आपातकालीन विसंगतियों के ज्वलंत प्रश्न
इस बार किसान पंजाब की नब्ज पर हाथ रखने में उतने सफल नहीं रहे, जैसा कि चार साल पहले कर पाए थे -दिल्ली की तो बात ही छोड़िए- तब प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था, यह एकमात्र ऐसा मौका था जिसने उन्हें अपने कहे से पीछे हटने को मजबूर किया था।
जहां पिछले सप्ताहांत मुंबई में न केवल बॉलीवुड बल्कि पूरा शहर इस मुद्दे पर उलझा रहा कि सैफ अली खान को किसने और क्यों चाकू मारा और यह घटना ठीक हिंदी फिल्मी सीन वास्तविक जिंदगी में घटने जैसी रही वहीं पंजाब में अभिनेत्री-निर्देशक कंगना रनौत की इंदिरा गांधी की जीवनी पर आधारित फिल्म ‘इमरजेंसी’ का ‘स्वागत’ जिस डर और नफरत की भावना के साथ हो रहा है, वह नए स्तर को छू रहे हैं। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) द्वारा सिनेमाघरों में फिल्म का प्रदर्शन रोकने वाले माहौल के बीच यह फिल्म बीते शुक्रवार को देशभर में रिलीज हो चुकी है।
अब सबको पता है कि एसजीपीसी के अध्यक्ष हरजिंदर सिंह धामी शिरोमणि अकाली दल के सदस्य हैं और यह सिख संस्थान भी आरएसएस की भांति अपनी विधिवत स्थापना की 100वीं वर्षगांठ मना रहा है, इस पर अभी भी काफी हद तक सुखबीर बादल के नेतृत्व वाली पार्टी का नियंत्रण है। आप कह सकते हैं कि एसजीपीसी के एक पदाधिकारी ने तर्कहीन ढंग से जरनैल सिंह भिंडरांवाले को ‘महान’ ठहराते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि संस्थान कंगना की फिल्म का बहिष्कार क्यों कर रहा है-कदाचित ‘सिखों को गलत रूप में पेश किया है’ के नाम पर, क्योंकि फिल्म में भिंडरांवाले को श्रीमती गांधी से यह कहते हुए देखा गया है ः ‘अगर वे एक अलग राज्य देंगी, तो वह उन्हें सिखों की वोटें सुनिश्चित करवाएगा’, दूसरे शब्दों में खालिस्तान- जो कि असली दुनिया में संभव नहीं है, जहां तथ्य और कल्पना स्पष्ट रूप से चिन्हित और अलहदा होते हैं और जाहिर है फिल्मों में काल्पनिक घटनाएं डाली होती हैं। लेकिन यह पंजाब है, एक ऐसा राज्य जिसका प्रदर्शन कुछ मापदंडों पर खास बुरा नहीं है- निश्चित रूप से यह खुद के लिए भोजन, कपड़े और शिक्षा का इंतजाम करने में पर्याप्त रूप से सक्षम है, वर्ना इसके शहर और गांव उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूरों से भरे न होते- लेकिन यहां अधिकांशतः तोड़ी-मरोड़ी राजनीतिक भावना इतनी हावी रहती है कि वास्तविकता उतनी होती नहीं जितनी प्रतीत होती है।
सो यह व्यापक परिदृश्य कंगना-विरोध और उसकी फिल्म इमरजेंसी की मुखालफत के पीछे है। इसके कारक पांच सूत्र कहे जा सकते हैं। सबसे पहला यह कि कंगना एक ध्रुवीकरण करने वाली शख्सियत हैं, जो पूर्व में हुए और अब पिछले कई महीनों से चल रहे किसान आंदोलन की कटु आलोचना करती आई हैं, पिछले साल जून में सीएसआईएफ की एक महिला कांस्टेबल ने इसको कारण बताते हुए उन्हें थप्पड़ भी जड़ दिया था।
दूसरा सूत्र, किसान आंदोलन फिर से जोर पकड़ने लगा है। किसान यूनियन के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की भूख हड़ताल जारी है, जिससे एक और ‘मरजीवड़ा जत्था’ तैयार हो गया, जिसका शाब्दिक अर्थ है आत्मबलिदानी, 111 किसानों की यह टोली अपनी मांगें मनवाने के लिए ‘करो या मरो’ की नीति के साथ, हरियाणा से होकर दिल्ली पहुंचने के लिए कृत संकल्प है। लेकिन यह भी उतना ही स्पष्ट है कि इस बार किसान पंजाब की नब्ज पर हाथ रखने में उतने सफल नहीं रहे, जैसा कि चार साल पहले कर पाए थे - दिल्ली की तो बात ही छोड़िए - तब प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था, यह एकमात्र ऐसा मौका था जिसने उन्हें अपने कहे से पीछे हटने को मजबूर किया था। डल्लेवाल का तथाकथित ‘सत्याग्रह’ आज विफल हो रहा है। सवाल मंशा को लेकर है।
तीसरा, किसी को उम्मीद होगी कि किसानों के विरोध से लोगों को होने वाली परेशानी के फलस्वरूप कम से कम कुछ तो जमीन भाजपा की ओर खिसकेगी। इसके साथ ही, भाजपा को उम्मीद जगी है कि सिख किसानों और पंजाब के मध्य वर्ग की शहरों में बसने की ललक–जिसके तहत वे लुधियाना, जालंधर और अमृतसर की कूड़े-कर्कट से भरी सड़कों वाले माहौल में रहने की बजाय कनाडा में बसना कहीं ज़्यादा बेहतर समझते हैं– इससे लोगों का झुकाव मोदी की और अधिक बनेगा।
