अंदरूनी संघर्ष व बाहरी दबावों से निपटने की रणनीति
बीते दिनों बांग्लादेश में आंतरिक अशांति बढ़ी व पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को भारत में शरण लेनी पड़ी। शेख हसीना को हटाने में विदेशी ताकतों का भी हाथ रहा। सरकार का नेतृत्व अब मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं। मौजूदा शासन भारत के प्रति मैत्रीपूर्ण नहीं। ऐसे में बेहतर है बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में नहीं पड़ें व शेख हसीना को शरण जारी रखें।
जी़ पार्थसारथी
वर्ष 1971 में अपने जन्म के काल में अमेरिका-चीन जैसे एक अजीब और आभासीय गठबंधन की चालों का सामना करने के बावजूद, हाल के वर्षों में बांग्लादेश ने तेजी से आर्थिक विकास का रिकॉर्ड बनाया है। 1971 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से, अनिश्चितताएं और निरंतर प्राकृतिक आपदाएं झेलने के बावजूद, इसने आर्थिक विकास में मजबूती और गरीबी में कमी होते देखी है। जन्म के समय दुनिया के सबसे गरीब देशों में गिने जाने से लेकर 2015 आते-आते यह मुल्क निम्न-मध्यम आय की स्थिति में पहुंच गया।
इस बीच, इसकी पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को हाल ही में अंतरिम सरकार- जिसकी बागडोर एक अमेरिका शिक्षित कृषक और नोबेल पुरस्कार विजेता, मोहम्मद यूनुस के हाथ में है- के नेतृत्व में स्थानीय ‘अफसरों’ द्वारा गिरफ्तार किए जाने की धमकी के बाद भारत में शरण लेनी पड़ी है। यूनुस एवं बांग्लादेश ग्रामीण बैंक को 2006 में ‘निचलेे स्तर से आर्थिक एवं सामाजिक विकास करने’ की दिशा में कार्य के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1983 में स्थापित इस बैंक का उद्देश्य गरीब लोगों को आसान शर्तों पर छोटे ऋण प्रदान करना है, जिसे 'माइक्रो-क्रेडिट' भी कहा जाता है।
शेख हसीना, जो अब भारत में निर्वासन में रह रही हैं, उन्होंने 1975 में अपने पिता शेख मुजीब-उर-रहमान को एक खूनी सैन्य तख्तापलट में मारे जाते देखा था। साल 1971 में मुजीब अगुवाई करके अपने लोगों को स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक शासन की ओर ले गए थे। कदाचित्, अमेरिका और चीन, दोनों ही, शेख मुजीब और उनकी बेटी के प्रति अविश्वास और नापसंदगी की भावना पाले रहे। हसीना, जो नैसर्गिक रूप से भारत के प्रति दोस्ताना थीं, उन्हें अमेरिका और चीन के तत्कालीन गठबंधन द्वारा सोवियत विरोध के तहत चली गैर-मैत्रीपूर्ण भावनाओं का सामना करना पड़ा था। उनके बाद बांग्लादेश में ऐसी सरकारें आईं, जिन्हें भारत जरा भी सुहाता नहीं था। हालांकि, समय के साथ चीजें बदलते गईं। अगर शेख मुजीब को 1970 के दशक में अमेरिका और चीन की दुश्मनी का सामना करना पड़ा था, तो आज की तारीख में उनकी बेटी और उत्तराधिकारी वैसी ही स्थिति का सामना कर रही हैं। वर्तमान में अमेरिका और चीन बिल्कुल भी अच्छे दोस्त नहीं हैं, जैसाकि वे 1970 के दशक की शुरुआत में हुआ करते थे।
अमेरिका-चीन के विरोधी रुख का सामना करने के बावजूद, हसीना का अपने राष्ट्र की रणनीतिक स्वायत्तता, आर्थिक विकास और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। वह पाकिस्तान की सैन्य ज्यादतियों से अपने देश की मुक्ति में भारत की भूमिका को भी नहीं भूलीं।
