुरी से कम नहीं होती। कई ऐसे भी मुर्गे होते हैं जिन्हें यह महसूस होता है कि उनकी जुबान सही मात्रा में घातक सिद्ध नहीं हो रही तो वे आक्रामक भाव-भंगिमा के साथ कैमरे के सामने आ जाते हैं।
कभी-कभी ऐसे कार्यक्रम भौतिक रूप से भी होते हैं। यदि कार्यक्रम साक्षात‍् हो रहा हो तो मुर्गे गुत्थमगुत्था भी हो जाते हैं। कभी-कभी ही सही, जूतम-पैजार के दृश्य भी देखने को मिल जाते हैं। एंकर चीख-चीख कर कहता रह जाता है कि मेरे शो में इस तरह का शो नहीं चल सकता। पर उसकी चीख नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित होती है क्योंकि मुर्गे इतने आवेशित हो जाते हैं और अनियंत्रणीय हो जाते हैं।

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