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बेजोड़ इसरो को आगे ले जाने वाला ‘जोड़’

04:00 AM Jan 21, 2025 IST
बेजोड़ इसरो को आगे ले जाने वाला ‘जोड़’
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बेशक ‘डॉकिंग’ एक छोटा सा तकनीकी इंतजाम है, लेकिन यह एक ऐसा ‘जोड़’ है जिस पर भावी भारतीय अंतरिक्ष अभियानों की नींव टिकी है। इसका महत्व इतना ज्यादा है कि कामयाबी की खबर को साझा करते हुए इसरो ने दो उपग्रहों की ‘डॉकिंग’ को ‘रोमांचक हैंडशेक’ कहा।

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डॉ. संजय वर्मा

गणित में दो जमा दो बेशक चार होते हैं, लेकिन जब मामला अंतरिक्षीय माहौल में की जाने वाली गणनाओं का हो, तो आसपास के माहौल में मौजूद लेकिन बदले हुए भौतिकी और रासायनिक कायदों को भी ध्यान में रखना पड़ता है। फिर चाहे बात अंतरिक्ष में लोबिया उगाने या फिर दो उपग्रहों की ‘डॉकिंग’ यानी उन्हें आपस में जोड़ने की हो। बीते साल 30 दिसंबर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्पेडेक्स नाम के मिशन पर जो दो उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे थे, उनसे जुड़ी ताजा उपलब्धि यह है कि 16 जनवरी, 2025 को उनकी सफल ‘डॉकिंग’ हो गई है। यह कामयाबी ऐसी है जो इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन ही हासिल कर पाया है। इस सफलता का महत्व इससे समझ में आता है कि अब भारत चंद्रयान-4, गगनयान और खुद के स्पेस स्टेशन के निर्माण के अलावा भावी सुदूर और जटिल अंतरिक्षीय अभियानों से जुड़े कुछ जटिल काम खुद के बूते कर पाएगा। यही नहीं, अगर इरादा अंतरिक्ष के बाजार का बड़ा खिलाड़ी बनाने का हो, तब ऐसे अभियानों का महत्व और भी बढ़ जाता है।
बहरहाल, पहले बात लोबिया की, जिसके बीजों को इसरो ने पहली बार अपनी क्षमताओं के बल पर अंतरिक्ष में अंकुरित और पल्लवित किया है। पृथ्वी के मुकाबले अंतरिक्ष में बीजों के अंकुरण और विकास का पैटर्न काफी अलग होता है। इसका कारण है अंतरिक्ष का सूक्ष्म अथवा शून्य गुरुत्वाकर्षण, जिसमें बीज और पौधे अपने विकास का अलग ढंग अपनाते हैं। धरती के मुकाबले पौधे जीरो ग्रैवेटी में सभी दिशाओं में बढ़ सकते हैं। खुले अंतरिक्ष में तो नहीं, लेकिन अंतरिक्षयान या उपग्रह में अथवा चंद्रमा या मंगल की मिट्टी में बीजांकुरण और पल्लवन के लिए आवश्यक पोषक तत्वों (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और सल्फर) के अलावा आयरन, जिंक, मैंगनीज और कॉपर जैसे तत्वों की भी जरूरत होती है, जो सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण (माइक्रोग्रैविटी) में पौधे के विकास में मदद करते हैं।
ऐसी जटिलताओं के साथ जब इसरो ने अपने एक मिशन पर गए दो उपग्रहों के जरिए लोबिया के आठ बीजों को कॉम्पैक्ट रिसर्च मॉड्यूल फॉर ऑर्बिटल प्लांट स्टडीज के तहत पीएसएलवी-सी60 पीओईएम-4 प्लेटफ़ॉर्म पर उगाने की कोशिश की, तो अभियान के चौथे दिन ही उनमें अंकुर दिखाई दे गए। अगले कुछ दिनों में लोबिया की पत्तियां भी निकल आई हैं। ध्यान रहे कि लोबिया के बीजों को जिन उपग्रहों के साथ इसरो ने अंतरिक्ष में भेजा था, यह वही स्पेडेक्स मिशन है जिसमें एक बड़ी कामयाबी 16 जनवरी को मिली है। शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थितियों में दो उपग्रहों की ‘डॉकिंग’ लोबिया के बीजों को अंकुरित करने के मुकाबले और भी कठिन थी क्योंकि ये दोनों उपग्रह करीब 29 हजार किलोमीटर प्रति घंटा की गति से पृथ्वी की कक्षा में भाग रहे थे।