बांग्लादेश अब ऐसी स्थिति का सामना कर रहा है, जहां अमेरिका समर्थित यूनुस देश के नेतृत्व में एक प्रमुख खिलाड़ी बन गए हैं। यह खुला रहस्य है कि यूनुस का अमेरिका के प्रति झुकाव है, जिसने हाल ही में उन्हें बांग्लादेश सरकार का प्रमुख नियुक्त करने में मदद की है। दिलचस्प बात यह है कि हसीना को हटाने के पीछे न केवल बाइडेन प्रशासन बल्कि उनके प्रतिद्वंद्वी चीन का भी समर्थन रहा। यह भी रोचक है कि यूनुस को हसीना के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त करने के बारे में चीन और अमेरिका, दोनों के विचार, एक जैसे प्रतीत होते हैं। सनद रहे यूनुस की अपनी उच्च राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका और चीन सहित कई पक्षों ने मिलकर हसीना को बदनाम करने के लिए ठोस प्रयास किए। यह कोशिशें उस आर्थिक प्रगति को नजरअंदाज करती हैं जो बांग्लादेश ने उन वर्षों में हासिल की जब वहां सरकार हसीना की थी। इससे अधिक, बांग्लादेश का नया नेतृत्व तय करने या निर्वाचित सरकार को कमजोर करने के पीछे न केवल विदेशी ताकतों की भूमिका रही है बल्कि बांग्लादेश के खुद अपने लोगों की भी। बांग्लादेश के विकास में आज भारत सबसे बड़ा साझीदार है। भारत ने जहाजरानी, बंदरगाह, सड़कों और रेलवे जैसे क्षेत्र के आधुनिकीकरण और विकास के लिए 8 बिलियन डॉलर का तिहरा ऋण प्रदान किया है। चीन और पाकिस्तान, हर हीले-हवाले, हिंद महासागर में भारत के प्रभाव को रोकने और सीमित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं, जहां के जलमार्गों से होकर, होरमुज़ जलडमरू से तेल की आपूर्ति मलक्का जलडमरू और उससे परे तक होती है।
ट्रम्प प्रशासन के कार्यभार संभालने के साथ ही, भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ व्यापक बातचीत करनी चाहिए। समुद्र के नीचे बिछी अपनी संचार लाइनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यह करना जरूरी है। इस बीच, भारत विमानवाहक पोत और लड़ाकू युद्धपोत से लेकर मिसाइल शक्ति तक की शस्त्र प्रणालियों में अपनी समुद्री क्षमताओं का विकास कर रहा है। यह उसे अमेरिका, जापान और अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ, अति महत्वपूर्ण फारस की खाड़ी के देशों के साथ सहयोग करने में सक्षम बनाता है। इस क्षेत्र में बनी असुरक्षा और अस्थिरता का नतीजा वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति के लिए बहुत घातक हो सकता है। इस क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रुचि उनके हाल के कुवैत दौरे से स्पष्ट है।
विगत में निगाह डालें तो, 1971 में निक्सन-माओ-जनरल याह्या खान की तिकड़ी से उभरे अमेरिका–पाकिस्तान-चीन गठबजोड़ ने एक तरह से बांग्लादेश में नरसंहार करवाया और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से लगभग 1 करोड़ शरणार्थियों को भारत में पनाह लेनी पड़ी। शेख मुजीब-उर-रहमान ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था। याद रहे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बांग्लादेश में अनिश्चित काल तक भारतीय सेना तैनात किए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हालांकि, शेख मुजीब की क्रूर हत्या से उन्हें झटका लगा था। तब से चीजें काफी हद तक बदल गई हैं, लेकिन बांग्लादेश में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भारत को अमेरिका का समर्थन प्राप्त करने की आवश्यकता होगी। चीन ने हाल ही में म्यांमार में क्यौकफ्यू गहरे समुद्री बंदरगाह पर बंगाल की खाड़ी तक पहुंच मजबूत की है।
अब जबकि भारत को बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में शामिल होने से बचना होगा वहीं हसीना को शरण देना जारी रखना चाहिए। भारत को अमेरिका और अन्य देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बांग्लादेश अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत कर सके और वहां स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव हो पाएं, जिसमें हसीना और उनकी पार्टी के लोग भी भाग लेने के लिए स्वतंत्र हों।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।