चौथा, यहीं पर भाजपा गच्चा खा गई। भले ही किसानों के विरोध के ढंग में सब कुछ गलत हो लेकिन फिर भी भाजपा को इससे कोई लाभ नहीं होने वाला। वास्तव में, स्थिति इसके ठीक उलट है। पंजाब की राजनीति कई दिशाओं में बिखरती लग रही है – आज तीन अकाली दल हैं, जिनमें खडूर साहिब से नए बने सांसद और कट्टरपंथी सिख नेता अमृतपाल की ‘वारिस पंजाब दे’ से लेकर सिमरनजीत सिंह मान के अकाली दल (अमृतसर) के अलावा बादल की पुरानी पार्टी शामिल है, जो कि खुद आंतरिक रूप से विभाजित है, भले ही इसके असंतुष्ट राजनेता अलग-अलग दलों में जा रहे हैं, ज्यादातर ‘आप’ में - लेकिन भाजपा में शामिल होने को अभी भी वर्जित माना जाता है। पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत बादल जैसे भाजपा उम्मीदवारों की या तो जमानत जब्त हो गई या वे हालिया उपचुनावों में अंतिम स्थान पर रहे।
पांचवां सूत्र, यह सवाल कि क्यों पंजाब खुद को एक ‘अलहदा ध्रुव’ मानता है, जो ठीक उसका उलट करे जो करना दिल्ली को पसंद हो -‘अकाल तख्त’ बनाम ‘दिल्ली तख्त’? इसका उत्तर भी उतना ही सरल है। पंजाबियों का मानना है कि दिल्ली को इनकी परवाह नहीं है, अगर होती तो वह राज्य सरकार के साथ मिलकर इसकी अनेकानेक समस्याओं को ठीक करने में मदद करती - जिसमें धान और अब गेहूं की खरीद से लेकर ड्रोन एवं अन्य तरीकों से आते नशे की समस्या, कानून व्यवस्था की गिरती हालत और इसके अलावा गैंगस्टर-वाद और अन्य अनगिनत समस्याएं।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण जिसके लिए एसजीपीसी -और नाखुश पंजाबियों का एक बड़ा वर्ग- ‘इमरजेंसी’ की स्क्रीनिंग के खिलाफ है, वह यह है कि उन्हें डर है कि फिल्म पंजाब को देश और दुनिया के बाकी हिस्सों के सामने ‘बुरे अक्स’ में पेश करती है- जिसका मतलब है, आज वाले ‘खालिस्तानी’ भी भिंडरांवाले से कम बुरे नहीं हैं। उनकी सोच है कि इस फिल्म से बाकी भारत यह मान बैठेगा कि पंजाब आज उस भयानक दौर में फिर से वापस फिसल सकता है क्योंकि इसने एनएसए और यूएपीए कानून के तहत जेल में बंद एक कट्टरपंथी सिख के अलावा इंदिरा गांधी के हत्यारे के बेटे को सांसद चुना है - अाशंकित करने के लिए इतना काफी है।
विद्रोही होने तक तो बात ठीक है, लेकिन कट्टरपंथ? सच तो यह है कि बहुत कम लोग समझ सकते हैं कि कैसे उन भयानक वर्षों के दौरान पंजाब ने अपना नुकसान किया था (कोई आश्चर्य नहीं, आज कनाडा बैठों के इशारे पर) और अब वह दुःस्वप्न फिर से वापसी कर सकता है, तमाम उन रंगों में, पंजाब को जतलाने कि इसके साथ गलत क्या है।
लोगों काे निराश करने के लिए यह काफी है। अमृतसर से राजनीति शास्त्र के दो विशेषज्ञ जगरूप सिंह सेखों और परमजीत सिंह जज, जिन्होंने पिछले इन कई दशकों में पंजाब का पराभव देखा, वे मौजूदा व्याप्त दिशाहीनता का जिक्र करते हुए कहते हैं कि संस्थानों में विश्वास की कमी, कृषि संकट, अस्पष्ट भावी रोडमैप जैसे कारक हैं। सेखों ने कहा ‘लोगों ने दिल छोड़ दिया है’। हालांकि, उनसे अधिक आशावादी परमजीत जोर देकर कहते हैं कि जल्द ही या किसी दिन यह ज्वार उतर जाएगा, खासकर जब राजनीति को शून्यता नापसंद है।
सो, प्रिय पाठकों, आप जब ‘इमरजेंसी’ देखने के लिए कुलबुलाएं, तो भी विचार करें कि अमृतपाल के पिता तरसेम सिंह और फरीदकोट के सांसद सरबजीत सिंह खालसा द्वारा पिछले सप्ताह की शुरुआत में मुक्तसर में माघी मेले में एक खुले मंच पर एक साथ आकर अकाली दल (वारिस पंजाब दे) की शुरुआत करने के पीछे क्या विशेष है। सच तो यह है कि यह सिर्फ़ पंजाब ही है जहां एक राजनीतिक पार्टी का मुखिया एक ऐसा सांसद हो सकता है जो एनएसए और यूएपीए के तहत जेल में बंद है, वो बात अलग है कि सांसद के रूप में शपथ उसने संविधान की ली है। यह सिर्फ़ पंजाब ही है, जहां कट्टरपंथियों का पक्ष लेने वाली पार्टी को चुनाव आयोग से मंजूरी मिली है। सिर्फ़ पंजाब में ही जहां अतीत और वर्तमान इतने गड-मड हैं कि कभी-कभी एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल हो जाता है, खासकर तब जब आप कोई फ़िल्म देख रहे हों।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।