अंतरिक्ष में ‘डॉकिंग’ का अर्थ दो पृथक इकाइयों को परस्पर संबद्ध करने या जोड़ने से लगाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर नए यात्रियों या रसद को पहुंचाना हो तो धरती से भेजे गए यान को स्पेस स्टेशन से जोड़ना पड़ता है। यहां तक कि स्पेस स्टेशन के निर्माण की प्रक्रिया में भी यही ‘डॉकिंग’ तकनीक काम आती है जब कई उपकरण और प्लेटफार्म टुकड़ा-दर-टुकड़ा जोड़ने होते हैं। एक बड़े मिशन में कई बार अनेक रॉकेट या यान अंतरिक्ष में भेजने पड़ते हैं। इनकी अनेक बार मूल प्लेटफार्म या दूसरे उपग्रहों अथवा यानों से ‘डॉकिंग’ करानी पड़ती है। दो उपग्रहों या दो प्लेटफॉर्म अंतरिक्ष में सफलता से जोड़ना आसान नहीं है। असली कारण तो है शून्य गुरुत्वाकर्षण, जिसमें बोतल से छिटकी पानी की एक बूंद भी पल भर में कहां से कहां पहुंच जाती है, पता नहीं चलता। ऐसे में किसी यांत्रिक प्रबंध के नट-स्क्रू कहां और कैसे जुड़ जाएं और क्या पता जोड़े ही न जा सकें- कहा नहीं जा सकता है। लेकिन इस बेहद जटिल काम में महारत हासिल हो जाए तो फिर बात चाहे चंद्रयान-4 की हो या फिर गगनयान या भारतीय स्पेस स्टेशन की, लगता है कि अब इन अभियानों की सफलता में ज्यादा संदेह नहीं है। चंद्रयान-4 के संदर्भ में भी कहा जा सकता है कि उसमें ‘इन-स्पेस डॉकिंग’ तकनीक काफी काम आएगी।
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक चंद्रयान-4 मिशन के तहत इसरो दो रॉकेटों क्रमशः एलएमवी-3 और पीएसएलवी के ज़रिए अलग-अलग उपकरणों के दो सेट चंद्रमा पर लॉन्च करेगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यान का एक मॉड्यूल भी चंद्रमा की सतह पर उतरेगा, जहां से यह चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों के नमूने एकत्र करेगा। नमूनों को जमा करने के बाद उन्हें एक बॉक्स में रखेगा और फिर चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे यान से जुड़ने के बाद पृथ्वी पर वापस आएगा। इस पूरी योजना में डॉकिंग और अनडॉकिंग- इन दोनों ही तकनीकों का बेहद सूक्ष्मता और सावधानी से इस्तेमाल करना होगा। उपग्रहों की देखरेख (सैटेलाइट सर्विसिंग), लंबी दूरी के अंतरिक्ष अभियानों (इंटरप्लेनेटरी मिशनों) और इंसानों को चंद्रमा पर भेजने में भी यह तकनीक काफी मददगार साबित हो सकती है। बेशक ‘डॉकिंग’ एक छोटा सा तकनीकी इंतजाम है, लेकिन यह एक ऐसा ‘जोड़’ है जिस पर भावी भारतीय अंतरिक्ष अभियानों की नींव टिकी है। इसका महत्व इतना ज्यादा है कि कामयाबी की खबर को साझा करते हुए इसरो ने दो उपग्रहों की ‘डॉकिंग’ को ‘रोमांचक हैंडशेक’ कहा।
‘डॉकिंग’ के छोटे लेकिन महत्वपूर्ण काम के लिए इसरो ने 30 दिसंबर, 2024 को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से रॉकेट पीएसएलवी-सी60 के जरिए एसडीएक्स-01 और एसडीएक्स-02 नाम के दो छोटे उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा में करीब 475 किलोमीटर ऊपर भेजे थे। इनमें से एक उपग्रह पीछा करने वाले (चेज़र) और दूसरा लक्ष्य (टारगेट) की भूमिका में था। मकसद था कि पहले इन उपग्रहों की सफल डॉकिंग कराई जाए। इसके बाद के चरणों में अंतरिक्ष यानों से परस्पर ऊर्जा का हस्तांतरण करना और अनडॉकिंग (जुड़ने के बाद उपग्रहों के एक दूसरे से मुक्त होने की प्रक्रिया) के बाद पेलोड का संचालन करना शामिल है। दो साल की अवधि में स्पेडेक्स मिशन के तहत इन सभी चरणों की सफलता साबित करेगी कि इसरो अंतरिक्ष में दो यानों को ‘डॉक’ और ‘अनडॉक’ करने के मामले में कितनी काबिलियत रखता है। भारत से पहले यह क्षमता अमेरिका, रूस और चीन हासिल कर चुके हैं।
उल्लेखनीय है कि दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में परस्पर जोड़ने और अलग करने की इस पूरी प्रक्रिया या डॉकिंग मैकेनिज्म पर भारत ने ‘भारतीय डॉकिंग सिस्टम’ के नाम से पेटेंट लिया है।
दरअसल, इस सफलता का एक कारोबारी महत्व भी है। असल में, इसरो का एक ध्यान जटिल तकनीकी दक्षता हासिल करने के साथ ऐसे मिशनों के जरिए वैश्विक कमर्शियल अंतरिक्ष मार्केट में भारत की पकड़ मजबूत करना भी है। दावा किया जाता है कि वर्ष 2030 तक अंतरिक्ष बाजार का कारोबार 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है, जिसमें फिलहाल भारत की हिस्सेदारी सिर्फ दो फीसदी या फिर आठ अरब डॉलर की है। भारत का लक्ष्य इसे 2040 तक बढ़ाकर 44 अरब डॉलर करना है। ऐसा तभी हो सकता है जो इन-स्पेस-डॉकिंग जैसे कार्यों में इसरो की सिद्धहस्ता साबित हो।

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लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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