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उत्पादकता बढ़ाने के लिए तनाव प्रबंधन जरूरी

04:00 AM Jan 08, 2025 IST
उत्पादकता बढ़ाने के लिए तनाव प्रबंधन जरूरी
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एक शोध का नतीजा यह था कि अगर कर्मचारियों को नए-नए ईमेल भेजकर या फोन से आदेश देकर दबावों और तनावों में उलझाया न जाए तो वे अपने काम पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। किसी प्रोत्साहन में लोग खुशी-खुशी ज्यादा दबाव झेल जाते हैं।

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डॉ. संजय वर्मा

इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति के उस बयान पर देश में खूब बहस हुई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए युवाओं को ज्यादा समय तक जीतोड़ मेहनत करने की जरूरत है। इसके लिए हर हफ्ते न्यूनतम 70 घंटे काम करना चाहिए। पूरी दुनिया में निजी कंपनियों में कंपनी के उसूलों के साथ-साथ अधिकारियों के हर आदेश का पालन करने और जरूरत से कई गुना ज्यादा काम करने के बदले मामूली वेतनवृद्धियों और छुट्टियों में कटौती आदि के प्रश्न अक्सर विमर्श में रहते हैं। इस पर भी कंपनियों के मालिक और हुक्मरान इसे लेकर जब-तब कोई उपदेश लेकर हाजिर हो जाते हैं कि कर्मचारियों को काम कितना करना चाहिए, दबाव कितना सहना चाहिए और छुट्टियां लेते हुए जीवन और काम में संतुलन कैसे बिठाना चाहिए। इस कड़ी में अडानी समूह के चेयरमैन ने हाल ही में बयान दिया है कि यह संतुलन (वर्क-लाइफ) तब होता है, जब आप अपना पसंदीदा काम करते हैं।
बहरहाल, नौकरियों में बढ़ते तनाव और कार्य संस्कृति में बदलाव की जितनी बातें आज हमारे देश में कही-सुनी जा रही हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने और दुनिया की ताकतवर कंपनियों से आगे निकलने का दबाव भारतीय कंपनियों पर काफी बढ़ गया है। इस दबाव का नतीजा है कि कभी तो इन कंपनियों के संचालक हर हफ्ते न्यूनतम 70 घंटे काम करने की जरूरत रेखांकित करते हैं, तो कभी नौकरी में तनाव की बात स्वीकार करने पर उन्हें काम से ही हटा देने का फरमान जारी कर दिया जाता है।
देश-दुनिया में आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो राष्ट्र निर्माण के लिए जुनून की हद तक जुटने के पक्ष में हैं। यह पूरा विमर्श सिर्फ आबादी बहुल देशों में ही नहीं बल्कि अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित मुल्कों में भी ऐसी ही जुनूनी कार्य संस्कृति की मांग उठ रही है, ताकि वहां की अर्थव्यवस्थाओं का सुदृढ़ विकास हो सके और उद्योग व रोजगार क्षेत्र के संकटों को दूर किया जा सके। कुछ ही अरसा पहले, नोएडा की एक सैलून कंपनी ने अपने कर्मचारियों के बीच कामकाजी माहौल के बीच तनाव पैदा होने संबंधी सर्वेक्षण कराया। सौ से ज्यादा कर्मचारियों ने सर्वेक्षण में स्वीकार किया कि कामकाजी दबाव के कारण वे तनाव में हैं, तो उन कर्मचारियों को नौकरी से ही निकालने का दावा किया गया। हालांकि सोशल मीडिया पर फैसले की आलोचना के मद्देनजर कंपनी ने सफाई दी कि सर्वेक्षण का मकसद कार्यस्थल पर दबावों और तनावों से जुड़ी समस्याओं को उजागर करना था। साथ ही, जिन कर्मचारियों ने तनाव की बात कही है, उन्हें तनाव-मुक्ति नीति (डि-स्ट्रेस पॉलिसी) के तहत कुछ समय आराम करने के लिए छुट्टी और अन्य सहूलियतें दी गईं, ताकि वे नई ऊर्जा से काम में जुट सकें। बहुत मुमकिन है कि नोएडा की कंपनी का सर्वेक्षण, कर्मचारियों की प्रतिक्रिया और सोशल मीडिया पर उस कंपनी के प्रति उपजा आक्रोश एक सोची-समझी प्रचार की रणनीति (पब्लिसिटी स्टंट) हो। पर यह सच है कि भारतीय कंपनियों के संचालकों में यह अवधारणा बहुत अंदर तक पैठी हुई है कि उनके देश की कार्य संस्कृति में मूलभूत बदलावों की जरूरत है ताकि वैश्विक कंपनियों से मुकाबला किया जा सके। उनकी मानसिकता है कि भारतीय कर्मचारी कम से कम अपने देश में कम पेशेवर होते हैं। इस धारणा के मुताबिक भारतीय कर्मचारियों की आदत कामचोरी की होती है। वे आदतन आलसी होते हैं।
