उम्मीदों का स्वप्न और नये साल का जश्न
धर्मेंद्र जोशी
दिसंबर माह की अंतिम रात ठिठुरन बढ़ा रही थी, बाहर तेज ठंडी हवाओं का कहर जारी था। अमीर लोग बंद कमरे में गर्म रजाई के साथ सर्दी का आनन्द ले रहे थे। वहीं देश का बड़ा तबका खुले आसमान के नीचे कड़कड़ाती ठण्ड में अलाव के सहारे सर्द रातों का मुकाबला करने के लिए अभिशप्त था। दिन के मुकाबले रात बहुत लंबी प्रतीत हो रही थी, इसी लंबी और सर्द रात में आंख लग गई और नये साल के स्वप्न में खो गया।
सपने में देखा- नए साल में पूरा देश बदला बदला-सा लग रहा है, चारों ओर कुछ अनूठी और अप्रत्याशित घटनाएं हो रही हैं। चौराहे पर गाड़ी के कागजात होने पर भी पांच सौ का नोट झटकने वाला हवलदार ईमानदारी से अपनी ड्यूटी कर रहा है। सरकारी ऑफिस में कर्मचारी और अधिकारी नियत समय पर अपनी- अपनी कुर्सी सम्भाल चुके हैं। बिना किसी दांत-घिसाई के आम जनता के काम करने को तत्पर दिखाई दे रहे हैं। बीमारी से ज्यादा तगड़े बिल की दहशत से जान लेने वाले अस्पताल रियायती दर पर इलाज उपलब्ध करवा रहे हैं। महंगे स्कूलों में अमीरों के बच्चों के साथ-साथ गरीबों के बच्चे भी खेलते दिखाई दे रहे हैं। देश के कर्णधार संसद और विधानसभा में ली गई शपथ को आत्मसात् करते मालूम पड़ते हैं। भ्रष्टाचार, वंशवाद और भाई-भतीजावाद की विष बेल को समाप्त करने के लिए पक्ष और विपक्ष सहमत दिखाई दे रहे हैं। जाति और धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले आपस में मिलकर रहने की बात कर रहे हैं। गांव और शहरों में पड़ोसी एक-दूसरे के घर के आगे कचरा न फेंक कर स्वच्छता का संदेश दे रहे हैं।
इतना ही नहीं, बिना दहेज और दिखावे के शादियां सम्पन्न हो रही हैं। सास अपनी बहुओं के लिए स्वयं मिष्ठान बना रही हैं। ताने और व्यंग्य की बजाय प्रशंसा और अपनत्व का भाव दिखाई पड़ रहा है। बच्चे मोबाइल छोड़ मैदान में दौड़ लगाते हुए देखे जा सकते हैं, साथ ही परीक्षा के अत्यधिक दबाव के स्थान पर उन्मुक्त कुलांचें भर रहे हैं। बास अपने मातहत से झिड़की के स्थान पर विनम्र लहजे में बात कर रहा है। जिधर देखो, उधर सब कुछ सुहाना-सा जान पड़ रहा है।
इसी बीच, दूध वाले की आवाज से मेरी नींद में खलल पड़ जाता है और आंख खुल जाती है। नए साल के सवेरे का स्वागत करते हुए सोच रहा हूं, कि जो सपने में दिखाई दिया, काश! वही हकीकत में भी हो जाए, इससे अच्छा और बड़ा जश्न नये साल का क्या हो सकता है।