अलाव का अब कोई नहीं भाव
सूर्यदीप कुशवाहा
अलाव सर्दियों में सुबह-शाम सदियों से शामिल था। गांव में किसी के भी द्वार अलाव जलते ही तापने चार लोग बैठ जाते थे। खूब बातचीत और ठहाके लगते थे। यह उन दिनों की बात है जब मानव कथित रूप से इतना सभ्य विकसित नहीं था। मोबाइल फोन नहीं हुआ करता था। उस दौर में एक-दूसरे से अपनत्व व लगाव था, इसलिए शायद अलाव था। आज मानव अंधाधुंध तरक्की कर रहा है, लेकिन वास्तविक रिश्ते में अविश्वास की धुंध है। आज पैसा ही सब कुछ है, यह समझ कर उसके पीछे भाग रहा है।
अलाव अब बीते वक्त की बात हुए, इसकी पूरी एक दुनिया ही खत्म हो गई। सर्दी के मौसम में इंसान अलाव पर आग की ओर हाथ फैलाए रिश्तों की गर्माहट बरकरार रखता था। आस-पड़ोस का दुःख-दर्द कौड़ा पर बांट लेता था। सुबह-शाम को जब अलाव जलता तो सबके चेहरे अलग ही तरह से प्रसन्नता से उजले हो उठते। अलाव के चारों ओर सब पीढ़े, जूट के बोरे, कुर्सियां,या मोढ़े लेकर बैठ जाते थे। बच्चों के बीच बैठने को लेकर सांकेतिक नूरा-कुश्ती भी चलती, ताकि उन्हें बैठने की जगह मिल सके।
आज मानव मानवीय व्यवहार को भूलकर आधुनिक तकनीकी के जाल के बीच फंस कर रह गया है। इस जटिल होती समस्या पर विचार करने की जरूरत है।
मानवीय कसौटियां मुश्किल हैं। आग और नदियों से इंसान का नाता पुराना है। इनसे किनारा मतलब इंसानी पहलुओं से किनारा है, जहां वह नहीं सभ्यता का फूल मुरझाया। आज इंसान और आग के रिश्ते के बीच की दूरी भी पास-पड़ोस से दूरी है। मनुष्यता की आत्मा बेचैन है। वह अतीत की सुखद स्मृतियां आज न मिल पाने पर टीस देती हैं। अपने भीतर की मनुष्यता के पांव लड़खड़ा रहे हैं। बहरहाल, आग की ताप से तपे रिश्ते जीवनभर साथ निभाते हैं। ऐसे मजबूत रिश्ते पर फिर से लौटें। सर्दी का मौसम हो और आग जल रही हो तो अपने आप उसके किनारे देर तक बैठे रहना कितना भाता है।
अलाव के ताप पर पकता रिश्ता खोखला नहीं होता, बल्कि परिपक्व होता है। आज हमें फिर से इन रिश्तों को बचाने के लिए अलाव सुलगाने की जरूरत है। हमें अपनी अगली पीढ़ी के लिए अलाव संस्कृति को बचाना होगा और जिससे धीरे-धीरे उनकी अगली पीढ़ी में हस्तांतरित स्वतः ही होगा। इसका भाव बहुत है क्योंकि आज मनुष्य जीवन में इसका अभाव है। हमें अलाव का अब कोई नहीं भाव से निकलकर इसका बड़ा भाव यानी मूल्य है समझना होगा।