देश के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में ये दृश्य बेहद आम रहे हैं कि कर्मचारी या तो वक्त पर दफ्तर नहीं आते या फिर पूरे दिन अपनी टेबल से गायब रहते हैं। यही वजह है कि अब ज्यादातर सरकारी कार्यालयों और सरकारी स्कूलों में उपस्थिति दर्ज करने की बायोमीट्रिक प्रणाली और कामकाज के आकलन के लिए उनके सालाना मूल्यांकन (अप्रेजल वाली) व्यवस्थाओं को लागू किया जा रहा है। बड़ी निजी कंपनियों में इससे ज्यादा सख्ती का माहौल है। कामकाज के सख्त मानकों को लागू करने के संबंध में नारायणमूर्ति के बयानों का समर्थन कई और कंपनी-प्रमुखों ने किया है। उनकी दलील रही कि नारायणमूर्ति कामकाजी माहौल की थकान नहीं, बल्कि समर्पण के बारे में बात कर रहे हैं। ऐसे में यदि भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनाना है, तो हम पश्चिमी देशों की उस कार्य संस्कृति को अपना मानक नहीं बना, जहां हफ्ते में चार या पांच दिन या कम समय काम करना पड़ता है। यह देखते हुए कि भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम उत्पादक देशों में एक है, हमें अपनी कार्य उत्पादकता में सुधार करने की जरूरत है। ऐसा नहीं किया गया तो हम उन पश्चिमी देशों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे, जिन्होंने बहुत अधिक प्रगति की है।
सिर्फ काम को अहमियत देने और कामकाज-जीवन संतुलन को तिलांजलि देने वाले इस फॉर्मूले को ताक पर रखने वाली इस कार्य संस्कृति के समर्थकों को ऑस्ट्रेलिया जैसी व्यवस्थाएं भी नागवार गुजरती हैं जहां दफ्तर से घर आने के बाद फोन या ईमेल का जवाब देने की जरूरत राइट-टू-डिस्कनेक्ट के अधिकार के तहत महसूस नहीं की जाती। पश्चिमी देशों में कुछ अंतर और हैं। जैसे, वहां किसी भी नौकरी या व्यवसाय के तहत काम के घंटों का समायोजन इस प्रकार किया जाता है, जिससे कर्मचारी की निजी और सामाजिक जीवनशैली नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं हो।
वर्क-लाइफ बैलेंस कायम रखने की नीति के अंतर्गत यूरोपीय-अमेरिकी देशों में सरकारें और निजी कंपनियां यह हिसाब-किताब भी रखती हैं कि कहीं कर्मचारी ने साल में जरूरत से कम छुट्टियां तो नहीं लीं। या फिर कर्मचारी आवश्यकता से अधिक समय दफ्तर में तो नहीं रुक रहा है। हालांकि आश्चर्यजनक पहलू यह है कि जब इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने भारत स्थित अपने कार्यालयों में पश्चिमी देशों वाला कामकाजी मॉडल अपनाने का मामला आया है, तो यहां वे इससे कन्नी काटने लगी हैं। संभव है कि वजह यह है कि भारत में श्रम कानूनों के तहत कर्मचारियों को ज्यादा अधिकार नहीं मिले हैं।
एक आकलन के अनुसार 50 साल पहले भारतीयों को एक हफ्ते में औसतन 39 घंटे काम करना होता था, लेकिन अब वह औसत बढ़कर 45 घंटे हो चुका है। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो यह औसत 60 घंटे तक पहुंच चुका है, जबकि ब्रिटेन-अमेरिका आदि विकसित मुल्कों में प्रति सप्ताह सिर्फ 34 घंटे काम करने की अपेक्षा की जाती है।
अगर कंपनियां सोच रही हैं कि बेइंतिहा दबाव और तनाव पैदा करने से उत्पादकता में बढ़ोतरी संभव है तो उन्हें शोध-अध्ययनों की तरफ देख लेना चाहिए। दो दशक पहले हुए एक शोध का नतीजा यह था कि अगर कर्मचारियों को नए-नए ईमेल भेजकर या फोन से आदेश देकर दबावों और तनावों में उलझाया न जाए तो वे अपने काम पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। किसी प्रोत्साहन (जैसे कि पांच के बजाय चार दिन काम और तीन दिन की छुट्टी के प्रावधान) में लोग खुशी-खुशी ज्यादा दबाव झेल जाते हैं। उत्पादकता बढ़ाने के लिए तनाव के प्रबंधन का यह कौशल भारत में काम कर रही कंपनियों को भी सीखना चाहिए।

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लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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